आदरणीय साथिओ,
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सबक - (विषयान्तर्गत)
"यह तेरी आँखों को क्या हुआ?" डॉक्टरनी जी नें उसकी सूजी हुई लाल-सुर्ख आँखों का कारण पूछा तो उसने हमेशा की तरह आज फ़िर बात टाल दी। और क्लीनिक की साफ-सफाई में जुट गई ।
क्या बताती वह उन्हें? यह तो अक्सर ही होता है। सफाई करने के लिए सामान इधर से उधर करने के साथ-साथ वह अपने ख्यालों की उठापटक में आ उलझी। भावावेश में आकर उस दिन जबसे उसने मियाँ-बीबी के अपने आपसी झगड़े को पड़ोसन से ज़ाहिर किया है तब से अक्सर किसी न किसी पड़ोसी के मुँह से उसे अपने और अपने पति के विषय मे कुछ न कुछ ऊलजलूल सुनाई दे ही जाता है।
मारे डर के वह पति से उस विषय मे कुछ नही बताती पर 'दूसरों की परेशानियों का मखौल उड़ाकर , लोगों को न जानें क्या मज़ा आता है?' यही सोच-सोच कर उसका सारा दिन सिसकते हुए ही बीतता है।
आज का दिन भी कुछ यूँ ही बीतता अगर एक नन्हे मरीज़ की महीन आवाज़ उसके कानों में न पड़ती।
"डॉक्टर आँटी ,डॉक्टर आँटी ये जो मक्खियॉं हैं न ! मेरे घावों को कुरेद देती हैं। मैंने तो इनसे कभी लड़ाई नही की, फिर भी..? आप इन्हें समझा दोगी कि ये मेरे घाव न कुरेदें।" नन्हा बच्चा हुसकते हुए डॉक्टरनी जी से कह रहा था।डॉक्टरनी हँस दीं।
फ़िर बच्चे के सिर में हाथ फेरते हुए वे बोलीं "बेटा घावों को ढक कर रखना चाहिए। मक्खियों की फ़ितरत में ही होता है घाव कुरेदना।"
डॉक्टरनी जी की बात सुन उसे लगा जैसे उसके मन मे लगातार कसती हुई गिरहों की जकड़ एकाएक कमज़ोर पड़ गई हो।
"डॉक्टरनी जी बिल्कुल ठीक कह रही हैं।" बुदबुदाते हुए उसने बेड पर पड़े कम्बल को तह करके परे रखा और चादर पर पड़ी सलवटों को हाथ से सीधा कर दिया।
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मौलिक व अप्रकाशित
आ, सुधीर जी नये कथानक के साथ आपकी रचना खासा प्रभाव डालने में सक्षम हुई है."बेटा घावों को ढक कर रखना चाहिए। मक्खियों की फ़ितरत में ही होता है घाव कुरेदना।" कथा का मुल भाव समा गया है इसमे. बधाई आपको
हार्दिक आभार
प्रतिक रूप से कही गई शानदार लघुकथा के लिए बधाई आदरणीय सुधीर जी.
हार्दिक आभार
हार्दिक आभार
वाह वाह, बहुत ही सशक्त लघुकथा है भाई सुधीर द्विवेदी जीI शिल्प और कथ्य के दृष्टिकोण से बेहद प्रभावशाली रचना है. मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें.
हार्दिक आभार सर |
हार्दिक आभार
शुक्रिया छोटे भाई
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