आदरणीय साथिओ,
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हे काय आहे?
काय झाला ताई? "तिसरे" - "बीना" ????????
मैं आपके इस अन्दाज़ पर सिर्फ मुस्कुरा ही सकता हूँ. :)))))))))))))
तस्दीक भाई, बहुत शानदार शुरुआत किन्तु अंत बिलकुल पारंपरिक अंत में नयापन लाना चाहिए था .
हार्दिक बधाई आदरणीय तस्दीक अहमद खान सहब जी।आदाब,वाह लाज़वाब लघुकथा।प्रदत्त विषय पर धर्म के ठेकेदारों पर अच्छा कटाक्ष करती बेहतरीन संदेशप्रद रचना।
दूध का जला
गुस्से से भुनभुनाते हुए अमरनाथ ने जैसे ही आँगन में कदम रखा, सामने ही फर्श पर पड़े गिलास पर खीज उतारते हुए, उसे ज़ोर से ठोकर मारी। गिलास नाचता हुआ, घर की नीरवता को झंकृत करता, दूसरे कोने में जा दीवार से टकराकर शांत हो गया।
“दिखा ले जितना गुस्सा दिखाना है! मैं भी बाप हूँ तेरा! मन्नो की शादी वहीं होगी जहाँ मैं हामी भरूंगा।” पिता अपने कमरे में से ही क्रोधित स्वर में डकराये।
घर की स्त्रियाँ समझ चुकीं थी, कि हर बार की तरह इस बार भी अमरनाथ का पसन्द किया रिश्ता पिता को समझ में नहीं आया, और रिश्ता तय होने से पहले ही टूट गया है। क्योंकि यह पहली बार नहीं था जब रिश्ता देखने गए पिता-पुत्र आपस मे उलझते हुए लौटे हों।
“पिता जी के कहे में रहे न, तब तो हो ली लड़की की शादी!” अमरनाथ क्रोध से भन्ना रहा था।
बीच-बचाव करने की गरज से माँ ने अमरनाथ के पास जाकर पूछा, “अरे, अब क्या हुआ, बेटा?”
बहू के हाथ से पानी का गिलास ले, बेटे को पकड़ा कर, उसके ही कंधे का सहारा ले बगल में बैठ गई।
माँ को समर्थन में पाकर अमरनाथ फट पड़ा, “अच्छे खाते-पीते लोग हैं। लड़का डॉक्टर है। अब कुछ तो उम्मीद उन्होंने भी लगा रखी होगी ही न! वो लोग गाड़ी चाहते हैं… हमारा बजट पूछा। पिताजी को इतने भर से लालच दिख गया उनका!”
“अच्छा! तू चिंता न कर अभी बात करती हूँ इनसे।” कहती हुई माँ ने पिताजी के कमरे का रुख किया, तो भीतर से आती बहू की आवाज़ सुन ठिठकी।
“आप परेशान मत होइए, बाबूजी! वो आपसे ऊपर थोड़े ही हैं।”
“पर, बहू, कोई इनसे भी तो पूछो! आज के ज़माने में बिना लेन-देन के शादी मुमकिन है? फिर हम समरथ हैं, तो क्यों न दें अपनी बिटिया को।” माँ ने उनकी बातचीत में शामिल होते हुए कहा।
“ये तुम कहती हो, अमर की माँ? हमने अमिता की शादी में इन छोटी-छोटी बातों पर ही तो ध्यान नहीं दिया था।”
“पर एक बार गलत लोग मिल गए, तो ज़रूरी तो नहीं सब वैसे ही हों।” अपनी बेटी का ज़िक्र आते ही माँ का स्वर नम हो गया था।
“सुनो, अमर की माँ! हम अपनी बेटी को गवाँ चुके हैं… इसी लिए, पोती के मामले में हर कदम फूंक-फूंक कर रखना है!”
अपना निर्णय सुनाकर बाहर निकल कर, सामने ही खड़ी मन्नो के सिर पर हाथ फिराते हुए बोले, “अपने बाबा पर भरोसा रखना, तू उसी घर जाएगी जहाँ तेरी ज़रूरत हो। तेरे पिता के ऊंचे ओहदे, और दादा की दौलत की नहीं।”
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मौलिक एवं अप्रकाशित
अपने बाबा पर भरोसा रखना, तू उसी घर जाएगी जहाँ तेरी ज़रूरत हो। - शानदार सन्देश देती उम्दा लघुकथा के लिए बधाई आदरनीय सीमा सिंह जी .
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