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1,स्पंदन......(२ मुक्तक)  :

व्यर्थ व्यथा है हार जीत की
निशा न जाने पीर  प्रीत की
नैन बंध सब शुष्क  हो  गए
आहटहीन हुई राह मीत की
.... ..... ..... ..... ..... ..... ..... ....

2.

गंधहीन हुए चन्दन  सब
स्वरहीन हुए क्रंदन  सब
स्मृति उर से रिसती रही
मौन हो गए स्पंदन  सब

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on June 14, 2017 at 7:06pm

आदरणीय रामबली गुप्ता जी प्रस्तुति के भावों को अपने स्नेह से अलंकृत करने का हार्दिक आभार। 

Comment by रामबली गुप्ता on June 13, 2017 at 4:17pm
आद0 भाई सुशील सरना जी कम शब्दों में भी अच्छे भावों को व्यक्त किया है आपने। हृदय से बधाई स्वीकारें इस सुंदर रचना के लिए।सादर
Comment by Sushil Sarna on June 11, 2017 at 12:08pm

आदरणीय  Mohammed Arif जी प्रस्तुति आपकी स्नेहिल प्रशंसा की आभारी है।

Comment by Sushil Sarna on June 11, 2017 at 12:08pm

आदरणीय  narendrasinh chauhan जी सृजन को आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार।

Comment by Mohammed Arif on June 10, 2017 at 9:52pm
आदरणीय सुशील सरना जी आदाब, बहुत ही सुंदर मुक्तकों की रचना । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
Comment by narendrasinh chauhan on June 10, 2017 at 4:43pm

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