परम आत्मीय स्वजन
74वें तरही मुशायरे का संकलन हाज़िर कर रहा हूँ| मिसरों को दो रंगों में चिन्हित किया गया है, लाल अर्थात बहर से खारिज मिसरे और हरे अर्थात ऐसे मिसरे जिनमे कोई न कोई ऐब है|
___________________________________________________________________________________-
दिनेश कुमार
जो शजर से उड़ चले थे, सर-ए-शाम तक न पहुँचे
वे परिन्दे अब कहाँ हैं जो क़याम तक न पहुँचे
भले शैख़ हूँ, ए साक़ी! तू पिला नज़र से मुझको
प नज़ारा मयकशी का ये इमाम तक न पहुँचे
मुझे कुछ इशारा तो कर, जो है वज्ह रूठने की
करूँ कैसे मैं गवारा, के पयाम तक न पहुँचे
तेरी रहमतें हैं मौला मेरे घौसले पे इतनी
मेरी ख़्वाहिशों के ताइर कभी दाम तक न पहुँचे
ये हमारी तिश्नगी का हुआ इम्तिहान कैसा
के हमारे दस्त-ए-ख़्वाहिश कभी जाम तक न पहुँचे
ये सफ़ेदपोश डाकू ये निज़ाम दौर-ए-नौ का
यहाँ सौ टके में दस भी, तो अवाम तक न पहुँचे
जो हयात ने दिया है, वो क़ज़ा समेट लेगी
नहीं एक भी हिकायत जो तमाम तक न पहुँचे
शब-ए-ग़म के बाद आई ये घड़ी ख़ुशी की लेकिन
''ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे''
मेरा साथ रायगाँ ही, हुआ बार बार साबित
मैं वो रहगुज़र हूँ 'दानिश' जो मुक़ाम तक न पहुँचे
________________________________________________________________________________
Samar kabeer
जो बुना था तूने साक़ी उसी दाम तक न पहुँचे
था जिन्हें शऊर-ए-हस्ती वही जाम तक न पहुँचे
तिरी बख़्शिशों के चर्चे तो बहुत सुने हैं लेकिन
उसे फ़ैज़ कैसे कह दूँ जो अवाम तक न पहुँचे
ये अदू की है शरारत कि है नामा बर की साज़िश
जो ख़तूत उसने लिक्खे वो मक़ाम तक न पहुँचे
जो मिली है तुझको मुहलत इसे जान ले ग़नीमत
अभी ज़िन्दगी के तूफ़ाँ दर-ओ-बाम तक न पहुँचे
सभी मुन्तज़िर हैं उनके ,सभी राह देखते हैं
वो जो सुब्ह के थे भूले यहाँ शाम तक न पहुँचे
क्यूँ अभी से जा रहे हो,ज़रा आसमाँ तो देखो
शब-ए-दश्त के मुसाफ़िर भी मक़ाम तक न पहुँचे
मिरे जज़्बए वफ़ा की उन्हें क़द्र कैसे होगी
सुनी शाइरी तो लेकिन वो कलाम तक न पहुँचे
ए 'शकील' क्या ग़ज़ब है,ये सवाल ही अजब है
"ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे"
करो गुफ़्तुगू अदब पर तो "समर" ख़याल रखना
कि मुबाहिसा हमारा रह-ए-आम तक न पहुँचे
_________________________________________________________________________________-
Mahendra Kumar
ग़म-ए-इश्क़ का सफ़र मेरा, मुक़ाम तक न पहुँचे
मेरे नाम से चला है, तेरे नाम तक न पहुँचे
वो चराग़ आख़िरी, बुझने न पाये, देखियेगा
बड़ी सर्द ये हवा है लब-ए- बाम तक न पहुँचे
जहाँ में रफ़ीक़ हमने भी कमाई ख़ूब इज़्ज़त
यूँ दुआओं से गिरे हैं कि सलाम तक न पहुँचे
वही चाहते हैं करना तुझे दूर मुझ से हमदम
जिन्हें डर ये है तेरा हाथ पयाम तक न पहुँचे
है ये आरजू कि घुल जाएँ हवाओं में हवाएँ
है ये फ़िक्र भी कि परवाज़ ग़ुलाम तक न पहुँचे
वही जाम, मयक़दा और लुटी पिटी सी यादें
"ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे"
मेरे क़त्ल में है शामिल तेरे साथ रूह मेरी
मुझे डर है राज़ ये भी रहे-आम तक न पहुँचे
उसी मोड़ पे ले आया मुझे फ़िर से रतजगा क्यूँ
जहाँ पर लहू बहे और कलाम तक न पहुँचे
___________________________________________________________________________________
rajesh kumari
कई ख़ार रोकते बात निज़ाम तक न पंहुचे
कि गरीब शख्स का कोई पयाम तक न पंहुचे
वो लिखें तो क्या लिखें और लिखा तो फ़ायदा क्या
जो किताब में लिखे लफ्ज़ अवाम तक न पंहुचे
वो हुजूम अब्र का देख किसान डर रहा है
कहीं जेब में फसल का कोई दाम तक न पंहुचे
हुआ लाल जो समंदर तभी मुड़ गया मछेरा
डरे सोचकर कि वापस कभी बाम तक न पंहुचे
करे रात दिन तपस्या डरे मन में वो खिलाड़ी
कहीं लिस्ट में सिफ़ारिश बिना नाम तक न पंहुचे
यही सोच के सिहरता मेरी जीत का उजाला
ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पंहुचे
वो खिज़ां को देख इक दिन मेरा डर गया बुढ़ापा
कहीं हाथ अब किसी दिन मेरा जाम तक न पंहुचे
________________________________________________________________________________
मिथिलेश वामनकर
कोई लाख दे दुहाई, वो निज़ाम तक न पहुँचे
ये सुकून के हैं बादल, कभी बाम तक न पहुँचे
कभी वो चले हैं गंगा, कभी वो करें हैं दंगा
वो लगे तो हैं युगों से, कभी राम तक न पहुँचे
कोई साम-दाम करता, कोई दण्ड-भेद करता
ये अज़ब नया जमाना कि मुकाम तक न पहुँचे
कोई दे रहा है बोसा, कोई दे रहा है कांधा
रही और अपनी किस्मत, कि सलाम तक न पहुँचे
ये हुनर रहा न बाकी, तेरे मयकदे में साक़ी
तू नज़र से ही पिला दे, कोई जाम तक न पहुँचे
ये पता कि मौत है सच, मगर आपका ये लालच
“ये सहर भी रफ्ता-रफ्ता, कहीं शाम तक न पहुँचे”
यहाँ इश्क का ऐ हमदम! जो गुबार उट्ठे दुर्दम
ये हमेशा मैंने चाहा, तेरे नाम तक न पहुँचे
मेरी किस्मतों में यारब, ख़ुशी कोई भी रही कब?
मुझे शे’र वो बनाया जो कलाम तक न पहुँचे
___________________________________________________________________________________
गिरिराज भंडारी
ये मुख़ालिफत भी बढ़ के, किसी धाम तक न पहुँचे
मुझे डर है बेनियाजी , कहीं राम तक न पहुँचे
तेरी सारी कोशिशें तो, इसी ओर ही लगीं है
जो अलिफ को छू लिया वो, कभी लाम तक न पहुँचे
हाँ ,नदी तेरे करम की, थी बही ये मानता हूँ
मगर आब, फाइदा क्या जो अवाम तक न पहुँचे
वो जो मुन्किरे वफा है , है ये सच वफा है उसमें
उसे डर यही है तुहमत, किसी नाम तक न पहुँचे
ये थकन तो कह रही है, कहीं रुक के सांस ले लूँ
है ये रास्ते की साजिश , वो क़ियाम तक न पहुँचे
है नज़र नज़र में साजिश , है बशर बशर शिकारी
मै दुआ करूँ कहाँ तक , कोई दाम तक न पहुँचे
कभी होगा सामना भी, वो ये बात भूल जायें
मेरी काविशें हैं अब वो , मेरे बाम तक न पहुँचे
अगर आप को रही है, कभी मंज़िलों की चाहत
क्यूँ भला ये सुब्ह चलके , किसी शाम तक न पहुँचे
जो उगा वो डूबता है, तो ये बात सोचना क्यूँ ?
" ये सहर भी रफ्ता रफ्ता कहीं शाम तक न पहुंचे "
________________________________________________________________________________
Kalipad Prasad Mandal
किया जो ये कारनामा यहाँ, आम तक न पहुँचे
कभी कुछ करे भलाई कभी, दाम तक न पहुँचे |
असमय का खाना पीना, कभी काय खाता है क्या
असफलता धीरे धीरे कहीं काम तक न पहुँचे |
यूँ नहीं अवाम माने, किसी को बिना विचारे
छिपा राज है हमारा भी, अवाम तक न पहुँचे |
चुरा लेता थोडा थोड़ा, कभी तिल कभी तो मासा
कभी वह हो जाय ज्यादा, किलो ग्राम तक न पहुँचे |
बे असर है सारी बातें, जहाँ हो खराब नीयत
ये सहर भी रफ्ता रफ्ता कहीं शाम तक न पहुँचे |
है कठिन बहुत यहाँ, जीने का दाम पड़ता देना
वही करना जिंदगी भर, कभी घाम तक न पहुँचे |
यूँ कदम कदम बढ़ाना, सुमधुर हो जीना मरना
तिरा मेरा खाना पीना भी, हराम तक न पहुँचे |
_________________________________________________________________________________
Tasdiq Ahmed Khan
यही सोच कर कभी हम तेरे बाम तक न पहुंचे।
कहीं कोई अपनी ज़िल्लत तेरे नाम तक न पहुंचे।
जो भलाई तक न पहुंचे जो निज़ाम तक न पहुंचे ।
कहें उसको कैसे हाकिम जो अवाम तक न पहुंचे ।
किसी जादुई नज़र से लड़ी जब से आंख मेरी
है करिश्मा हाथ मेरे कभी जाम तक न पहुंचे ।
मिले रोज़गार बेहतर जो वतन में ही सभी को
तो कोई भी घर से बाहर कभी दाम तक न पहुंचे ।
नया आ गया सवेरा है मगर ये खौफ हमको
ये सहर भी रफ्ता रफ्ता कहीं शाम तक न पहुंचे ।
मेरी जाँ बढ़ाएं कैसे ये है सिलसिला वफ़ा का
जो पयाम हैं जुबां पर वो कलाम तक न पहुंचे ।
यही सोच कर ही रह रह के में हंस रहा हूँ यारो
मेरा ग़म निगाहे तर से कहीं आम तक न पहुंचे ।
ये है कैसा दोस्ताना तेरे घर पे मैं ही आऊं
मेरे घर पे तेरे लेकिन कभी गाम तक न पहुंचे ।
मेरी जान तरके उल्फत हुई सिर्फ हम में तुम में
भला कैसी बेलिहाज़ी के सलाम तक न पहुंचे ।
सभी पागये हैं मंज़िल जो चले थे साथ लेकिन
मैं हूँ उन मुसाफिरों में जो मक़ाम तक न पहुंचे ।
कोई ले खबर भी कैसे वहाँ उसकी जाके तस्दीक़
जहां एलची भला क्या है पयाम तक न पहुंचे ।
________________________________________________________________________
Ahmad Hasan
मेरी उल्फतों के चर्चे तेरे बाम तक न पहुंचे ।
मेरी बात यह तो देखो के सलाम तक न पहुंचे ।
तेरा घर है अपनी मंज़िल है सड़क भी सीधी सीधी
ये पता नहीं के क्यों हम तेरे धाम तक न पहुंचे ।
ये ज़मीर मुझ से बोला ,इसे फ़ेंक ,मार ठोकर
मेरे हाथ पैर लेकिन मेरे जाम तक न पहुंचे ।
मैं इधर हूँ वह उधर हैं मुझे बाई बाई कहना
ये है कैसी आशनाई दरोबाम तक न पहुंचे ।
मैं था दर्ज सबसे ऊपर वो थी लिस्ट खूब छोटी
मैं दलित हूँ वह है आला मेरे नाम तक न पहुंचे ।
ये तो मैं ही जानता हूँ मेरी रात कैसे गुज़री
ये सहर भी रफ्ता रफ्ता कहीं शाम तक न पहुंचे ।
मेरी आरज़ू है अहमद न कहीं भी अब हो दहशत
कोई ऐसा वैसा चर्चा तेरे बाम तक न पहुंचे ।
_____________________________________________________________________________
Amit Kumar "Amit"
कुछ लोग ऐसे भी थे जो मक़ाम तक न पहुंचे I
पहुंचे वो हर जगह पर तेरे नाम तक न पहुंचे II1II
उलफत में रात भर मैं जलता हूँ हर तरह से I
मैं ये चाहता हूँ उनको ये पयाम तक न पहुंचे II2II
अब रोज़ अंधेरों में, किस्मत को खोजता हूँ I
ये है डर कि राज मेरा ये अवाम तक न पहुंचे II3II
हम तुमसे आज फिर ये एक बात पूछते हैं I
ऐसी भी क्या बजह है जो सलाम तक न पहुंचे II4II
मेहमान हो हमारे फिर कैसे हो सकेगा I
कि ये होंठ तेरे-मेरे एक ज़ाम तक न पहुंचे II5II
मुझको वो आज कल भी उतना ही चाहता है I
फिर नाम उसका कैसे ये कलाम तक न पहुंचे II6II
उलझा हूँ में उसी में एक सत्य जो अटल है I
ये सहर भी रफ्ता रफ्ता कहीं शाम तक न पहुंचे II7II
________________________________________________________________________________
Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan"
वो डगर न भाये मुझको जो कि राम तक न पहुंचे
वो भजन कभी न गाऊँ जो कि श्याम तक न पहुंचे
तेरी साँस से नहीं जो ये मिले तो हर्फ़ मुर्दा
जो सजें न लब पे तेरे तो ये धाम तक न पहुँचे
मैं ये बेरुखी तराशूं बुते( बुत-ए-ग़ज़ल) ग़ज़ल बना दूँ
मेरे फ़न की है परीक्षा न हो काम तक न पहुँचे
मिली क़ैस को भी रांझे को भी मौत ही मिली है
ये सहर भी रफ्ता रफ्ता कहीं शाम तक न पहुंचे
मैं उसे भला कहूँ तो कहूँ शिष्ट किस तरह से
न चरण छुए जो झुक कर जो प्रणाम तक न पहुँचे
______________________________________________________________________________
सुरेश कुमार 'कल्याण'
वो हाथ उठे भी तो क्या जो राम तक न पहुंचे
वो लफ्ज भी चीज क्या जन तमाम तक न पहुंचे ।
तेरी नजरों का जादू था या बाहरी ताकत कोई
मधुशाला में रहकर भी हाथ जाम तक न पहुंचे ।
करम जो किये हैं तुम छुपाओगे कैसे
डर है कहीं ये राज अवाम तक न पहुंचे ।
ये नजरें झुकी हैं झुकी रहने दो इन्हें
ये सिलसिला कहीं काम तक न पहुंचे ।
कुंभार गढ़ता रहा खिलौने अनगिनत रंग बिरंगे
उसकी झोली में कोई कोड़ी दाम तक न पहुंचे ।
मिल गई आजादी है मगर ये भय सबको
ये सहर भी रफ्ता-रफ्ता कहीं शाम तक न पहुंचे।
माना ये सही है कि गर्दिश में हैं सितारे
रोक लो ये खबर कहीं इमाम तक न पहुंचे ।
कई तरसते टुकड़ों को कई गोलियों से पचाते
दबा के रखना मुनासिब है भूख हराम तक न पहुंचे ।
_______________________________________________________________________________
नादिर ख़ान
तेरे नाम से शुरू हो मेरे नाम तक न पहुँचे
है वो खत बिना पते का जो मुकाम तक न पहुँचे
मेरी धड़कनें तू सुन ले तेरी खामुशी मै पढ़ लूँ
है जो राज़ ए दिल हमारा सरेआम तक न पहुँचे
कहीं खत्म हो ना जाये ये सफर भी दुश्मनी में
वो जो सुबह प्यार की हो मेरी शाम तक न पहुँचे
करें उससे क्या शिकायत करें उसपे क्या भरोसा
वो जो सुबह से चला हो वो जो शाम तक न पहुँचे
है वो बेखबर अगर तो उसे बेखबर ही रखना
मेरी ज़िंदगी का अंतिम सलाम तक न पहुँचे
गमे आशिकी बहुत है मुझे और गम न देना
मेरा दिल भटक गया तो कहीं जाम तक न पहुँचे
जो गुनाह हो चुके हैं करो आज उनसे तौबा
जो छुपा हुआ है सबसे सरेआम तक न पहुँचे
बनी खूब योजनायें हुई खूब वाह-वाही
वो भलाई क्या भलाई जो अवाम तक न पहुँचे
ये जो फ़िक्र है तुम्हारी यही दर्द है हमारा
ये सहर भी रफ्ता रफ्ता कहीं शाम तक न पहुँचे
_____________________________________________________________________________
शिज्जु "शकूर"
ये दुआ है दाग़ कोई तेरे नाम तक न पहुँचे
कोई खार ज़िन्दगी का कभी गाम तक न पहुँचे
करो इख़्तिलाफ़ यारो ये मगर खयाल रखना
कहीं ऐसा हो न जाए कि सलाम तक न पहुँचे"
तू सजा रहा है जिसको अभी चाहतों से अपनी
“ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे"
तेरी मुस्कुराहटों से मुझे हौसला मिला है
ये न हों तो राह मेरी भी मुक़ाम तक न पहुँचे
तेरी आँखों ने हमेशा मुझे बाँधकर रखा है
मेरे हाथ इसलिए तो कभी जाम तक न पहुँचे"
कोई फायदा नहीं है यहाँ चीखने से यारो
अगर अपनी बात ही जो रहे-आम तक न पहुँचे
_____________________________________________________________________________
Manoj kumar Ahsaas
मेरे गम की धूप दिलबर तेरे बाम तक न पहुँचे
चलूँ इतनी दूर तुझसे के सलाम तक न पहुँचे
कहीं ज़िक्र हो वफ़ा का कहीं बात हो सनम की
इज़हारे दर्द मेरा तेरे नाम तक न पहुँचे
मैंने दिल से सब लिखे थे पढ़े आँख से जो तुमने
मेरे लफ्ज़ बेअसर थे जो मुकाम तक न पहुँचे
मैंने दिल जला के दिलबर तेरे गम की रात काटी
ये सहर भी ढलते ढलते कहीं शाम तक न पहुँचे
दिखा खूब तू सियासत है ये जग फरेबखाना
तेरे फन की सीढ़ी लेकिन मेरे राम तक न पहुँचे
बड़ी देर से मैं तेरी बेरुखी से गमजदा हूँ
मेरे ग़म के फूल फिर भी क्यों कलाम तक न पहुँचे
अहसास हमको ऐसे मिला चाहतों का हासिल
हमें प्यास रास आई कभी जाम तक न पहुँचे
_______________________________________________________________________________
laxman dhami
करे तन ये कोशिशें मन कभी राम तक न पहुँचे
भला कौन वो मुसाफिर जो पयाम तक न पहुँचे।1।
रहे बैठे हम अभी तक जो नदी के दो तटों सा
चले सिलसिला मिलन का तो विराम तक न पहुँचे।2।
लिखी उसने है सहर ये कई सदियों बाद मुझको
"ये सहर भी रफ्ता रफ्ता कहीं शाम तक न पहुँचे"।3।
भरी नूर से वो आँखें लगे जाम सी मुझे पर
रहे होंठ हिल के बेबस कभी जाम तक न पहुँचे।4।
कोई गंगा जल की बूँदें मेरे कंठ में उतारो
कहीं दर्दे दिल ये मेरा भी कलाम तक न पहुँचे।5।
सदा सीलती हैं खुशियाँ यहाँ गम की बारिशों में
कभी दस्त यारो दिल के यहाँ घाम तक न पहुँचे।6।
चलो हो गई बहस अब कहे हम से ये दुःशासन
कहीं चीख द्रोपदी की किसी श्याम तक न पहुँचे।7।
तूने छोड़ना मुझे गर मेरे सर लगा दे तोहमत
कभी दाग इस जफा का तेरे नाम तक न पहुँचे।8।
__________________________________________________________________________________
munish tanha
फरियाद चाँद करता कभी वाम तक न पहुंचे
लिखे खत हजारों फिर भी वो मकाम तक न पहुंचे
जो गली से आप गुजरे तो सदाएं आ रही थीं
कि बने हैं जो शराबी कभी जाम तक न पहुंचे
सदा राज ही रहा है वो खुदा है देख समझो
जो जता रहे मुहब्बत वो तो नाम तक न पहुंचे
अभी प्यार ही हुआ है ये नशा अभी चढ़ा है
सभी देख कह रहे हैं ये दवाम तक न पहुंचे
कभी मुंह को तुम छुपाओ कभी बात हो रही है
है नजर में शोख मस्ती जो गुलाम तक न पहुंचे
________________________________________________________________________________
Dr Ashutosh Mishra
तूने वादे जो किये थे वो अवाम तक न पहुंचे
किये काम जो भी तूने वो मुकाम तक न पहुंचे
तेरा इंतज़ार करते कई दिन गुजर गए हैं
ये सहर भी रफ्ता रफ्ता कहीं शाम तक न पहुंचे
कई रिंद साकी मुझसे यहाँ बदनसीब भी हैं
गए रोज मयकदे जो कभी जाम तक न पहुंचे
मेरी सारी ज़िंदगी में नहीं सुध ली जिसने मेरी
कभी उसको मिरे मिटने का पयाम तक न पहुंचे
नए दौर में उसे ही कहें आदमी बड़ा सब
रहे खास लोगों में ही कभी आम तक न पहुंचे
वो फलक तो दूर उसको कोई छत नहें मिलेगी
कभी ख्वाब तक में भी जो किसी बाम तक न पहुंचे
कई दिन गुजर गए हैं हुयी रातें रायगाँ पर
कभी सोच उस हसीं की मेरे नाम तक न पहुंचे
वही प्याज़ जिसने सत्ता कभी दी बदल वतन में
वही प्याज आज कौड़ी के भी दाम तक न पहुंचे
_________________________________________________________________________________
Ashok Kumar Raktale
कोई और राह पकड़े मेरे गाम तक न पहुंचे
वो हवा है दुश्मनी की मेरे धाम तक न पहुंचे
वो न आया लेने बढ़कर कभी हाल मेरे मन का,
किसी हाल भी रहे पर वो मुकाम तक न पहुंचे
उसे दोस्त क्या कहूँ जो मेरी ही करे खिलाफत
मुझे जहर दे भले पर वो तमाम तक न पहुंचे
न वो यामिनी रही है बढ़ी भोर की तरफ जो
" ये सहर भी रफ्ता रफ्ता कहीं शाम तक न पहुंचे "
कई घर जलाने वाला रहा खौफ़ में हमेशा
कहीं आग ये न फैले मेरे चाम तक न पहुंचे
___________________________________________________________________________________
dilbag virk
रूह को निखार दे, ये कोहराम तक न पहुँचे ।
इश्क़ वासना के उस थोथे मुकाम तक न पहुँचे
न दो अहमियत इनामों को जमीर से जियादा
जरा ठहरो, खुद्दारी चलके इनाम तक न पहुँचे ।
बड़े यत्न से आजादी, फ़िजा महकाने लगी है
यही चाह उसकी, ये ख़ुशबू गुलाम तक न पहुँचे।
एक हो जाएं, सियासत के उसूल मान लो तुम
छुपाना है सच सभी से , ये अवाम तक न पहुँचे ।
करो कोशिशें उजाले सलामत रहें सदा ही
ये सहर भी रफ्ता रफ्ता कहीं शाम तक न पहुँचे ।
जुदा कर लें रास्ते विर्क जो मसले हल न हों तो
दिलों की दरार, नफरत के पयाम तक न पहुँचे ।
_____________________________________________________________________________
Ganga Dhar Sharma 'Hindustan'
शमशीर हाथ में हो ओ तमाम तक न पहुंचे ।
बुजदिल बड़ी सियासत जो नियाम तक न पहुंचे।।
सतसंग की परीक्षा जिस ने भी पास कर ली ।
मुमकिन नहीं कि फिर वो घनश्याम तक न पहुंचे।।
शिकवा करूँ मैं कैसे कि जवाब क्यों न आया।
गुमनाम सारे खत थे गुलफाम तक न पहुंचे ।।
अब रोक दे ओ मालिक सब गर्दिशें खला की ।
ये सहर भी रफ्ता रफ्ता कहीं शाम तक न पहुंचे ।।
जब ओखली में पूरा सर ही फंसा दिया तो ।
मुगदर से क्यों कहें कि अंजाम तक न पहुंचे ।।
हिन्दोस्तां भी या रब कब तक बचा सकेगा ।
जो ये तार तार खेमे ख़य्याम तक न पहुंचे ।।
________________________________________________________________________________
Ravi Shukla
जिन्हें लौटना था जल्दी वही शाम तक न पहुँचे,
तेरी याद के परिंदे भी मुकाम तक न पहुँचे।
ऐ शकील तेरे मिसरे से हुई है इतनी उलझन,
मेरे सैकड़ो मसाइल किसी काम तक न पहुँचे।
मैं हरीफ बुलबुलों का हुआ कैद मसलहत में,
जो थे सद्र शातिरों के कभी दाम तक न पहुँचे।
मेरे हाल की खबर भी तुझे हो न जाए ज़ालिम,
मैंने होठ सी लिए हैं कि पयाम तक न पहुँचे।
तू है बेवफा सितमगर तेरे प्यार की सज़ा में,
मेरी ज़िन्दगी का सूरज किसी शाम तक न पहुंचे।
मैं खड़ा हूँ जैसे तनहा न सफ़र न कोई मंज़िल,
ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता किसी शाम तक न पहुँचे।
ये थकान ज़िन्दगी की जो बिछा के सो गए थे
उन्हें नींद आ गई फिर वो मनाम तक न पहुँचे
मिले क़ैस की जो किस्मत तो जुनून रफ़्ता रफ़्ता ,
ये सुकून की तलब में मेरे नाम तक न पहुँचे।
तुझे भूल कर मैं आगे जो बढूँ ,करूं इरादा,
वो सफर रहे अधूरा किसी गाम तक न पहुँचे।
तेरे स्वाति चंद कतरे हैं मुराद तिश्नगी की,
मेरी जुस्तजू भटक कर किसी जाम तक न पहुँचे।
__________________________________________________________________________________
मोहन बेगोवाल
तेरे साथ जो गुजारी कभी आम तक न पहुंचे
कोई गम सता रहा है जो अवाम तक न पहुंचे
तुझे जिंदगी बनाने वो मुकाम तक न पहुंचे
कोई बात तो रही जो यूँ इनाम तक न पहुंचे
अभी रौशनी मिले है कोई रात को मिलेगा
“ये सहर भी रफ्ता रफ्ता कहीं शाम तक न पहुंचे”
ये यकीं हुआ मुझे आज कि साथ तेरा मुझको
बड़ा हम रखा संभाले उसी दाम तक न पहुंचे
कोई राज़ तो छुपा दूर ह्मी से जो रहता
जो जुबाँ नहीं अभी तक वो कलाम तक न पहुंचे
रखा जोश हम जमाने कोई हार तो न होगी
यही सोच कर सदा हम भी तमाम तक न पहुंचे
____________________________________________________________________________
मिसरों को चिन्हित करने में कोई गलती हुई हो अथवा किसी शायर की ग़ज़ल छूट गई हो तो अविलम्ब सूचित करें|
Tags:
आदरणीय दिनेश कुमार जी आपने 'पर' जिसकी कि मात्रा 2 है उसे 'प' लिखकर १ मात्रा की तरह प्रयोग किया है जो कि गलत है , यही कारण है कि मिसरा लाल रंग में है|
जनाब तस्दीक अहमद साहिब आपके मतले में ऐब-ए-शुतुर्गुर्बा है और दो मिसरैन में ऐब-ए-तकाबुले रदीफ़ है, एक मिसरे में आपने "सोच करके" का इस्तेमाल किया है जबकि यहाँ "सोच कर " होना चाहिए| अब ये आप के अख्तियार में हैं आप किस ऐब को मानते हैं और किसे नहीं मानते हैं वैसे आजकल बिना बहर की तुकबंदी भी लोग धड़ल्ले से कह रहे हैं और बाकायदा मुशायरों में ग़ज़ल के नाम पर पढ़ भी रहे हैं, ये तो हमें सोचना है कि लकीर कहाँ खींचनी है|
जी बिलकुल बाँध सकते हैं इसे १ या 2 दोनों प्रकार से बांधा जा सकता है
जनाब तस्दीक अहमद साहब वांछित संशोधन कर दिया गया है|
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |