आदरणीय साथिओ,
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मुक्ति
"बेचारे को आज मुक्ति मिल ही गई ।" राम प्रसाद ने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा । पास ही खड़े दिवाकर ने जिज्ञासा से पूछा-"किसको मुक्ति मिल गई ?"
"तुझे नहीं पता दिवाकर ?"
"नहीं, कतई नहीं ।"
"हमारे गाँव के रणछोड़ लाल को मुक्ति मिल गई ।"
"किस चीज से मुक्ति मिल गई ।"अब दिवाकर की जिज्ञासा ने और जोर मारा ।
"दर असल हमारे देश में मुक्ति उत्सव चल रहा है । धीरे-धीरे सबको मुक्ति मिल जाएगी ।"
"क्यों पहेलियाँ बुझा रहे हो राम प्रसाद , जरा साफ-साफ बताओ ।"
" कर्ज़दारी, भुखमरी, खाद बीजों की किल्लत, बिचौलिएँ राक्षस, भूमि से बेदखली, मौसम की बेरूखी, पुलिस की फायरिंग आदि के चक्रव्यूह से तंग आकर हमारे देश के किसान आत्महत्या करके मुक्ति पा रहे हैं । रणछोड़ लाल ने भी आज वही किया । क्या तुम अर्थी में चलोगे ?"
दिवाकर जड़वत् हो गया ।
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मौलिक एवं अप्रकाशित ।
एक वर्तमान समस्या को आधार बनाकर विषय पर बहुत मार्मिक रचना लिखी है आपने, आगाज़ करने के लिए ढेरों मुबारकवाद
एक अनछुए किन्तु ज्वलंत विषय को लेकर बहुत ही प्रभावोत्पादक लघुकथा कही है आ० मोहम्मद आरिफ साहिब, जिसे पढ़कर मन से आह भी निकलती है और वाह भीI सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि रचना एकदम सुगठित और कथ्य बेहद सधा हुआ हैI अंतिम संवाद में आपने उन कारणों की तरफ इशारा भी कर दिया जिसकी वजह से भारत का अन्नदाता आत्महत्या पर विवश हो रहा हैI लघुकथा प्राय: किसी समस्या का समाधान नहीं बताया करती वरण समस्या के कारणों की तरफ इशारा करके संभावित समाधान की तरफ इशारा किया करती है, उस दृष्टि से भी यह लघुकथा उत्तम हुई हैI इस सफल लघुकथा हेतु मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करेंI
आदरणीय आरिफ साहब, आयोजन में प्रथम प्रस्तुति हेतु बहुत बहुत बधाई. सच कहूँ तो मुझे यह लघुकथा समझ नहीं आयी. एक घटना का जिक्र है किन्तु इसमें कथानक कहाँ है.
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