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मापनी २१२ २१२ २१२ २१२ 

रात दिन बस यही सोचता रह गया

पास आकर भी क्यों फासला रह गया  

 

पत्थरों से लड़ाई कहाँ तक करे,

तोप का मुँह सिला का सिला रह गया

 

चढ़ गयीं परतें मुखोटे पे’ उनके कई,

बेखबर देखता आइना रह  गया

 

वज्न  वे रोज अपना बढ़ाते रहे,

और भीतर हृदय खोखला रह गया

 

सामना जब हुआ देखते रह गए,

प्यार अन्दर छुपा का छुपा रह गया

 "मौलिक एवं अप्रकाशित "

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Comment

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on July 18, 2017 at 4:09pm

आदरणीय  Saurabh Pandey जी त्रुटियों को सुधर लियाइ, आपके स्नेह के लिए बहुत बहुत  शुक्रिया आपका


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 17, 2017 at 4:14pm

अच्छी रचना हुई है आदरणीय बसंट भाई. बधाई स्वीकार करें. 

सुधीजनों ने त्रुटि के प्रति अगाह कर दिया है. कृपया सुधार कर लें. 

सादर

Comment by बसंत कुमार शर्मा on July 17, 2017 at 3:55pm

ह्रदय से आभार आपका आदरणीया KALPANA BHATT  जी  

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 16, 2017 at 6:20pm

उम्दा ग़ज़ल हुई है आदरणीय 

Comment by बसंत कुमार शर्मा on June 12, 2017 at 1:25pm

आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आपका ह्रदय से आभार 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 10, 2017 at 8:30pm
बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई आदरणीय..सादर
Comment by बसंत कुमार शर्मा on June 8, 2017 at 4:50pm

ह्रदय से आभार आपका आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी अब देखिये इसे दुरस्त करने का प्रयास किया है 

आदमी के मुखोटे पे परतें कई,

बेखबर देखता आइना रह  गया

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 8, 2017 at 3:37pm


चढ़ गयीं परतें मुखोटे पे’ उनके कई..ये मिसरा भी देख लें 

Comment by बसंत कुमार शर्मा on June 8, 2017 at 11:09am

आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी त्रुटि इंगित करने हेतु बहुत बहुत शुक्रिया आपका,

बहर मापनी २१२ २१२ २१२ २१२ है 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 7, 2017 at 11:17pm

बहर देख लीजिये भाई 
सादर 

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