आदरणीय साथिओ,
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बहुत अच्छी लघु कथा लिखी है आद० सीमा जी दिल को छू गई बहुत- बहुत बधाई |
"बापू का भात"----
जग्गु अचानक ठोकर खा कर गिरा था या खाली पेट चक्कर खा कर पता नहीं पर सब दौडकर उठाते तब तक उसकी साँसे पुरी हो चुकी थी।
मैयत से आकर दो घड़ी को उसके पास बैठे सभी अपने-अपने काम पर निकल गये थे। जिवल्या तो शायद कुछ ठीक से समझ भी ना पाया था . वो बाहर खेलता रहा।
"अम्मा! अम्मा! उठ ना कब तक यही बैठी रहेगी। बहुत जोरों की भूख लगी हैं." जिवल्या साड़ी का पल्लू खींचकर उसे उठाने की कोशिश कर रहा था।
वो तिरपाल और फूस से अस्थायी बनी झोंपड़ी के एक कोने मे चुपचाप अपने बढे हुए पेट पर हाथ धरे आसमान की ओर टकटकी लगाए बैठी थी।
"अम्मा! देख तो सही, सुगना मौसी, कानी ताई, कम्मो फुआ सब लोग कितना सारा भात और चटनी ..रख के गये है. वो उसे उठने की बार-बार गुहार लगा रहा था।
पेट को सम्हालते वो हौले से उठी और थाली मे भात परोस कर खिलाने लगी।
"माई तू भी खाले। पता नहीं कल मिले ना मिले।"
" क्यों ऐसा क्यो कह रहा" उसे सीने से लगाते उसके आँसू झरझर बहने लगे।
"कल थोडे ना कोई लाकर देगा। वो फुआ कह रही थी आज तेरा बाप मरा है ना तो तेरे घर चुल्हा नही जलेगा। इस वास्ते भात रख के गई है वो।"
"तो क्या कल..."
"अब हमारे पास बापू कहाँ है मरने के लिए।"
मौलिक व अप्रकाशित
ओह,अति सवदेनशील, हृदयस्पर्शी रचना
आदरणीय नयना आरती जी बहुत अच्छी कथा. इस कथा ने बालसुलभ मन को अच्छे से व्यक्त किया हैं. बधाई आप को.
आभार सुनील जी त्वरित प्रतिक्रिया के लिए. असल में जग्गु का परिचय देती तो वह कुछ भुमिका बाँधता सा महसूस हो रहा था तब फिर कथा उस क्षण से उठा ली जहाँ से गुजरते उसका बेटा भरपेट भात में सुख ढूँढता है.
एक बहुत बढ़िया विषय पर कही गयी सशक्त रचना है आदरणीया नयना जी, जिस हेतु सादर बधाई स्वीकार करें| पात्र का नाम जिवल्या कुछ अलग सा लग रहा है, एक छोटा बच्चा जो ठीक से समझा भी नहीं, उसके द्वारा कहीं अम्मा तो कहीं माई का उच्चारण, एक-दो जगहों पर टंकण की छोटी-मोटी त्रुटि जैसे //पुरी//, //मैयत से आकर दो घड़ी को उसके पास बैठे// - मैयत से आकर दो घड़ी उसके पास बैठकर आदि से ऐसा प्रतीत हो रहा है कि शायद कुछ जल्दी में सृजित हुई है| मेरे अनुसार थोड़ा सा ही समय देने के बाद यह रचना बेहतरीन हो सकती है|
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