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आदरणीय तिलकराजभाईसाहबजी,
मुझे शत-प्रतिशत विश्वास है कि आपने अपने पोस्ट के पूर्व अपलोडेड प्रतिक्रियाओं को देखा होगा.
इस बिना पर यदि मैं कुछ जोडूँ तो यही कहूंगा कि पारिवारिक सदस्यों के प्रति उलाहने या कमतरी का भाव रखना, मैं नहीं समझता, परस्पर प्रगाढ़ सम्बन्ध के कारण उपलब्ध कराएगी.
//..मरहूम मकबूल फि़दा ह़सैन एक कलाकार थे ऐसा कला पारखियों का विश्लेषण है, उन्होंने हिन्दू देवी देवताओं की कुछ विवादित पेंटिंग्स बनाईं ये एक अन्य वर्ग का मसला है जिसने शायद ही कभी यह समझने का प्रयास किया हो कि एक कलाकार क्या कहना चाह रहा हैं।//
वर्ना वे सदा ही महाराष्ट्र प्रान्त के पंढरपुर के गावदू बेटे भर रहे, अपनी माँ की यादों को अपने सीने में दबाये माँ के लिए हूक भरते हुए. इसी क्रम में यहाँ मैं एक बात जरुर साझा करना चाहूँगा, कितनों को अजीब सी लगे, माधुरी दीक्षित के प्रति प्रतीत होती उनकी दीवानगी जाती दुनिया की जिन्दा सूरतों में अपनी माँ की मुसलसल तलाश का पर्याय थीं.
ज़िन्दगी और मिट्टी से जुड़ा हुआ ऐसा संवेदनशील चितेरा इतना संवेदनहीन व्यापारी या इतना अहंकारी बाजारू कब और कैसे हो गया? जिस सामान्य जनता से अपनी नजदीकी का पर्याय उसने आजीवन नंगे पाँव रहना माना हो, इतनी उथली चेतना का धनी कैसे हो गया? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिसका सही-सही उत्तर वही दे सकते थे, जिनकी हम चर्चा कर रहे हैं.
आदरणीय योगराजभाई साहबसे मेरी इस विषय पर विषद चर्चा हुयी है. हम-दोनों ही इन्हीं विन्दुओं पर निरुत्तर थे.
//क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम अपने कर्मक्षेत्र को पहचानकर उसतक सीमित रहें और विवादित विषय उनके लिये छोड़ दें जिनकी रोज़ी-रोटी ही विवाद है।//
ये क्या लिख गए, आदरणीय? ऐसी कोई अपेक्षा मानसिक विकलांगता का आवाहन नहीं होगा? यह मानसिक भीरुता है, जिसके विरुद्ध एक साहित्यकार खड़ा होता है और आजीवन लड़ता है. 'कोई होहु नृप हमहीं का हानि..' की निर्जीव दशा में बने रहने का सन्देश है यह तो..! .. नहीं आदरणीय, आप यह कदापि न चाहते होंगे. न लिखते समय ऐसी कोई मंशा रही होगी. हां, मैं कुछ समझ नहीं पा रहा इस लिखे को.
अंत में, इतना भर निवेदन है, जिसकी तरफ अम्बरीष भाईसाहब ने भी इशारा किया है..रावण जैसा प्रकांड विद्वान उसके समय में कम ही हुए हैं. उसके ज्ञान के प्रति आदर-भाव स्वयं राम भी रखते थे. हम आज भी रावण रचित शिवतांडव-स्त्रोत्र का पाठ करते हैं. किन्तु रावण का महिमा-मंडन नहीं करते-फिरते. अब कोई मंशा-विशेष के तहत यह करने पर उतारू ही हो जाए तो यह एक अलग मुद्दा होगा. इस पर किया भी क्या जा सकता है? उसकी मानसिक और समस्त ज्ञान पराकाष्ठा उसके हठ, उसके नीच विचारों और कर्म के आगे गौड़ हो कर रह गयीं.
सकारात्मक कर्म और उच्च विचार, इसके साथ-साथ जन-मानस की भावना के प्रति आदर, किसी कलाकार या साहित्यकार ही नहीं किसी अदने को भी कालजय प्रणेता का सम्मान दिलवा देते हैं.
मेरा निवेदन कुछ लंबा हो गया है, किन्तु आप कतई अन्यथा नहीं लेंगे ऐसी प्रार्थना है. इस विश्वास के साथ...
--सौरभ
आपकी प्रतिक्रिया शब्दश: स्वीकार है हुजूर।
एक रुचिकर बात कहूँ कि शासकीय सेवकों के आचरण नियम में पहला नियम होता है 'प्रत्येक शासकीय सेवक अपने कर्तव्य के निर्वहन में अपने सर्वोत्तम विवेक का उपयोग करेगा, ऐसी परिस्थितियों को छोड़कर जब वह अपने वरिष्ठ के निर्देश पर कार्य न कर रहा हो.......' । एक बार इस पर बात चल निकली कि भ्रष्ट अधिकारी भी तो अपने सर्वोत्तम विवेक से कार्य कर रहा होता है अब वह विवेक ही दिशाभ्रमित हो तो क्या किया जा सकता है।
यही आचरएा नियम सब पर लागू होता है और कोई तथाकथित कलाकार इससे वंचित नहीं है, साहित्यकार भी नहीं।
'कर्मक्षेत्र को पहचानकर उसतक सीमित रहें' का उद्देश्य स्पष्ट है कि या तो इसे कर्मक्षेत्र बना लें या इसे नकार दें, अन्यथा जो कर्मक्षेत्र आपने निर्धारित किया है उसपर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
वाणी प्रकाशन या किसी और ने जो भी किया उसकी निन्दा कर हम स्वयं को संतुष्टि दे सकते हैं लेकिन वाणी प्रकाशन की सोच बदलने को जब तक अपना कर्मक्षेत्र न बना लें तब तक उनकी सोच तो वही रहेगी। और इसका प्रमाण है वह हठधर्मिता जो उन्होंने उनके विपरीत टिप्पणियॉं हटाकर दर्शाई है।
मूल प्रश्न रह जाता है अंत में हासिल क्या हुआ।
आदरणीय तिलकराज भाई साहब.
मैं आपका हार्दिक रूप से आभारी हूँ कि आपने मेरी शंकाओं का शब्दशः न केवल निवारण किया बल्कि पंक्तियों से निथरे हुए सत्य को अनुमोदित भी किया है. हम अपने दैनिक दायित्त्वों से तनिक परे हट कर ही ओबीओ या इसी तरह के मंचों पर सक्रीय होते हैं.
हम सभी के पास और कुछ हो न हो एक संवेदनशील हृदय अवश्य है जो सत्य-शिव-सुंदर का साधक है, आग्रही है. नूतन को स्वीकारता है, पुरातन को पखारता है. और हमें सरस्वती-गणेश के आवाहन हेतु सुधारता है. इसी विश्वास और संबल के सिरे को पकड़ कर हम किसी असहज के सामने ठठ पाते हैं.
मात्र व्यक्ति नहीं, व्यक्ति का आचरण भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है. यह अवश्य है कि हमें अपने बीच कोई देव/देवता नहीं, बल्कि मनुष्य ही चाहिए. इस ऊर्जस्वी विचार के साथ कि यदि मनुष्यों के रीढ़ है तो यह रीढ़ वैचारिक रूप से भी बनी रहे.. गलत को गलत और उचित को उचित कहने की क्षमता बनी रहे.
बाद-बाकी नून-तेल-लकड़ी के लिए रोज़-रोज़ की जुगाड़ ने क्या-क्या नहीं हड़प लिए हैं हमसे..
सादर नमन ..
//हमें अपने बीच कोईदेव/देवता नहीं, बल्कि मनुष्य ही चाहिए. इस ऊर्जस्वी विचार के साथ कि यदि मनुष्यों के रीढ़ है तो यह रीढ़ वैचारिक रूप से भी बनी रहे.. गलत को गलत और उचित को उचित कहने की क्षमता बनी रहे.//
इन विचारों को मेरा सादर नमन .......:)
आदरणीय भाईसाहब, आपको मेरे विचार माकूल लगे, आपने उनका अनुमोदन किया है, मेरे लिये संतोष और आत्मविश्वास का कारण है.
आभार..
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