आदरणीय साथिओ,
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धन्यवाद् सीमा जी
प्रकृति भी पेट भरने वाली माँ ही है और माँ ही फ़रिश्ता है , सुन्दर कथा के लिए हार्दिक बधाई प्रेषित है आदरणीया कल्पना जी
धन्यवाद आदरणीय प्रतिभा दी|
पावन पतित
साइकिल पर पैडल मारता घर की ओर जाने वाली मुख्य सड़क पर बढ़ा ही था, कि सड़क की हलचल देख हौले से बुदबुदाया, “लगता है फिर कोई टक्कर हो गई।”
सड़क पर एक ओर खून के निशान थे। कुछ फटे कागज, एक पैर का जूता, टूटा चश्मा जिसका एक काँच चकनाचूर हो गया था...
गाड़ी से टूट कर बिखरा काँच, शाम की पीली पीली धूप में, स्वर्ण रज सा चमक रहा था।
मौसम में सर्दी बढ़ रही थी। उसने अपने गले में बेपरवाही से पड़े मफलर को कसकर लपेट लिया।
साइकिल की रफ्तार धीमी कर आस-पास खड़े लोगों से पूछा, “अब कौन गया?”
“टक्कर हो गई थी। पर ज़्यादा चोट नहीं लगी किसी के।”
प्रश्न पूछा अवश्य था, परंतु उसका ध्यान उत्तर से अधिक सड़क पर बिखरे सामान पर था।
साइकिल पर पीछे बैठी स्त्री ने अधीर होते हुए कहा, “अब चलो भी, सर्दी बढ़ रही है।”
“रुक तो सही! पिछली बार सोने की जंजीर यहीं तो मिली थी।”
अब स्त्री की निगाहें भी दुर्घटना स्थल का एक्सरे करने लगी थी।
“वो क्या पड़ा है?” स्त्री हौले से फुसफुसाई, और लपक कर नीचे पड़ा कागज़ का लिफ़ाफ़ा उठा लिया।
दोनों साइकिल पर बैठ घर की ओर बढ़ लिए।
“भारी लग रहा है। क्या होगा इस लिफाफे में?” स्त्री ने लिफाफे को टटोलकर अंदाज़ा लगाना चाहा।
“नोट होंगे!”
“नहीं, नोट तो नहीं लग रहे हैं।”
“प्रॉपर्टी के कागजात भी हो सकते हैं!” पति ने सुर्रा छोड़ा।
“हाँ, हाँ, क्यों नहीं! अपनी फैक्ट्री के कागज़ भी हो सकते हैं। कल से तुम वहाँ मजदूर नहीं मालिक की हैसियत जाओगे!”
“सुन, तुझसे सब्र नहीं हो रहा न? ला देख ही लूँ इसको फाड़कर।”
सड़क किनारे एकांत में साइकिल रोक, स्ट्रीट लाइट के नीचे उसने पत्नी के हाथ से लेकर लिफ़ाफ़ा दाएं-बाऐं नज़र घुमाते हुए किनारे से फाड़ कर हाथ पर पलट दिया।
“ये क्या है? रद्दी से कागज़ लग रहे हैं।” स्त्री के स्वर के साथ-साथ चेहरे पर भी निराशा छा गई।
“ज़रा मजमून तो पढ़... ला, इधर दिखा!” पुरुष ने कागज़ सीधे कर पढ़ते हुए बताया, “अरे! ये तो सरकारी कागज हैं। ओहो! किसी की नौकरी लगी है, बुलावा है!”
“चलो, चलो, बहुत जोर से सर्दी लग रही है! सूरज देवता भी अस्त हो गए।” हवा से सिहरती स्त्री हाथ में पकड़े लिफाफे और उसके भीतर से निकले कागज का बंडल बेरुखी से जमीन पर फेंक साइकिल पर बैठ गई।
“क्या करती है, भली मानस! कितनी उम्मीदें जुड़ी होगीं किसी की इस नौकरी से.”
पुरुष एक हाथ से साइकिल साधते हुए दूसरे हाथ से झुक कर सारे बिखरे हुए कागज़ समेट बुदबुदाया, “सुबह फैक्ट्री जाने से पहले डाकखाने में डाल देंगे। तू क्या जाने, एक सरकारी नौकरी एक इंसान की ही नहीं पूरे परिवार की तक़दीर बदल देती है।”
मौलिक एवं अप्रकाशित
बहुत बढ़िया सन्देश ,कसी हुई कथा| बहुत बहुत बधाई सीमा जी|
भाई उस्मानी जी, सम्पादन की गुंजाइश हो हमेशा रहती है. लेकिन आजकल नियुक्ति-पत्र एक पन्ने वाले नहीं रहे. इस जुलाई में मेरे छोटे बेटे ने पुरानी कंपनी छोड़ कर एक नई कम्पनी में नौकरी शुरू की, उसका अपॉइंटमेंट लैटर शायद 12-13 पन्नो का था. यदि कहें तो उसकी पीडीफ फ़ाइल आपको भी भेज सकता हूँ.
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