आदरणीय साथिओ,
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प्रदत्त विषय को सार्थक करती उम्दा लघुकथा है आ. कुसुम जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
धन्यवाद महेन्द्र कुमार जी
अच्छी लघु कथा आद० कुसुम जोशी जी हार्दिक बधाई
शुक्रिया राजेश कुमारी जी
शुक्रिया उस्मानी जी
रोशनी जगमगाती है तब भी , जब हम अन्तहीन निराशा के गर्त में होते हैं, .// बहुत सुन्दर ...हार्दिक बधाई इस शानदार रचना पर आदरणीया कुसुम जोशी जी
धन्यवाद प्रतिभा जी
(सुबह का भूला )लाकेट
"नही माँ अब संभव नही,आप लोगों के साथ रहना ,अलग रहेंगे हम ,माला आप लोगों के साथ नही रहना चाहती ।" अनमोल ने माँ की ओर देखे बिना फ़रमान सुना दिया ।
"पर क्या हुआ है बेटा हम अकेले कैसे रहेगें।" माँ ने अपनी साड़ी के पल्लू से भर आई आंखो को पोंछते हुये कहा ।
"आप रोकिये ना अनमोल के पापा ये क्या कह रहा है।" माँ ने पति से गुहार लगाई ।
वे सब सुनते समझते चुप थे क्योंकि जब अपना ही सिक्का खोटा हो तो कोई क्या करे।
"हमने क्या चाहा बेटा खाना और थोड़ा सा प्यार,हमने कुछ कमी ना की तेरी परवरिश में आज हमें तुम्हारी ज़रूरत है बेटा और तुम हमें " आगे कुछ ना बोल पाई,डबडबायी आँखे बोलने लगी ।
"तुम्हारी बहू के प्रति मेरी ज़िम्मेदारी है वह ख़ुश रहें माँ के कंधे पर हाथ रखते हुये बोला ।"
"और हम किसकी ज़िम्मेदारी है अनमोल हमारा सब तुम्हारा है तब भी हम तुम लोगों के बिना रह लेंगे ।
"जा बेटा ख़ुश रह अपनी दुनिया में,फिर हमारी निशानी छोड़ता जा गले का लाकेट दे दे अपनी मॉ को ।वरना तुझे याद आती रहेगी उसकी ।" पिता चुप ना रह सके ।
"ओह !! मुझे माफ़ करो माँ सब याद है मुझे बुरी नजर से बचाने के लिये पहनाया था ना मुझे" कहते हुये अनमोल ने माँ के गले में बाँहें डाल दी । तुम्हारे बिना कैसे ज़िंदा रह सकता हूँ मैं ।
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