आदरणीय साथिओ,
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हार्दिक आभार आदरणीय मुज्ज़फ्फर इकबाल जी
गज़ब और लाज़वाब कथा के लिए हार्दिक बधाई आ.प्रतिभा पांडेय जी
हार्दिक आभार आदरणीया जानकी जी
हम किन्नरों का कौन सा परिवार ..दिल छू गई ये पंक्तियाँ सच में भगवान ने कितनी नाइंसाफी की है इन लोगों के साथ कि खुद अपना परिवार भी अलग कर देता है अपनी औलाद को प्रदत्त विषय पर बहुत अच्छी लघु कथा हुई .बहुत बहत बधाई प्रिय प्रतिभा जी
हार्दिक आभार आदरणीया राजेश जी
हालांकि लघुकथा सरीखी काेमलांगी विधा में पात्रों के चरित्र चित्रण के लिए बहुत कम संभावनाएं होती है परन्तु एक सफल रचनाकार का व्यापक, प्रामाणिक व सूक्ष्म अनुभव ही लघुकथा में चरित्र बनकर प्रतिफलित होता है। प्रासंगिक, संक्षिप्त और सम्भाषण ने प्रस्तुत लघुकथा में जान पैदा कर दी है। पात्रों के हाव भाव के सूक्ष्म चित्रण से जटिल संवेदनाअों को सरलतापूर्वक व्यक्त किया है जैसे: सुखनी ने आँखें तरेरते हुए सुरेश को नकली गुस्सा दिखाया , सुखनी की आवाज़ में बच्चों जैसा उत्साह था , सुरेश से आँखें चुराती सुखनी शीशे में अपनी लाली ठीक करने लगी , आवाज का गीलापन छिपा नहीं पाई| इससे लघुकथा का कलेवर संक्षिप्त व आकर्षक बन गया है । नख से शिख तक यह लघुकथा पाठकों को बांध कर रखती है और लघुकथा के अंत का / मुझको भी पता है रे | हम किन्नरों का कौनसा परिवार ?/ यह संवाद पाठकीय चेतना को जर्बदस्त झटका देता है। मेरे पास शब्द नहीं है इस लघुकथा की तारीख के लिए। हार्दिक शुभकामनाएं स्वीकारें आदरणीय प्रतिभा जी । सादर
आपकी टिप्पणियों का हमेशा इंतज़ार रहता है मेरे इस प्रयास पर उपस्थित हो उत्साहवर्धक टिपण्णी से कथा का मान बढाने के लिए हार्दिक आभार आदरणीय रवि प्रभाकर जी
हार्दिक आभार आदरणीय वीरेंद्र वीर मेहता जी
वाह वाह ! बहुत बढ़िया लघुकथा कही है आदरणीया प्रतिभा दी| किन्नरों की पीड़ा को बहुत सुंदरता से उकेरा है| मार्मिक हुई है कथा| हार्दिक बधाई दी इस बेहतरीन लघुकथा के लिए|
हार्दिक आभार प्रिय कल्पना जी
आपकी कथा की हमेशा प्रतीक्षा रहती है दीदी। यह कथा भी प्रतीक्षा के सुखद परिणाम सी ही है। सहज भाव से पीड़ा शाब्दिक होती ही चली जाती है सरल शब्दों में मन को भिगोती कथा पर बधाई दीदी।
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