आदरणीय साथिओ,
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हार्दिक आभार आदरणीया बबीता जी ।
समसामयिक परिदृश्य में प्रदत्त विषय पर बढ़िया लघुकथा कही है आपने आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी. निश्चित ही इन लोंगों की वजह से संतों को लेकर समाज में दहशत का माहौल है. मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए.
दो सुझाव हैं, शायद आपको पसन्द आयें.
1. //जगतदेव अवधपुरी के उत्तराधिकारी बाबा उमाकांत महाराज// यदि इसके पीछे कोई विशेष अर्थ न छुपा हो तो नाम देने की आवश्यकता नहीं है.
2. दोनों महिलाएँ यदि ये संवाद टीवी पर सुन रही हों तो अर्थात् पंडाल में मौजूद न हों, तो कथा और बेहतर होगी.
सादर.
बहुत-बहुत आभार आदरणीय महेंद्र कुमार जी ।
मुहतरम जनाब आरिफ साहिब, प्रदत्त विषय पर सुंदर लघुकथा हुई है मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं |
बहुत-बहुत आभार आदरणीय तस्दीक़ अहमद साहब ।
यहां सबसे बड़ा सवाल यही हैं कि जब विश्वास ही नही था तो गई क्यो सत्संग सुनने? इतना विवेक तो होना ही चाहिए वो भी जब इतनी बातें पर्व से ही पता हो ।एक कड़वा सत्य यह भी हैं कि गेहूं के साथ घुन भी पीस रहा हैं।प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आ.मोहम्मद आरिफ जी
हार्दिक बधाई आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी। बेहतरीन लघुकथा।अति सुन्दर कटाक्ष।
हार्दिक आभार आदरणीय तेजवीर सिंह जी ।
हार्दिक आभार आदरणीया अर्चना त्रिपाठी जी ।
//" ठीक कहती हो बहन , अब तो साधु - संत , महात्मा और गुरुओं के नाम से ही डर लगता है । "//
तो फिर वे उस पंडाल में क्या कर रही थीं आ० मोहम्मद आरिफ जी?
मन में डर भले ही हो पर किसी के आग्रह पर भी तो जा सकती है । जो मन में होता है फिर उसे व्यक्त भी कर देती है । हार्दिक आभार आदरणीय योगराज प्रभाकर जी ।
आपका तर्क अपनी जगह दुरुस्त हो सकता है, मगर लघुकथा में कथ्य को तथ्य का आसरा मिलना बहुत ज़रूरी है आ० मोहम्मद आरिफ साहिब.
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