आदरणीय साथिओ,
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"पप्पीज़" से गप्पी चालबाज़ तक के समसामयिक डर को उभारती और सजग करती सामाजिक सरोकार की.बढ़िया रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ. आशुतोष मिश्रा जी।
आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी लघु कथा पर आपकी प्रतिक्रिया मेरे उत्साहवर्धन का सबब है मेरी लघुकथ में दिलचस्पी आपकी लगातार प्रकाशित होती रचनाओं को पढ़कर हुयी है और मैं आप सब को पढ़कर धीरे धीरे सीख रहा हूँ आपकी प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभारी हूँ सादर
हार्दिक आभार जनाब डॉ. आशुतोष मिश्रा जी।
बहुत अच्छी लघुकथा आदरणीय आशुतोष जी ,बधाई आपको ,सादर
डर को सामयिक परिपेक्ष्य में परिभाषित करती बढ़िया कथा हार्दिक बधाई आदरणीय आशुतोष जी
आदरणीया प्रतिभा जी रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया जे लिए हार्दिक धन्यवाद सादर
आ. आशुतोष मिश्र जी , कथा में उल्लेखित डर आज सभी के दिलों में पैर जमा चुका हैं।समसामयिक विषय पर बढिया प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई ।
आदरणीया अर्चना जी उत्साहवर्धन के लिए ह्रदय से आभारी हूँ सादर
जनाब डॉक्टर आशुतोष साहिब , प्रदत्त विषय पर सुंदर लघुकथा हुई है मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं |
बेटी के प्रति माँ के मन में बैठे डर को कुत्ते के बच्चे को प्रतीक बनाकर बख़ूबी परिभाषित करने का प्रयास किया है ।बधाई आ० आशुतोष मिश्रा जी ।
यह डर आज पूरे समाज में व्याप्त है. प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा हुई है डॉ आशुतोष मिश्रा जी. हार्दिक बधाई स्वीकार करें.
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