आदरणीय साथिओ,
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नास्तिक – ‘ए आउटलुक’
एक ही पेशा था हम दोनों का, और अक्सर किसी बड़े ‘काम’ में दोनों साथ मिलकर काम को अंजाम दिया करते थे। इस बार भी ऐसा काम हाथ में आया तो पूरे योजनाबद्ध तरीके से हमने उसे अंजाम दिया और ‘मंदिर’ से दूर निकल आये। हमेशा की तरह चोरी किये माल की गठरी के दो हिस्से करने के साथ मैं सामान की कीमत का आंकलन कर रहा था जब उसने कहा, "मुझे लगता हैं कि हमें यह सब नहीं करना चाहिए था।“
"तुम पीछे किसी सबूत छूट जाने के बारें में सोच रहे हो क्या?“ मुझे लगा कि शायद ‘ऑपरेशन’ में कोई गलती कर दी है हमनें।
‘......’ वह चुप था।“
“शायद तुम वहां लगे ‘सी.सी.टी.वी.’ की सोच रहे हो, उसकी 'टेंशन' मत लो क्यूंकि मैं पहले ही सारे तार काट चुका था।"
"नहीं, मैं इस बारें में नहीं सोच रहा, तुमने वहां दिवार पर बनी तस्वीरें देखी थी?“ उसके मन में शायद कुछ और था।“
“तस्वीरें! सहसा मेरे जहन में दिवार पर बनी ‘स्वर्ग-नरक’ से जुडी कई तस्वीरे उभर आई, मैं मुस्करा दिया। “ओह! तुम भी यार, मैं दो ‘टाइम’ आरती करने वाला भी धंधे के बीच ये सब नहीं सोचता और तुम जो भगवान् पर भी पूरी तरह विश्वास नहीं करते, एक नास्तिक हो कर उन तस्वीरों का खौफ़ ले बैठे।"
"नहीं दोस्त डर उन तस्वीरों का नहीं हैं, जिन पर विश्वास ही नहीं उनका कैसा डर?" वह गंभीर था।
"फिर!"
"दोस्त, मेरी आखें तो अभी तक उन शब्दों पर गड़ी है, जिन्हें मैं अपनी भूख और लालसा की अँधेरी गलियों में भूला बैठा था।
"....भूख-प्यास सिर्फ तुम्हारे शरीर को जला सकती हैं, लेकिन भूख के लिए किया गया अपराध तुम्हारे समस्त जीवन मूल्यों को जला देता हैं" मंदिर की भीतरी दिवार पर लिखे शब्दों की याद आते ही मैं खिलखिलाकर उठा। "वाह दोस्त एक नास्तिक हो कर धर्म की किताबों में लिखे शब्दों से डरने लगे।“
“मैं नास्तिक सही दोस्त, लेकिन इन शब्दों को मैं नकार नहीं सकता क्यूंकि ये शब्द मेरे भगवान् ने अपने आख़िरी समय में कहे थे।“ उसके चेहरे पर दर्द उभर आया।
“भगवान्.....!”
“हाँ मुझे जन्म देने वाले भगवान, मेरे पिता!” कहते हुए वह अपने हिस्से की गठरी छोड़, मेरी ओर से भी मुंह मोड़ चुका था।
(मौलिक व् अप्रकाशित/अप्रसारित)
आदरणीय वीरेंद्र वीर मेहता जी, प्रदत्त विषय बहुत ही अर्थपूर्ण रचना। सच है जिन पर विश्वास ही नहीं उनका कैसा डर। प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।
रचना पर आपकी भाव-भीनी उपस्थिति पर हार्दिक आभार आदरणीया नीलम जी। सादर।
जनाब वीरेन्द्र वीर मेहता जी आदाब,प्रदत्त विषय को सार्थक करती अच्छी लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
रचना पर आपकी प्रोत्साहन देती उपस्थिति पर हार्दिक आभार आदरणीय समर कबीर जी। आपका स्नेह बना रहे। सादर।
आदरणीय वीरेंद्र सर जी इस बहुत बढ़िया लघुकथा के लिए बहुत बधाई ,सादर
रचना पर आपकी उपस्थिति और प्रोत्साहन के लिये हार्दिक आभार आदरणीया बरखा शुक्ला जी।
बहुत बढ़िया कथा आ. वीर जी ।
रचना पर आपकी प्रोत्साहन देती टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार आदरणीया कनक जी। सादर।
वीरेंद्र जी ग़ज़ब लिखा है। हर व्यक्ति के लिए भगवान कि परिभाषा भिन्न है
कथा पर प्रोत्साहन देती आपकी सुंदर टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार अजय गुप्ता जी।
बेहतरीन अंतिम पंक्तियों के साथ पिता-विमर्श पर केंद्रित बेहतरीन उम्दा कथानक पर उम्दा सृजन के लिए हार्दिक बधाइयां आदरणीय वीरेन्द्र वीर मेहता साहिब। कुुछ एक टंकण त्रुटियाँ रह गईँ हैं। शीर्षक में // ‘ए आउटलुक’// के स्थान पर व्याकरण अनुसार // ‘एन आउटलुक’// होना चाहिए। सादर।
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