आदरणीय साथिओ,
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आदरणीय टी. आर. शुकुल जी, अच्छी लघुकथा की प्रस्तुति के लिए बधाई।
बच्चों को यही सिखाना चाहिये कि ज़रूरतमंदों की मदद करना चाहिये ।क्योंकि नेकियां लौटकर आती है ।कथा में बेटे ने ही पिता को नसीहत दे दी ।बधाई आपको आद० टी ० आर ० शुकल जी ।
बंटवारा--
बुद्धू भैया आज उदास थे, उनकी आँखों के सामने ही वो सब हो रहा था जिसकी उन्होंने अपने जीते जी कल्पना नहीं की थी. पूरा परिवार सहमत था, बस एक उनको छोड़कर. क्या क्या नहीं किया था उन्होंने इस परिवार के लिए, आजीवन कुँवारे रहे, लेकिन आज उन सबकी कोई कीमत नहीं थी.
कुछ बुजुर्ग रिश्तेदार, गांव के मुखिया और कुछ पट्टीदारों की उपस्थिति में सब कुछ तंय हो गया. घर, खेत, सामान और यहाँ तक कि दरवाजे पर बंधे जानवरों का भी बंटवारा हो गया. दालान में बैठे हुए बुद्धू भैया सूनी सूनी आँखों से सब देख रहे थे कि कैसे उनके दोनों भाई और उनका परिवार इस बंटवारे को लेकर बहुत उत्साहित थे. अचानक वह उठे और दरवाजे पर बंधी गायों के बीच चले गए. रोज दिन में कई घंटे इन गायों के साथ ही उनका समय बीतता था, खूब चराते थे उनको. गायों की प्रसन्नता से हिलते हुए सर को देखकर उनकी उदासी एक पल के लिए दूर हो गयी.
कुछ मिनट के बाद वह वापस दालान में आये और उन्होंने वहां उपस्थित सभी लोगों के सामने जोर से कहा "तुम लोगों ने जैसे चाहा, बंटवारा कर लिया. लेकिन इन गायों के बारे में मुझे कुछ कहना है". इतना कह कर वह सांस लेने के लिए रुके और उनके दोनों भाईयों की सांस रुकने लगी. शायद भैया गायों को हम लोगों को देना नहीं चाहते हैं, यही उनके दिमाग में आ रहा था.
"देखो चाहे तुम लोगों ने हर चीज का बंटवारा कर लिया है, लेकिन मैं उम्मीद करता हूँ कि एक चीज का हक़ तुम लोग मुझसे नहीं छीनोगे. आगे भी सभी गायों को चराने लेकर मैं ही जाया करूँगा और सबको उनकी गायों का दूध दुहकर दूंगा".
बुद्धू भैया वहां उपस्थित सभी लोगों से बेखबर बस गायों को प्यार भरी नजरों से देख रहे थे. उनकी उम्मीद जिन्दा थी और उनके भाई एक दूसरे से नजर चुरा रहे थे.
मौलिक एवम अप्रकाशित
ग्रामीण परिवेश में लिखी गई भावप्रधान लघुकथा के लिए बधाई। गांवों में शहर जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराने की कोशिशों के बीच शहरीकरण की बुराईयां भी गांवों में हावी होती जा रही है। हमारे गांव में आज भी हमारे चाचा-ताऊ संयुक्त परिवार में रहते हैं और हमारे पापा ने कभी उनसे अपना हिस्सा नहीं मांगा, जबकि पढ़े-लिखे बच्चे चाहते हैं कि आज नहीं तो कल अलग होना ही है तो बड़ों के रहते हिस्सा-बांटा हो जाए। लेकिन बुजुर्गों का कहना है कि जब तक चल रहा है निभाओ। इसे हम आशीर्वाद या आदेश भी समझ सकते हैं, परंतु अब गांवों में न केवल घर छोटे होते जा रहे हैं बल्कि खेत भी सिमटते जा रहे हैं। ये भले ही किसी एक परिवार या गांव का मसला हो, लेकिन हमारे देश की अर्थव्यवस्था को कहीं न कहीं प्रभावित करता है। बढ़ती महंगाई का एक कारण भी बंटवारे में छिपा देखा जा सकता है।
इस विस्तृत टिपण्णी के लिए बहुत बहुत आभार आ आशीष श्रीवास्तव जी
बहुत बढ़िया रचना आदरणीय विनय सर जी ,बधाई आपको इस सुंदर रचना के लिए ,सादर
इस टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ बरखा शुक्ला जी
आदरणीय विनय कुमार जी बहुत ही अच्छी रचना लिखी है .आप को मेरी ओर से हार्दिक बधाई.
हार्दिक बधाई आदरणीय विनय कुमार जी।कमाल की लघुकथा ।पशु प्रेम से ओत प्रोत सुंदर लघुकथा।कितनी बारीकी से आपने उम्मीद को उभारा है।लाज़वाब।
इस सटीक टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ तेज वीर सिंह जी
इस टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ ओम प्रकाश जी
विनयकुमार जी आदाब,
खूबसूरत अंदाज ़में लिखी बहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई।
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