आदरणीय साथिओ,
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बढ़िया रचना आदरणीय कनक जी ,बधाई आपको ,सादर
आदाब। यह रचना तीन बार पोस्ट हो गई है। कृपया किन्हीं दो को अभी डिलीट कर दें कोई टिप्पणी आने के पहले। यह मूलतः पक्के इरादे या संकल्प पर आधारित है। उम्मीद पर केंद्रित करने के लिए मां या पिता का एक सार्थक संवाद अंत में जोड़ा जा सकता है। सादर आदरणीया कनक हरलल्का जी।
सहमत ।
व्रत उपवास महिलाओं के हिस्से ही क्यों आज की पीढ़ी इस बात को बख़ूबी समझती है ।संदेशप्रद कथा के लिये बधाई आद० कनक हरलालका जी ।
अपनों की खुशहाली की उम्मीद से ओतप्रोत लघुकथा हुई है,बधाइयाँ आदरणीय कनक जी।
उम्मीद ओ बी ओ
रोशनी ज़िंदा है
अरे ये क्या कर रहे,बुड्डा ? सबके पास जाकर सबकी, टेबल पर खाना परोसने के बहाने हाथ से हाथ स्पर्श कर क्या ढूँढ रहा है। इसका हुलिया और पहनावा देखो
ये कितना गंदा दिख रहा है।
तीर्थयात्रा पर आये मोहन ने मधुर से ढाबे पर खाना खाने के लिये भीतर आकर कहा।
देख यार ? खाना कैसे परोस रहा है।मुझे तो घिन आने लगी है।
इसके मालिक की ख़बर लूँ , कैसे कैसों को पाल रखा है ।
छोड भाई,क्या करना है तुझे बड़ी मुश्किल से खाना मिला है हम खाना खा लेते है
मधुर ने मोहन को समझाने का प्रयास किया ।पर वह आपे से बाहर हो गया ।
जा बुड्डे अपने मालिक को बुलाकर ला ।
जी ,जी माफ़ करिये बाबूजी ये बुज़ुर्ग है। परिस्थितियों ने इनका ये हाल कर दिया है ।
बेटे,बहू साथ में तीर्थयात्रा करने लाये और इन्हैं छोड़कर भाग गये ।
अब ये हर आदमी में अपना बेटा ढूँढते है।
अचानक ही मोहन के तेवर ढीले हो गये।खाने की टेबिल छोड़कर उठा ,मालिक के पीछे खड़े
व्यक्ति के सामने खड़ा हो गया ।
मैं दोषी हूँ पापा ,मुझे माफ़ करिये ,आपने मुझे कभी अकेला नही छोड़ा और मैं ,आपका नालायक बेटा? दो जोड़ी आँखे छलछलाने लगी।
वह बुज़ुर्ग के पैरों में गिर गया ।
कंपकपाते हाथों से पिता ने बेटे को सीने से लगा लगा लिया
मुझे मालूम था तू मुझे लेने आयेगा जरूर ।
मौलिक व अप्रकाशित
प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा हुई है आदरणीया नीता कसार जी पर मुझे लगता है कि अन्त का हिस्सा थोड़ा जल्दी में कहा गया है. यदि इसे उभारा जाए तो लघुकथा बेहतर हो जाएगी. शीर्षक उम्दा है. मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
हार्दिक आभार आपका आद० महेंद्र कुमार जी ।
प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा हुयी है आदरणीया नीता कसार जी. बधाई स्वीकार करें।
हार्दिक आभार आपका आद० नीलम उपाध्याय जी ।
बढ़िया कथानक पर बढ़िया सबक़ देती रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया नीता कसार साहिबा। संवादों में इंवर्टेड कौमाज़ लगाये जाने चाहिए। पिता की उम्मीद की मार्मिकता उभारती रचना में बेटे मोहन के दो रूप दर्शाये गये हैं और पिता का आत्मविश्वास और उम्मीद। 'दाढ़ी वाले बुज़ुर्ग' कहने से मोहन द्वारा पिता को तुरंत न पहचान पाना स्पष्ट किया जा सकता है। सादर।
हार्दिक आभार आपका आद० शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी ।ये बातें मेरे मन में थी ।बदहवास बुज़ुर्ग या बदहवास आशा ।पर मुझे लगा बहुत बाद मिलने पर पिता की स्थिति का अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है।
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