आदरणीय साथिओ,
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कथानक के नयेपन की वजह से यह प्रतीकात्म्क लघुकथा अच्छी बनी है। लेकिन अभी इसमे सम्पादन की काफ़ी गुंजाइश है जिसके बाद रचना का प्रभाव निश्चित ही बहुगुणित होगा। प्रदत्त विषय से न्याय करती हुई इस लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई प्रेषित है।
बहुत बहुत आभार आदरणीय योगराज जी।निश्चित तौर पर संपादन के उपरांत लघुकथा बेहतर होगी।आपकी स्वीकृति ज्यादा महत्वपूर्ण है,सादर।
विषय में नवीनता है लेकिन अभी भी इसे और बेहतर करने की भरपूर गुन्जाईस है. बहरहाल बहुत बहुत बधाई आपको आ मनन कुमार सिंह जी
बहुत बहुत आभार आदरणीय।
सास बहू के वार्तालाप के माध्यम से आज के राजनीतिक माहौल पर करारा तंज कसा है आपने बहुत बहुत बधाई आद० मनन जी
आभारी हूँ आदरणीया।
सुंदर रचना. कथा अपनी बात कहने में सक्षम है मनन कुमार सिंह जी फिर भी मेरे विचार से अभी रचना समय मांग रही है, बरहाल प्रदत्त विषय से न्याय करती इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें.
बहुत बहुत आभार आदरणीय।
धोखा
- "हमें दो ही तरह के लोग याद रहते हैं .......एक वे जिन्होंने किसी भी कारण से हमारे साथ कभी कोई धोखा नहीं किया और दूसरे वे जिन्होंने अकारण न जाने क्यों हमें धोखा दिया . "
" कैसी बातें कर रही हो ? लगता है किसी की किसी बात से परेशान हो ."
" नहीं ऐसा तो कुछ नहीं है .बस एक ख्याल आया तो कहे बिना रह नहीं पायी . "
" वही तो पूछ रहा हुँ कि ख्याल धोखा देने वाले का आया या न देने वाले का आया ."
" इस वक्त यह सब रहने दो . बस इतना ही कहूँगी कि कष्ट कारी दोनों ही होते हैं ."
" वह कैसे . धोखा देने वाले की बात तो समझ में आती है पर न देने वाले कैसे कष्टकारी हो गए ?"
" उन पर तरस आता है कि इस फरेबी दुनिया में वे इतने भोले क्यों हैं . उनके विशवास को जब कोई ठगेगा तो उन्हें कितना बुरा लगेगा . वे उस तकलीफ से कैसे उबरेंगे ? "
उसकी इच्छा हुई कि उससे कुछ और पूछे पर उसकी हिम्मत नहीं हुई . उसे पता था कि कुछ और कहा तो वह रो देगी . वह असमंजस से बाहर आता कि उससे पहले ही वह अपनी जगह से उठी . उसके करीब आयी और उसमें लगभग सिमटते हुए बोली ,
-" देखो मेरे साथ कुछ भी करना पर कभी मुझे धोखा मत देना . मैं सहन नहीं कर पाऊंगीं ."
( मौलिक एवं अप्रकाशित )
आदाब। ''तरस" वाले संवाद और अंतिम संवाद में कहे-अनकहे का ताना-बाना समझ में आया मुझे। विषयांतर्गत उम्दा बढ़िया रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा साहिब। शीर्षक से व शुरू के संवादों से लघुकथा स्वत: समझ में आ जाती है। शीर्षक कुछ और भी हो सकता है अंत तक जिज्ञासा बनाये रखने के लिए मेरे विचार से। पहली दो पंक्तियों का भाव किसी संवाद में लेकर थोड़े से बदलाव से लघुकथा यहां से भी आरंभ की जा सकती है : // "लगता है किसी की किसी बात से परेशान हो!"//
विषयानुकूल बेहतरीन लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय सुरेंद्र अरोड़ा जी ।
बढ़िया रचना लिखी है आपने प्रदत्त विषय पर, बधाई आपको आ सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा जी
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