लघुकथा ........................हैरत ( "मौलिक व अप्रकाशित" )
रात गहरा गयी थी . पर नींद की गहराई ललुआ से कोसों दूर थी और वह करवटें बदलने को मजबूर था .
यूँ तो रात कल भी गहराई थी पर कल नींद को थकी हुई मांसपेशियों ने जकड़ लिया था .देहात से आये हुए लालू ने , जो शहर में आने के बाद अब लाला के नाम से जाना जाता है ने कल दिन भर काम करवाने के बाद कहा था कि मजदूरी के पैसे कल देगा .
आज फिर उसने कल कि तरह मलबा साफ़ करवाया पर जब मजदूरी देने की बारी आयी तो फिर दगा दे गया . बोला , " बैंक गया था पर पैसे नहीं निकाल पाया ."
ललुआ ने पुछा , " क्यों ? " तो बोला , " बैंक - बाबू का बच्चा , बाबू नहीं , हरामी का पिल्ला है . कहता है कि हमारे दस्तखत बराबर नहीं हैं ."
ललुआ बोला , " दस्तखत बराबर नहीं हैं , इसका क्या मतलब ? "
" मतलब तो उस हराम की जात को पता होंगे . कह रहा था दस्तखत मेल नहीं खाते . "
" लाला जी , अब हमारी मजदूरी का क्या होगा ? " उसने गुहार लगाई .
" होना क्या है , घबराओ मत जिस दिन दस्तखत मेल खा जायेंगे , उस दिन तुम्हारी मजदूरी खरी . अरे भाई तुमने ईमानदारी से काम किया है ,कोई हरामखोरी थोड़े की है . " लाला ने कहा .
भूख कल भी थी पर एक आस थी कि कल भूख नहीं होगी , सो नींद आ गयी. भूख आज फिर है , भूख कल नहीं होगी , इसका कोई ठिकाना नहीं है . इसलिए नींद आँखों से कोसों दूर है .
अब हालत यह हो गयी कि वो रतजगे की हालत में है . सोच रहा है कि क्या करे ? या तो भरे पेट वाले लाला को मार डाले या फिर खुद भूखा मर जाये !
दरवाजे पर जोर की टक्कर के कारण उठ बैठा है . अँधेरे में लाला की कांपती आवाज ने उसे डरा दिया , " ओ ललुआ . लें अपनी दस दिन की पगार . कल काम पर आना मत भूलियो . पगार बरोबर है , अच्छी तरह से गिन लें . "
इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता , लाला जा चुका है .बड़े नोटों का एक बण्डल उसकी गोद में टिम - टीमाने लगा . उस टिम - टिमटिमाहट के कारण उससे सोते नहीं बना तो वह बाहर निकल आया . उसने पाया कि वहां उसकी बस्ती के लोग टी.वी के सामने झुण्ड बना कर हैरत से बैठे थे .
सुरेंद्र कुमार अरोड़ा
प्रेमी बोला , ' आओ प्यार की कुछ बातें करें .'
' हाँ यह हुई न बात . चलो करो .' प्रेमिका ने सहमति से सिर हिलाया .
' तो फिर रूठो .' प्रेमी ने कहा
" बात तो प्यार की हुई है , रूठने को क्यों कहा . " प्रेमिका इठलाई .
" रूठोगी नहीं तो तो प्यार की बातें करके तुम्हें मनाऊंगा कैसे . " प्रेमी ने समस्या रखी .
' पर रूठना तो तो मुझे आता नहीं है .' प्रेमिका इतराई
" तुम दूसरी तरफ मुँह करके बैठ जाओ . मैं जब बुलाऊँ तो मेरी तरफ देखना मत . "
" ये क्या बात…
ContinuePosted on December 10, 2018 at 8:30pm — 3 Comments
तो कुछ बात बने
अंधेरों की नहीं ,जीवन में उजाले की कोई बात करो तो कुछ बात बने
निकला हैं दिन अभी,सूरज की किरणों की कोई बात करो तो कुछ बात बने .
क्यूँ बात करते हों उन पतझड़ों की,नव कोपलों की कोई बात करो तो कुछ बात बने
न बातें करो उदास रतजगों की ,प्यार भरी बंसी की कोई बात करो तो कुछ बात बने
सूखी हुई धरा पर बरसा हैं बरखा का जल अभी ,बरस जाए ये भरपूर तो कुछ बात बने
मेहरबां हुई हैं तुम्हारी नजर एक मुद्द्त के बाद , ठहर…
ContinuePosted on September 23, 2015 at 11:00pm — 1 Comment
अन्य दिनों की अपेक्षा , सुमेर के चेहरे पर तनाव की जगह संतोष झलक रहा था . उनके मन में पत्नी के प्रति क्रतज्ञता के भाव बार - बार उभर कर , शब्दों के माध्यम से निकलना चाहते थे . " बहुत बार तुम जटिल सिचुऐशन को भी बड़े अच्छे से टेकल कर लेती हो . मुझे जरा भी उम्मीद नहीं थी कि इस मामले में इतनी आसानी से सफलता मिल जाएगी .वरना भागीरथ - बाबू ने तो डरा ही दिया था .” खाने की थाली में चपाती की मांग के साथ उसने पत्नी की तारीफ़ की .
" लो यह क्या बात हुई , जी ! हम उस पुलिसीए को कुछ दे ही रहे…
ContinuePosted on September 4, 2015 at 9:00pm — 5 Comments
" बाबू जी ! कबाड़ी वाले को क्यों बुलाया था ? "
" बस , यूँ ही . बेटा ."
" यूँ ही क्यों बाबू जी ! आप तो उससे कह रहे थे कि इस घर का सबसे बड़े कबाड़ आप हैं और वह आपको ही ले जाये ."
" इसमें झूठ क्या है ? इस घर में मेरी हस्ती कबाड़ से ज्यादा है क्या ? "
" बाबू जी , प्लीज़ आप ऐसा न कहिये . क्या मैं या इंदु आपका ख्याल नहीं रखते ? "
" दिन भर कबाड़ की तरह घर के इस या उस कोने में पड़ा रहता हूँ और वक्त - बेवक्त तोड़ने के लिए दो रोटियाँ मिल जाती हैं , तुम दोनों ने मेरे…
ContinuePosted on August 16, 2015 at 9:30am — 5 Comments
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