" बाबू जी ! कबाड़ी वाले को क्यों बुलाया था ? "
" बस , यूँ ही . बेटा ."
" यूँ ही क्यों बाबू जी ! आप तो उससे कह रहे थे कि इस घर का सबसे बड़े कबाड़ आप हैं और वह आपको ही ले जाये ."
" इसमें झूठ क्या है ? इस घर में मेरी हस्ती कबाड़ से ज्यादा है क्या ? "
" बाबू जी , प्लीज़ आप ऐसा न कहिये . क्या मैं या इंदु आपका ख्याल नहीं रखते ? "
" दिन भर कबाड़ की तरह घर के इस या उस कोने में पड़ा रहता हूँ और वक्त - बेवक्त तोड़ने के लिए दो रोटियाँ मिल जाती हैं , तुम दोनों ने मेरे लिए ऐसी दिनचर्या फिक्स कर दी है जो एक कैदी की होती है . क्या इसी को ख्याल रखना कहते हैं ? "
" बाबू जी ! मैं हाथ जोड़कर कह रहा हूँ कि आप न ऐसा सोचिये और न ही ऐसा कहिये ."
" जो सच है , वही तो कहूँगा न . हाथ जोड़ कर मेरी भावनाओं का मजाक मत बनाओ ."
" बाबू जी ! आप ही तो कहा करते थे कि तेरी माँ ने आपकी कम सेलेरी के कारण तंग हालत में बड़ी मुश्किल से गृहस्ती की गाड़ी को सिरे चढ़ाया है , आज परिस्थितियाँ और भी विकट हैं , जब तक पति - पत्नी दोनों न कमाएँ , बदले हुए जमाने की अच्छी शिक्छा बच्चों को नहीं दी जा सकती और आपकी सद- इच्छा के अनुरूप ही नौकरी करने वाली लड़की से मेरा विवाह हुआ है ."
" तू कहना क्या चाहता है ? "
" बाबू जी , मुझे गलत मत समझिये . आफिस में दिनभर खटकर आने से हम थक सकते हैं तो क्या इंदु को थकान नहीं हो जाती होगी दिन भर आफिस में बिताकर ? "
"जो कहना चाहता है खुलकर कह .भूमिका मत बाँध l मैंने कोई शिकायत की है क्या , जो मेरी क्लास लेने लग पड़ा . "
" बाबू जी , इससे बड़ी शिकायत क्या होगी कि आप अपने बच्चों के होते हुए भी स्व्यम को कबाड़ कहें ......... आज के जमाने की नौकरियाँ , आपके जमाने की नौकरिओं से अलग हैं , अब कई बार आठ की बजाए दस या बारह घंटे भी नौकरी को देने पड़ते हैं ."
" यह कहना चाहता कि मैं स्वार्थी हूँ और सिर्फ अपने बारे में सोचता हूँ ."
" प्लीज बाबू जी , अपने बच्चों की मजबूरी को आपके समर्थन की जरूरत है , स्व्यम को उपेक्षित समझकर बच्चों को अपमानित मत कीजिए ."
" केसा समर्थन और कैसी मजबूरी ? "
" कुछ नहीं बाबू जी , बस इतना ही कि आपके अस्तित्व के लेम्प - पोस्ट के नीचे बैठ कर मैंने जिंदगी का अक्षर - ज्ञान पाया है , आपकी अंगुली को न पकड़ा होता तो मेरे कदमों को चलने का सहुर न आता . आपके कारण ही तो मेरा नाम पुकारा जाता है . आप मेरे लिए या इंदु के लिए कबाड़ नहीं हो सकते ."
" बेटा , तुम्हारी माँ ने जाते वक्त मुझसे कहा था कि बच्चों के बीच रह कर कभी रोना मत , क्या तू आज मुझे रूलाना चाहता है , अरे पगले कबाड़ी के सामने खुद को कबाड़ी कहना , वह आखरी पाठ था जो मैंने तुझे पढ़ा दिया है . इसमें कोई शक नहीं कि एक ही छत के नीचे रहने वाले घर के हम सभी सदस्य , अपने अंतर - मन में एक - दुसरे के प्रति बेहद लगाव रखते हुए भी अपनी - अपनी व्यस्तता या अहंभाव के कारण व्यक्त नहीं करते . इस कारण सबके मनों में उपेक्षा और अलगाव का भाव घर करने लगता है , जो बहुत बार घर टूटने का कारण भी बन जाता है . हमें अपने अन्दर घर बनाये अपनत्व को कभी - कभी शब्द भी देने चाहिए , अपनत्व भरे शब्द संबंधों की दुनिया को सरस बनाते हैं और संबंधों की डोर हमेशा मजबूत बनी रहती है ."
" आपने ठीक कहा , बाबू जी . आज रोज - मर्रा के सभी कामों कि छुट्टी . आज हम सब शहर की सबसे बड़ी झील के किनारे पिकनिक पर चलेंगे और वहीं के किसी ढाबे पर खाना खायेंगे . इतना ही नहीं मैं और इंदु दोनों ही एक सप्ताह की छुट्टी लेकर सारा दिन आपके संग घर में बिताएंगे ."
" नहीं बेटा , अकारण काम से छुट्टी नहीं करते . तुम्हें तो पता है की में बहुत मजबूरी में ही आफिस से छुट्टी लिया करता था . हाँ , आज झील - किनारे जरुर चलेंगे ."
.
( मौलिक एवं अप्रकाशित )
सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
Comment
सभी मित्रों का इस आशीर्वाद एवं समर्थन के लिए धन्यवाद : सुरेन्द्र अरोड़ा
सुन्दर प्रेरणायुक्त कथा! आदरणीय अरोड़ा जी! आज संवाद की ही कमी हो गयी है परिवार के सदस्यों के बीच!
बहुत अच्छी एक सकारात्मक सुखद अंत की कथा पढने को मिली ऐसे ही लेखन की आवश्यकता है आज ताकि सार्थक सन्देश पँहुचे आज के युवा को प्रेरणा मिले|बाकी बातें मिथिलेश भैया ने कह दी |हार्दिक बधाई आपको .
आ0 भाई सुरेंद्र जी, बहुत ही सारगर्भित कथा कही है । कोटि कोटि बधाई ।
आदरणीय सुरेन्द्र जी, आज के संयुक्त परिवार की समस्या को बहुत ही बढ़िया ढंग से शाब्दिक किया है. थोड़ी सी कसावट और वर्तनी दोष निवारण इस रचना की की अपेक्षा है. आपको इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई
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