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उन्हें सुनने का सलीका, न समझने का हुनर,
छोड़ो, क्या उनको कोई बात बताई जाये।
shandar
जुर्म आयद ही नहीं मुफ़्त सज़ायें कब तक,
के ज़मानत, मज़लूम की मंज़ूर कराई जाये।
admin साहब से गुज़ारिश है, अगर हो सके तो, मेरी इस ग़ज़ल में यह शे‘र भी जोड़ दिया जाये।
वाऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽह - वाऽऽह..!! बहुत खूब.
//उन्हें सुनने का सलीका, न समझने का हुनर,
छोड़ो, क्या उनको कोई बात बताई जाये।//
इस अशआर ने मोह लिया है .. इन असरदार पंक्तियों पर दिली-दाद कुबूल करें.
//एक उफ नहीं मेरी कभी दुनिया ने सुनी,
सदाये दिल, क्यों सरे बाज़ार सुनाई जाये।//
कहना ही क्या इस गुमान का. आदाब.
इस दफ़े आपने जो कुछ परोसा है इमरान भाई, उसका रंग, उसकी गंध, उसका स्वाद सबकुछ बेहतर है. इस अंदाज़ पर आपको मेरी अनेकानेक शुभकामनाएँ.
उन्हें सुनने का सलीका, न समझने का हुनर,
छोड़ो, क्या उनको कोई बात बताई जाये।
आय हाय , इमरान मियाँ , क्या बात कही है, बहुत ही खुबसूरत और कहन से भरपूर शे'र , खुबसूरत ग़ज़ल हेतु बधाई स्वीकार करे |
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