१२२ १२२ १२२ १२२
रटौले रटल बा नियम का ह, मत का ?
बुझाइल कबो ना सही का, गलत का !
सियासत के सोझगर गनितओ बुझाई
गुना-भाग छोड़ीं, बताईं जुगत का ?
गुनत जा रहल बा, पटाइल उपासे-
कमाई जे हासिल, त आखिर बचत का ?
धुआँ बा, कुहा बा, रुखाइल घर-आङन
सुखाइल इनारा त ढेंकुल, जगत का ?
चकाचौंध देखी, लहालोट होखी..
मताइल अगर ना.. भला ऊ भगत का ?
करब गाल रउआ, हँसब देइ ताली [ गाल - बेईमानी
जबाबी मिली तब पुछाई सखत का !
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सौरभ
(मौलिक आ अप्रकाशित)
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अनन्य भाई पंकज कुमार मिश्रा जी, आपकी उत्साहवर्द्धक टिप्पणी पर समयानुसार धन्यवाद ज्ञापित न कर पाया इसका मुझे हार्दिक खेद है. मैं इधर न केवल दौरे पर था, बल्कि, वित्तीय वर्ष के समापन माह होने कारण अत्यंत व्यस्त भी हूँ.
लेकिन, भाई आपकी दृष्टि इस रचना पर पडी, यही इस रचना का सौभाग्य है.
हार्दिक धन्यवाद
आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन । भाषा के लिहाज से गजल को समझने में थोड़ी सी दिक्कत तो हुई पर मन प्रफुल्लित हो गया । इस स्थानीय भाषा की बेहतरीन गजल के लिए ढेरों बधाइयाँ ।
आदरणीय लक्ष्मण भाई जी, यह आपकी सदाशयता ही नहीं, आपके साहित्यानुराग का ज्वाज्वल्यमान उदाहरण है कि भोजपुरी भाषी न होते हुए भी आपने रचना पर न केवल उचित समय दिया, बल्कि उदारमना बधाई भी दी. मैं आपके उत्साहवर्द्धन पर हृदयतल से आभारी हूँ.
सादर
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