आदरणीय साथिओ,
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बढ़िया रचना है लेकिन विषय को ठीक से परिभाषित करती प्रतीत नहीं हो रही है. बहरहाल शुकमनाएँ इस रचना के लिए आ टी आर शुकुल जी
विनम्र आभार , आदरणीय विनय कुमार जी , यह दर्शाने का प्रयत्न किया गया है कि मजदूर लोग अपने जीवन में बड़े और छोटे सैकड़ों मकान बनाते हैं पर अपनी सीमाओं के बारे में जागृत रहते हैं परन्तु मकान बनवाने वाले, मेरा भवन , मेरा महल, कहते कहते सीमाएं लाँघते हैं और अंत में उनमें चमगीदड़ों का ही निवास देखा जाता है। सादर।
अहम् संतुष्ठी बड़ी चीज़ होती है. बधाई इस भाव के लिए.
कथा के आंतरिक भाव परखने के लिए विनम्र आभार , आदरणीय ओमप्रकाश जी
बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीय सकुल सरजी ।
आहिस्ता-आहिस्ता उसका खौफ बढ़ता जा रहा था। दिल तेज़ी से किसी मशीन की तरह धड़क रहा था। हाथ-पैर काँप रहे थे। बहुत जल्द ही एक मज़बूत चार दीवारी के अंदर क़ैद हो जाना चाहता था। उसने फ़ौरन अपने कमरे का रुख किया और दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया। अब वैसे तो वह सुरक्षित था लेकिन अभी भी उसके अन्दर का ज्वालामुखी शान्त नहीं था। दरवाज़े के बाहर का मंज़र विवेक की आँखों से दिखाई दे रहा था। वह अपनी आँखें बंद कर बिस्तर पर लेट जाना चाहता था।
लेकिन ये क्या?
आँखें बंद करने के बाद तो नवीन के अन्दर जल रही ज्वालामुखी की पीले रंग वाली लपटें लाल- सुर्ख़ हो चुकीं थीं। कानों के चारों ओर एक भयानक सा शोर सुनाई दे रहा था। आग की तपिश उसके चेहरे पर भी पड़ने लगी थी। दिल का तेज़ी से धड़कना जारी था। ये एक अजीब तरह की जागृति थी या एक खौफ उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था।
उसका दिमाग़ ख़ामोशी से यह नज़ारा देख रहा था। एक शून्य अवस्था थी। जैसे इसको पता था ये ज्वालामुखी की लपटें, ये चारों तरफ शोर की आवाज़ें पहले भी उठती रहीं हैं। आदिकाल से अन्नतकाल तक यही सब होता रहा है। नफरत की आग की लपटें इसी तरह उठती हैं। इनमें कुछ भी नया नहीं है।
लेकिन नवीन को तो पूरा विश्वास था पल भर में यहाँ सब कुछ जलकर खाक हो जाएगा। ये शोर करती आवाज़ें कानों के पर्दों को फाड़ने के लिए काफी हैं। क़दम इस संसार से बहुत तेज़ी से भागना चाहते हैं। एक ऐसी दुनियाँ में जहाँ शान्ति हो शोर शराबे से कोसों दूऱ। लेकिन उठ ही नहीं पाते।
जनाब MUZAFFAR IQBAL SIDDIQUI साहब बहुत बहुत मुबामुबारक अच्छी पेशकश के लिये आदाब
आदाब। //दिमाग़ जो लुप्त अवस्था में पड़ा था अचानक सक्रिय हो जाता है। पानी की तलाश शुरू कर देता है। कहता है, पहले इस अन्दर की ज्वालामुखी की लपटों को बुझाना पड़ेगा तभी बाहर का शोर भी शान्त होगा।//... इन बेहतरीन पंक्तियों के साथ क्लाइमेक्स पर पहुंचती बढ़िया सांकेतिक रचना हेतु बहुत-बहुत मुबारकबाद जनाब मुज़फ़्फ़़र इक़बाल सिद्दीक़ी साहिब। हालांकि विस्तार कहानीनुमा हो गया है, लेकिन विषयांतर्गत बढ़िया है। पात्र नाम शायद बाद में बदला है, तो पहले अनुच्छेद में एक जगह ''नवीन" के बजाय "विवेक" शब्द रह गया है। (या यह कोई दूसरा पात्र है; कृपया बताइयेगा।) लघुकथा संदर्भ में कुछ पंक्तियां कम की जा सकती हैं मेरे विचार से। सादर।
//अंतरद्वंद = अंतर्द्वंद्व// या अंतर्द्वंद ?
//दिमाग़ जो लुप्त (सुप्त) अवस्था //
आत्मकथा की बहुत ही सुंदर और शानदार अभिव्यक्ति हुई हैं।
जनाब मुज़फ़्फ़र इक़बाल साहिब आदाब,प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा लिखी आपने,बधाई स्वीकार करें ।
बढ़िया प्रतीकात्मक रचना लिखी है आपने प्रदत विषय पर, बहुत बहुत बधाई आ मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीकी साहब
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