आदरणीय साथिओ,
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अपने ही जाल में फंसी मां की उलझन की सुंदर कथा। हार्दिक बधाई आदरणीय ।
कथा के एक महत्वपूर्ण बिंदु को आपने बखूबी पकड़ा हैं , हार्दिक धन्यवाद आ. ओमप्रकाश क्षत्रिय जी
मुहतरमा अर्चना त्रिपाठी जी आदाब,प्रदत्त विषय को सार्थक करती बहतरीन लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक धन्यवाद आ. समीर कबीर जी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए।
बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीया अर्चना दी।
हार्दिक धन्यवाद आ. बबिता जी
बहुत सुंदर कथ्य अर्चना जी।
विषय प्रदत्त रचना और वैवाहिक सम्बन्धों पर दृष्टि डालती रचना के लिये बधाई स्वीकार करे आदरणीया।
शुक्रिया वीर जी , अमूल्य समय निकालने और प्रेरणादायक प्रतिक्रिया देने के लिए
#मंजिल
नहीं आज नहीं।" कहता हुआ वह आगे बढ़ गया।" 'बार' के बाहर खड़ा गार्ड भी हैरान था, सातों दिन पीने वाला शख्स आज बिना पिये आगे निकल गया!
वह आगे बढ़ रहा था लेकिन उसके दिमाग में बेटी की बात घूम रही थी। "पापा, आज आप ड्रिंक नहीं करेंगें और चर्च में हमारे लिए 'प्रेयर' भी करेंगें।"
आखिर वह उस दोराहे पर आ खड़ा हुआ, जिधर से एक रास्ता उस रैन-बसेरे की ओर से जाता था, जहां के गंदे-अधनंगे बच्चों के कुछ मांगने के लिए पीछे पड़ जाने की आदत के चलते, वह उधर जाने से कतराता था। और दूसरा रास्ता उस सर्वशक्तिमान के दरवाजे पर जाता था जिस ओर जाना उसने महीनों पहले बंद कर दिया था, क्योंकि ठीक एक वर्ष पहले उसके हाथों हुई दुर्घटना में अपने परिवार को खोने का जिम्मेदार वह इस सर्वशक्तिमान को ही मानता था।
'क्या करे और क्या न करे' की स्थिति में वह कुछ देर सोचता रहा और फिर एक ठंडी सांस लेकर बुदबुदाते हुए रैन बसेरे की ओर चल पड़ा। "नहीं बिटिया नहीं! मैं जीवन भर भटकता रहूँगा इन्हीं गलियों में, लेकिन अब 'उधर' कभी नहीं जाऊँगा।". . .
"अरे बाबू, कछु खाने को दे ना।" जिस बात से वह डर रहा था, वही हुआ। रैन बसेरे के ठीक सामने शोर मचाते बच्चों में से कुछ बच्चों के साथ वह बच्ची भी उसकी टाँगों से आ चिपकी।
"अरे चलो, दूर हटो।" सहज प्रतिक्रियावश उसने बच्चों को दूर धकेल दिया और तेज कदमों से वहां से निकलना चाहा, लेकिन नीचे गिरे बच्चों में से बच्ची के रोने की आवाज से उसके पाँव अनायास ही थम गए।
"कहीं लगी तो नहीं? बोल न, क्या खाएगी बिटिया?" वह ख़ुद भी नहीं जानता था कि आज ऐसा क्यों हुआ लेकिन कुछ क्षणों में ही वह उस बच्ची के साथ और बच्चों को भी ब्रेड लेकर बांट रहा था।
रोने वाला बच्ची अब मुस्करा रही थी और वह उसे एक टक देख रहा था। महीनों के बाद उसने आज 'नैंसी' को हँसते देखा था। "नैंसी मेरी नैंसी! वह बुदबुदाया।
"क्या देख रहे हो पापा? आज मैं बहुत खुश हूं, आज आपने मेरी दोनों बातें मान ली।"
"पापा !... दोनों बातें।" वह सोते से जाग गया जैसे। "हाँ, मान ही तो ली मैंने दोनों बातें! ये ब्रेड खाते बच्चे भी तो नन्हें-नन्हें 'ईसा' ही हैं और ये बच्ची मेरी नैंसी. . . , सुनो बेटी।" उसने जाती हुई बच्ची को पुकारा।
"आज तुमने अपनी ही दुनियाँ में भटकते मुसाफ़िर को उसकी मंजिल का पता दे दिया है। थैंक्यू... नैंसी, थैंक्यू।"
बच्ची कुछ नहीं समझी थी पर वह मुस्कराता हुआ आगे बढ़ चला था।
(मौलिक व अप्रसारित)
बहुत ही भावपूर्ण और सुंदर रचना। हार्दिक बधाई आदरणीय वीर मेहता जी।
प्रोत्साहन देते आपके सुंदर शब्दों के लिए दिल से आभार भाई ओम प्रकाश जी।
हार्दिक बधाई आदरणीय वीर मेहता जी।बेहतरीन लघुकथा।
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