आदरणीय साथिओ,
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मुसाफिर
दोपहर के समय वृद्धाश्रम में सभी महिलाएं कुनकुनी धूप का आनंद ले रही थी।कोई अखबार, किताब पढकर अपना समय व्यतीत कर रहा था ,तो कोई दूरदर्शन देख या रेडियो पर महिला जगत कार्यक्रम सुनकर अपने सुखद दिनों को स्मरण कर आनन्दित हो रहा था। तभी किसी स्त्रोता की फर्माईश पर गाना बजने लगा,मुसाफिर हूँ यारों, ना घर हैं ना ठिकाना हैं, बस ....चलते....जाना.....जिसे सुनकर सुमन की ऑखें भर आई।गाने का मुसाफिर शब्द सुन वो बीते दिनों में चली गई।तीन बहिन भाईयो में सबसे छोटी थी,पर भाई से लङाई-झगङा होने पर दादी की डांट का शिकार वो ही होती।विरोध करती तो लङकी होने की समझाईश दे कर शांत कर दिया जाता कि क्यों भाई से पंगा लेती हैं, कुछ दिनों बाद ससुराल चली जायेगी तो क्या वहा भी ऐसे ही झगङेगी। 'मैं कभी ससुराल ही नहीं जाऊगी,'तुनककर कहती। 'बेटी तो मुसाफिर की तरह होती हैं, जन्म कही लेती हैं, तो अर्थी कही उठती।' तब दादी की बात मुझे समझ नही आती।मायके छूटा,तो ससुराल को घर समझा।नाती पोते वाली हो गई ।सब ठीक चल रहा था।जब कभी दादी की बात याद आती तो सोचती,दादी गलत कहती थी।पर पति के स्वर्गवासी होने के कुछ ही दिनों बाद दोनों बहुओं-बेटों में मेरी जिम्मेदारी उठाने को लेकर बहस आए दिन होती,कभी इसके घर तो कभी उसके घर दिन काटतीऔर एक दिन दोनों ने मेरी सुरक्षित देखरेख को लेकर निर्णय ले लिया और मुझे....- ऑखों से अश्रुधारा बहते देख पास बैठी हमदर्द सखी के पूछने पर ऑसू पोछते हुये बस यही कहा कि दादी सही कहती थी। मौलिक व अप्रकाशित
मुसाफिर को सही ढंग से परिभाषित करती बढ़िया रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय बबिता गुप्ता जी ।
हार्दिक आभार ।
सुंदर अभिव्यक्ति बबिता जी, //बेटी तो मुसाफिर की तरह होती है// बहुत खूब, रचना में वाक्यों के बीच स्पेस की कमी और कुछ शब्दों स्त्रौता (श्रोता) एवम अधिकांश जगह पर 'ड" अक्षर की जगह "ङ" का आना, ये बाते असहज करती है. बरहाल रचना के कथ्य के लिए बधाई देना बनता है.
हार्दिक आभार ।
आदाब। सुस्वागतम। विषयांतर्गत बढ़िया रचना। गंभीर संदेश सम्प्रेषित। हार्दिक बधाई आदरणीया बबीता गुप्ता जी। विगत 11 जून को मैंने भी इस गोष्ठी हेतु एक रचना लिखी थी संयोग से गाना वही था!
हार्दिक आभार ।
मुहतरमा बबीता गुप्ता जी आदाब,प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा लिखी आपने,बधाई स्वीकार करें ।
जनाब वीरेन्द्र वीर मेहता जी की बातों का संज्ञान लें ।
हार्दिक आभार ।
यकीनन बबिता जी आज भी इस सोच वाले हमारे मध्य अपना अस्तित्व कायम किये हुए हैं।मर्मस्पर्शी कथा के लिए हार्दिक बधाई
हार्दिक बधाई आदरणीय बबिता जी।बेहतरीन लघुकथा।
हार्दिक आभार ।
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