आदरणीय साथिओ,
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आदाब। आपकी यह उम्दा. रचना हमें यह बाख़ूबी सिखा रही है कि आंकड़ों पर.आधारित लघुकथा सृजन भी आपक आपके जैसी बढ़िया लेखनी कर सकती है। हार्दिक आभार एक नये तरह के कथानक और तथ्य सुझाने के लिए। संवादों और कथोपकथन के कुशल संयोजन से कुशन से तथ्य को बेहतर संवारा जा सकता है। यहाँ बढ़िया प्रयास भी हुआ है। थोड़ा और समय देकर विवरण को कथनोपकथन में इंवर्टेड कौमाज़ में प्रवाहमय संवादों में पिरोकर इसे दूसरे ड्राफ्ट में आप संवार ही लेंगे। हार्दिक बधाई आदरणीय मोहन बेगोवाल साहिब। शीर्षक पर भी पुनर्विचार किया जा सकता है। सुझाव : / औरत : दर-ब-दर // .. //आंकड़ों पर जनानी (औरत)// ...
प्यास(विषय-स्त्री)
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बूँद बड़बड़ाई,"मैं हूँ तो जिंदगी है...नहीं तो..।धरती मौन रही।
सूखे होठों को तर करने की कोशिश की,पर नाकामी हाथ आई। हवाओं के थपेड़ों से उतरी बूँद धूल में विलीन हो चुकी थी।धूल उड़ती रही। प्यासी-पथराई आँखें आसमान की तरफ टिकी हुई थीं। जाने कब वह पिघले,और जहाँ में नमी बहाल हो।जिंदगी पनपे।पर आसमान अपने ऊँचा होने के गुमान में घटाओं को लिए फिरता रहा।बरसे क्यूँ? धूल में तपती उस बूँद की कराह से धरती की तंद्रा भंग हुई।अपनी तपन बिसराकर उसने बड़बड़ाती-कराहती उस बूँद को टेरा,"क्या हुआ?कौन हो तुम?"
"बूँद हूँ मैं।पानी की एक बूँद।"
"औरों की प्यास बुझानेवाली।है न?"
"जी,पर अभी खुद प्यासी हूँ।"
"क्यों?"
"मैं धूल में विलीन हो चुकी हूँ।"
"धूल तो मिट्टी होती है,बूँद की प्यासी।प्यास बुझाओ,खुशियाँ फैलाओ।और क्या?"
"मैं वही नहीं कर सकी।गुमानवश मैं धूल को बहाने चली थी।खुद मिट गई।"
"मिटता कुछ नहीं, रानी।महज रूप बदलता है।
"मतलब?"
"यानि हर चीज की अपनी शक्ति होती है।शक्ति, मतलब ऊर्जा।सूर्य,जल सभी अपनी-अपनी ऊर्जा से बरक़रार हैं।परस्पर के आकर्षण से ब्रह्मांड का हर पिंड एक-दूसरे से जुड़ा है।एक की ऊर्जा दूसरे में समाहित होती रहती है।परिवर्तित होती रहती है।
".....अच्छा....!"
"सृष्टि-क्रम इसी तरह चलता है।वस्तुतः,इसे ही लेन-देन कहा जाता है।"
"आज मुझे नई बातें सुनने को मिलीं।दिल को छू गईं आपकी कहनी, देवी।
"देवी नहीं,धरती कहो,बस।मैं बूँदों को समेटकर नमी रखती हूँ।समय पर उसे प्यासे लोगों पर निछावर करती हूँ।बालिका हो तुम अभी।मैं स्त्री हूँ।धरती हूँ।सृष्टि को धारण करती हूँ।।"
"ओह!मैं अब तक भ्रम में जीती थी।खुद को ही श्रेष्ठ मानकर जीती रही।"
"कोई बात नहीं।जब समझ आये,अच्छा है।"
आर्त चीत्कार सुन प्यासी धरती में दरारें आने लगीं।उसका संचित नेह-जल फव्वारों के रूप में आसमान की तरफ उड़ने लगा।आसमान लज्जित हो पिघलने लगा।बूँदें धरती के गह्वरों में समाहित होने लगीं।
सँजोये गए बीज भींग गए।फिर अंकुर फूटे।उषा की रश्मियाँ उनका अभिनन्दन करने लगीं।
"मौलिक व अप्रकाशित"
वाह आदरणीय Manan Kumar singh जी बहुत बढ़िया बुनाई अल्फाज़ के धागों की बधाई सादर ।
शुक्रिया आदरणीय आसिफ जी।
आदाब। सच ही है। नारी को जगत-जननी और धरा कहा गया है। इस बिम्ब को लेकर बूंद और बीज के प्रतीकों के साथ कथनोपकथन सहित नारी के नैसर्गिक गुणों को उभारती बढ़िया रचना। हार्दिक बधाई जनाब मनन कुमार सिंह साहिब। नवीन रचना ज़ल्दी पेश करने के चक्कर में टंकण संबंधित सम्पादन भलीभांति न किया जा सका। रचना भी और अधिक समय माँग रही है। ऐसा लगा।
आभार आदरणीय,उस्मानी जी। वस्तुतः, पुनरीक्षण का कार्य नहीं हो सका है।
हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार जी।बेहतरीन लघुकथा।
आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय तेजवीर भाई जी।
धरती को स्त्री के प्रतीक मे रखकर प्रभावशाली कथा का सृजन हार्दिक बधाई आदरणीय मनन जी
आपका आभार आदरणीया प्रतिभाजी। यह लघुकथा आपकी प्रेरणा का परिणाम कही जाएगी।आपने इंगित किया और रचना धरातल पर आ गयी।
स्त्री-साहस का प्रतीक
अपनी अफसरी की आङ में विवेक अपनी विनम्र व सहनशील पत्नी,सुलक्षणा पर अत्याचार कर खरीखोटी सुनाता।दोष सिर्फ,इतना कि वो कम पढीलिखी थी।
विवेक की माँ,बेटे के खिलाफ कुछ बोलती तो उल्टा चढ बैठता, क्योंकि वो अपने कुसंस्कारित पिता को ही देख बङा हुआ था।
लेकिन आज वो हद की सब सीमाएं लांघ गया था।आज तो उसके चरित्र पर लांछन लगाया। उसकी कुत्सित मानसिकता ने बेटे पर,हाथ में जो आया,उससे प्रहार कर,दुर्गा सी दहाङने लगी।चुप्पी,जो उसकी शालीनता और गरिमामय व्यक्तित्व की झूठी शान थी क्योकि बहू के प्रति कुकृत्य को देख मन चीत्कार करता था,सांसे घुटती थी।पर आज पीङित बहू को न्याय दिलाने के प्रति उसकी आत्मा उद्वेलित हो उठी और अपने पति और बेटे को धकेलते हुये बहू का हाथ पकङ पुलिस थाने की और चल पङी।अपने आप से कहे जा रही थी,हम महिलाएं सहती ही नही हैं बल्कि सोचती भी हैं।
मौलिक व अप्रकाशित
आदरणीया babitagupta जी बहुत बहुत बधाई आपकी साहस व सब्रो सितम साहस भरी लघुकथा के लिए फिर मुबारकबाद ।
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