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न जाने किधर जा रही ये डगर है ।
सुना है मुहब्बत का लम्बा सफर है ।।
मेरी चाहतों का हुआ ये असर है ।
झुकी बाद मुद्दत के उनकी नज़र है ।।
नहीं यूँ ही दीवाने आए हरम तक ।
इशारा तेरा भी हुआ मुख़्तसर है ।।
यहाँ राजे दिल मत सुनाओ किसी को ।
ज़माना कहाँ रह गया मोतबर है ।।
है साहिल से मिलने का उसका इरादा ।
उठी जो समंदर में ऊंची लहर है ।।
है मकतल सा मंजर हटा जब से चिलमन ।
बड़ी क़ातिलाना तुम्हारी नज़र है ।।
बतातीं हैं बिस्तर की ये सिलवटें अब ।
तुम्हें नींद आती नहीं रात भर है ।।
वहीं बैठती है वो रंगीन तितली ।
गुलों के लबों पर तबस्सुम जिधर है ।।
सुना हुस्न वालों के ख़ामोश लब हैं ।
लिपिस्टिक की रंगत का जाने का डर है ।।
ये कोशिश है मेरी उसे भूल जाऊं ।
मगर याद आता वो शामो सहर है ।।
तमन्ना थी जिसको बसा लूं मैं दिल मे ।
मेरी आरजू से वही बेख़बर है ।।
मुलाक़ात जाइज कहेगी ये दुनिया ।
तेरे ही गली से मेरा रहगुज़र है ।।
- नवीन मणि त्रिपाठी
Comment
एक अच्छा प्रयास है आपका ... मेरी बहुत बधाई ...
आ. भाई शवीन जी, गजल का अच्छा प्रयास हुआ है । हार्दिक बधाई।
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब, तरही ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
'नहीं यूँ ही दीवाने आए हरम तक ।
इशारा तेरा भी हुआ मुख़्तसर है'
भाव की दृष्टि से इस शैर के सानी मिसरे में 'भी' शब्द भर्ती का है,और क़ाफ़िया भी उचित नहीं है ।
'है मकतल सा मंजर हटा जब से चिलमन'
इस मिसरे में 'चिल्मन' शब्द स्त्रीलिंग है ।
'मुलाक़ात जाइज कहेगी ये दुनिया ।
तेरे ही गली से मेरा रहगुज़र है'
इस शैर के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,दूसरी बात ये कि 'रहगुज़र' शब्द स्त्रीलिंग है,देखियेगा ।
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