आदरणीय साथियो,
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बुल्डोजर - लघुकथा -
"एस० पी० साहब, मंत्री जी का आदेश आया था कि रोशन मुहल्ले में उनके बड़े भाई साहब रहते हैं।वे देश के बीफ़ के बहुत बड़े एक्स्पोर्टर हैं। उनके बंगले के सामने उनके एक विरोधी बीफ़ एक्स्पोर्टर ने उनके बंगले से भी बड़ा बंगला बना लिया है। वहाँ रविवार को बुल्डोजर भेजना था।अभी तक नहीं गया।कारण पूछा है। क्या जवाब देना है?”
"मगर वह बंगला तो हर तरह से लीगल बना हुआ है। सारे काग़ज़ात सही हैं । साथ ही वह विरोधी पार्टी का खास आदमी है।”
"सर जी, असल में उसका धर्म आड़े आ रहा है।”
"लेकिन उसको इस बात की भनक लग चुकी थी। इसलिये उसने अदालत से स्टे भी ले रखा है।”
"साहब, आप ये सब कहानी किस्से मंत्री जी को सुनाओ।मुझे मत कहो। आप ख़ुद बात कर लो।”
"अरे जनाब, बर्र के छत्ते में हाथ कौन डाले। आप तो मंत्री जी के तेवर देख चुके हो।”
"सब देखा है सर। आई० जी० मिश्रा साहब जी ने एक आदेश लिखित में मांग लिया था। बेचारे नौकरी गंवा बैठे। दो साल से कोर्ट कचहरी के चक्कर लगा रहे हैं। कोई राहत नहीं मिल रही।”
“शायद मिलेगी भी नहीं ।देखो भैया, बच्चे पालने हैं तो जो राजा बोले चुपचाप ,सर झुका कर करते रहो।”
"भले ही वह आदेश गैर कानूनी हो।”
"अब तो इस देश में राजा की जुबान से निकला हर शब्द कानून है।”
मौलिक एवं अप्रकाशित
आदाब। हार्दिक बधाई आयोजन की पहली बढ़िया विषयांतर्गत पेशकश हेतु आदरणीय तेजवीर सिंह साहिब। कड़वे सच.. कड़वी ज़िदें और हदें!
हार्दिक आभार आदरणीय उस्मानी जी।
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन। अच्छी लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।
हार्दिक आभार आदरणीय धामी जी।
राजसत्ता पर तंज कसती एक जोरदार लघुकथा हेतु बधाइयाँ आ. तेजवीर जी।
हार्दिक आभार आदरणीय मनन कुमार सिंह जी।
समकालीन राजनीति और राजहठ पर केंद्रित उत्तम रचना। बहुत बधाई आदरणीय तेजवीर जी
कहीं रफ़ू, कहीं थिगड़़े (लघुकथा) :
इंजीनियर असलम साहब एक नये ठेले वाले को सब्ज़ी के पैसे ऑनलाइन अदा कर अपने मोबाइल की स्क्रीन पर दिखे उसके नाम को पढ़कर अबकी बार फ़िर से चौंक गये और बोले, "यार, तुम भी वही! .. जितने भी ठेलों वगैरह से कुछ ख़रीदकर जब भी ऑनलाइन पेमेंट करता हूँ, तुम्हारी ही जैसी जाति के लोगों के नाम आते हैं सामने! दूसरी किसी क़ौम के नहीं!"
"आपका इशारा समझ रये हैं साब! दरअसल अकेले वैसी क़ौम के लोग ही नहीं... पढ़े-लिखे डिग्रीधारी भी ठेले लगाने में शर्म महसूस करते हैं और वहीं के वहीं सड़ रहे हैं, जहाँ वे थे। साहब, ऐसा अपने शहर में ही नहीं सारे हिंदुस्तान में पाओगे आप!" सब्ज़ी ठेले वाला उस नये ग्राहक की ओर देखते हुए कुछ भाँपते हुए बोला, "आप तो जानतेई हो साब... कुछ लोग पंक्चर सुधार-सुधार कर अपनी ज़िन्दगी और समाज को भी पंक्चर ही कर रये हैं.. और कुछ हैं हम जैसे, बस!"
(मौलिक व अप्रकाशित)
सच है भाई उस्मानी जी कि लोग मिथ्यभिमान वश भी नाम बदलकर, वेश बदलकर अपनी रोजी निबाहते हैं। काम प्रधान है, नाम या जाति नहीं। कदाचित, जाति और कौम को अलग करके देखा जाना चाहिए। अच्छी लघुकथा की बधाइयाँ लें। नमन।
शुक्रिया आदरणीय मनन कुमार सिंह जी। वैसे अभी तक मेरे अनुभव में ऐसा नहीं आया है..कि..//नाम बदलकर, वेश बदलकर अपनी रोजी निबाहते हैं //.. मेरे अनुभव में इसी सप्ताह रचना अनुसार प्रसंग स्वयं के साथ हुआ है।
आ. भाई शेख शहजाद जी, सादर अभिवादन। अच्छी लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।
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