आदरणीय लघुकथा प्रेमियो,
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धन्यवाद आदरणीय सतविंदर कुमार जी ।
आदरणीय ! कथ्य की शैली और शिल्प तो प्रभावी लगा परन्तु उर्दू न जानने के कारण के शब्दों के उचित अर्थ को समझने में कठिनाई हुई , लगता है अब उर्दू को सीखने का अभ्यास करना पड़ेगा। बधाई।
आदरणीय सीमित साधन एवं सीमित शब्दों से साधना रत हूं ।प्रभावी हेतु ही प्रयासरत हूं ।आपका मार्गदर्शन कमियों को दूर करने सहायक होगा । सादर नमन ।
हार्दिक बधाई आदरणीय पवन जैन जी!पिछले कुछ समय से मुझे आपकी लघुकथाओं ने बहुत प्रभावित किया है!आज आपने उस कडी में एक मोती और जोड दिया!लाज़वाब प्रस्तुति!
आदरणीय आप वरिष्ठ है, मैं आपकी नजर में हूं यही मेरी खुशकिस्मती है ,आभार आपका ।सादर।
धन्यवाद आदरणीय जानकी वाही जी ।
आदरणीय पवन जैन जी, तेज चलती शहरी जिन्दगी की एक तश्वीर आपने अवश्य प्रस्तुत की है किन्तु मुझे इस प्रस्तुति को लघुकथा कहने में संकोच सा लगता है. बहरहाल इस प्रयास पर बहुत बहुत बधाई.
आदरणीय इ.गनेश जी आभारी हूँ आपने समय दिया ।कृपया निःसंकोच कमी की ओर इंगित करें तो आभारी रहूँगा ,एक विद्यार्थी का निवेदन स्वीकार करें ।
धन्यवाद आदरणीय नीता कसार जी ।
आदरणीय पवन जैन जी, एक अत्यंत गूढ़ (कम्प्लिकेटेड, क्लिष्ट) विषय को आपने मुद्दा बनाया है. शुभकामनाएँ.
किन्तु शिल्पगत तो नहीं वैधानिक तैयारियों के पूर्व ऐसे विषय से बचना उचित है. वर्ना हास्यास्पद होने का ख़तरा रहता है. मंटो का ’ठण्डा ग़ोश्त’ जिस खुलेपन के साथ कहा गया है उससे भी अधिक उसका मनोवैज्ञानिक पक्ष श्लाघनीय है. मरते हुए व्यक्ति के कॉन्फ़ेस करने का वैसा वर्णन अद्वितीय है.
मेरा इतना ही कहना है कि विषय चाहे जैसा हो, उसका प्रस्तुतीकरण वैधानिकतः शिष्ट और अनुशासित होना चाहिए. विशेषकर टैबू विषयों को लेकर मैं कह रहा हूँ.
इसी कारण अभ्यास के क्रम में सहज विषयों को लेकर उसके प्रस्तुतीकरण को बाँधना उचित रहता है. कुछ विषय मानसिक परिपक्वता के साथ-साथ रचनाकार से वैधानिक और शैल्पिक विशिष्टता भी चाहते हैं.
आपकी इस प्रस्तुति में शैल्पिक तो उतनी नहीं परन्तु, वैधानिक असहजता कायदे दिख रही है. बाकी, सुधीजन कहेंगे.
एक बात विशेष रूपसे. कुछ पाठकों की वाहवाही से बचने की कोशिश कीजियेगा, आदरणीय, यदि अभ्यास कर्म के प्रति सचेत हैं तो ! यह मेरा हार्दिक निवेदन है. बाद बाकी तो सब ठीक है.
सादर शुभकामनाएँ
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