आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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आभार नीता जी, आपकी बात में दम है माँ को ऐसी सलाह नहीं देना चाहिए पर हो सकता है माँ ने भी वस्तुस्थिति को भांपे बिना ही अपने जीवनमें निर्णय लिया हो और अपनी बेटी को भी वही दोहराने से रोक रही हो... क्योकि ये तो वाकई तय है कि आवेग में उठाया कदम कभी सही हो ही नहीं सकता.
अपनी बेटी के सुख में क्या माँ इतनी अंधी हो सकती है ? गले नहीं उतरती बात... किन्तु दुनिया में आज सब कुछ हो रहा है तभी तमाशबीन जन्म लेते हैं बस अपनी चिंता है दूसरों का तो तमाशा ही देखते हैं ....यहाँ तो माँ ही बेटी को तमाशबीन बना रही है |बधाई सीमा जी
सुख की परिभाषा क्या है?? किसी के लिए इज्जत मे सुख है और किसी के लिए वस्त्राभूषण सुख का पर्याय है.. और किसी के लिए कर्म ही सुख है. माँ अपने लिए चुने जीवन के कारण स्वयं तमाशा बन गई तो अपनी बेटी को तमाशबीन बनने की सलाह दे रही है..आभार दीदी कथा पर उपस्थिति के लिए सादर.
आदरणीया सीमा जी, सम्बन्धों के मकड़जाल बुनती हुई कथा. आज मां के उस जाल से निजात पाने को एक अपराध के रूप में बताना, आज की परिस्थितियों और सुविधाभोगी समाज का द्योतक है. सादर.
आदरणीय सीमा जी ,बधाई आपको इस प्रस्तुति के लिए . आपकी लघुकथा का यह सम्प्रेषण भी बहुत बढ़िया हुआ है . समस्त संवाद भी प्रवाहमय है लेकिन आपकी लघुकथा का कथ्य स्त्री-विमर्श के तहत देखे तो यह नकारात्मक सन्देश स्थापित कर रही है .
// “इतना बड़ा घर है उनका, कैसे तेरा रिश्ता उस घर में किया है मैंने... समझदारी से काम ले! इस घर की तकलीफों, और वहाँ के सुख के बारे में तो सोच!” माँ ने समझाया.//------माँ ने सिर्फ बड़ा घर देखकर ही बेटी का रिश्ता उस घर में किया था ? लड़के का चरित्र नहीं देखा ज़रा भी ? " यानि सिर्फ धन को ही सुख का पर्याय माना ? यहाँ माँ के चरित्र के ऊपर भी ये प्रश्न उठता है अब , कि उन्होंने , अपने जीवन में भी क्या सही फैसला ले पायी होंगी पति को छोड़ने के सन्दर्भ में ?
// “उनकी बदचलनी सहन करना समझदारी है, माँ?” बेटी ने दुःखी स्वर में कहा.//------कथा के संवादों में बेटी की मनोदशा जो उभर कर आई है उसमे वो अपनी माँ के कहे पर भरोसा करती है इसलिए दुखी होकर पूछती है , और उनकी बात मानने पर तैयार भी हो जायेगी ,स्वयं का विवेक उसके लिए अधिक मायने नहीं रखता है यानि यहाँ कथा में स्त्री-पक्ष को बहुत कमजोर साबित करने की कोशिश हुई है और कथ्य का उभार नकारात्मकता की तरफ हुआ है .
कथा लेखन सन्दर्भ में हम जो कहने जा रहे है यानि कथ्य पर हमें चिंतन करते हुए उसके कई पहलुओं पर विचार करना चाहिए ये बहुत जरूरी है . सादर !
आदरणीय कांता जी ! जहां तक मैंने इस कथा को समझा है.. यहाँ कहीं भी स्त्री पक्ष को कमजोर नहीं बताया गया .
आपका पहला प्रश्न : माँ ने सिर्फ बड़ा घर देखकर ही बेटी का रिश्ता उस घर में किया था ? लड़के का चरित्र नहीं देखा ज़रा भी ? उत्तर : अधिकाँश माँ-बाप अपनी बेटी का रिश्ता तय करते समय सर्वप्रथम घर कि माली हालत , लडके की आय और घर वालो का व्यवहार ,उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा इत्यादि देखते है . हां !! वे लडके के आचरण का पता लगाना नहीं भूलते परन्तु कथा में अनैतिक सम्बन्ध , यदि है भी तो ( क्यूंकि बेटी ये समझ रही है कि पति रात -बिरात भाभी के कमरे से निकलते हैं हो सकता है कि भाई की अनुपस्तिथि में देवर अपनी भाभी का ध्यान रख रहा हो .जरूरी तो नहीं कि ये देखभाल गलत तरीके की हो ..ये भी हो सकता है कि ये बेटी का वहम मात्र ही हो ) इस बात का पता लगाना बहुत मुश्किल ही है |
आपका दूसरा प्रश्न : “उनकी बदचलनी सहन करना समझदारी है, माँ?” बेटी ने दुःखी स्वर में कहा.//------कथा के संवादों में बेटी की मनोदशा जो उभर कर आई है उसमे वो अपनी माँ के कहे पर भरोसा करती है इसलिए दुखी होकर पूछती है , और उनकी बात मानने पर तैयार भी हो जायेगी ,स्वयं का विवेक उसके लिए अधिक मायने नहीं रखता है यानि यहाँ कथा में स्त्री-पक्ष को बहुत कमजोर साबित करने की कोशिश हुई है और कथ्य का उभार नकारात्मकता की तरफ हुआ है .
उत्तर : बेटी अभी कम अनुभवी है सामाजिक तानो-बानो के समझने के लिए . माँ उसे धीरज रखने की सलाह दे रही है . इसके पीछे हालात सुधर जाने की माँ की आस भी है . कई ऐसे मामले हुए है और होते हैं जब पत्नियां अपने धैर्य व समझदारी से पतियों को गलत राह से निकाल सही राह में ले आती है .. माँ जल्दबाजी में यह गलती कर चुकी है और शायद उसे इस बात का पछतावा भी है . यही कारण है कि वह बेटी को इस बात कि सलाह दे रही है | आजकल अदालते , सामाजिक संस्थाए भी पत-पत्नी के आपसी विवादों और वैचारिक मामलो को बात-चीत से सुलझा लेने का समर्थन करते है ..इसका तात्पर्य कदापि ये नहीं होता कि वे उन्हें नेगेटिव सजेशन देते है . अलगाव पति हो या पत्नी दोनों के लिए कष्टकर है .. तो रिश्तों को थोडा समय देकर क्यों न सुधरने का मौका दिया जाय ..फिर भी हालात नहीं सुधरते तो बेटी स्वतंत्र निर्णय ले सकती है . कथा में माँ ने इसके लिए कहीं मना नहीं किया . सादर
आपकी बात से पूर्णत सहमत आ. कांता जी | पर प्रतिकार करना ही स्त्रीत्व को सबल बना देता है क्या ? सहनशीलता , धीरज आदि गुण स्त्री को देवी कि संज्ञा दिलाते आये है . क्या माता अनुसुइया दुर्बल थी ? सतीत्व के बल पर वो चाहती तो त्रिदेवों को वहीँ भस्म कर देती . पर उन्हें स्रष्टि क्रम में कोई व्यवधान न हो इसकी भी चिंता थी इसी कारण उन्होंने अपनी सूझ-बुझ से विषम परिस्थितियों को सम्भाल कर एक उधाहरण प्रस्तुत किया था ..हां !! जो कुछ भी मैंने कहा-लिखा वो सिर्फ मेरे पाठकीय एवं व्यक्तिगत विचार है | सादर
व्यावहारिक हो जाने के नाम पर ज़िन्दा मक्खी निगलने की प्रवृति समाज को ले जाकर कहाँ छोड़ेगी यह सोच कर ही रीढ़ काँप जाती है. प्रस्तुति झकझोरती है, आदरणीया सीमाजी.
वैसे, कथा के संवादों में तनिक और कसावट इस प्रस्तुति को और श्लाघनीय बनाती, ऐसा मुझे प्रतीत हो रहा है. इसके लिए इस लघुकथा का ’पगना’ आवश्यक था. फिरभी, कथ्य और इंगित इसे प्रभावी बना रहे हैं. हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाइयाँ
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