आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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सच कहा आपने ... हार्दिक आभार आदरणीया !
ताक झांक की आदत का क्या ही खूब नामकरण किया आपने' खुजली' वाह , बिम्बों के सहारे प्रदत्त विषय को बड़ी ही कुशलता से परिभाषित किया है ,बधाई स्वीकारें आदरणीय सुधीर जी
हा हा हा ..! हार्दिक आभार आदरणीया
वाह्ह्ह बहुत ही रोचक अंदाज में लिखी लघु कथा जहाँ अन्दर से गुदगुदाती है वंहीं प्रदत्त विषय को सार्थक भी कर रही है चलचित्र का एहसास कराती सी आगे बढ़ती है कहानी |बहुत खूब हार्दिक बधाई आपको आ० सुधीर द्विवेदी जी
हार्दिक आभार आदरणीया .. श्रम सार्थक हुआ मेरा .
आदरणीय सुधीर भाईजी, ये है कल्पनाशीलता और प्रयोगधर्मिता !
सही कहूँ तो इस प्रस्तुति से आत्मीय सुख हुआ है. लघुकथाओं के दायरों की अगर चर्चा की जाएगी तो बानग़ी के तौर पर मैं अवश्य इस प्रस्तुति को शामिल करूँगा. वैयक्तिक आचरणगत लघुता के लिए ’खुजली’ शब्द का जैसा व्यंग्यात्मक प्रयोग हुआ है वह इस विधा में आपकी गहन परिपक्वता का परिचायक है.
हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाइयाँ
हार्दिक आभार सर .. नमन
रचना को पढ़ कर बरबस ही मुंह से वाह निकल जाता है आदरणीय सुधीर द्विवेदी भाई जी, लघुकथा का एक-एक शब्द आँखों के समक्ष चित्र खींच रहा है| हार्दिक बधाई स्वीकार करें इस बहुत अच्छी रचना के सृजन के लिए|
तपन
"देख रहे हो न कन्हैया, कितनी आग वर्षा रहे हैं ! पंछी पके फलों जैसे टपक रहे हैं,जानवर रिरियाते हुए घन चक्कर हो रहे हैं । ओह ! कुछ तो समझाइश दो इन्हें,अब तो खून खोलने लगा है।"
"तुम्हारा खून अब खोल रहा है ! कहाँ थे जब मैं खून के आंसू रो रहा था ? क्यों तमाशाई बने देख रहे थे,जब हरे भरे जंगल अपनी तरक्की की महामारी में कटवा रहे थे ? क्यों जहर मिलाते रहते हो मेरी सांसों में ? बडे और समझदार हो गए हो ना ! अब तो शिकायतें करना बंद करो ।
मौलिक एवं अप्रकाशित
शुक्रिया जनाब समर कबीर साहेब।
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