आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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आदरणीय राजेन्द्र गौर जी, सचमुच बाबूजी के बाल धूप में सफ़ेद नहीं हुए हैं. उन्होंने वह कुछ साझा किया है जिसकी समझ एक बड़े युवा वर्ग को नहीं है. पक्ष या विपक्ष के विन्दु अब सार्थक अध्ययन की संचेतना और विचार-मंथन से नहीं बनते-बिगड़ते. बल्कि, ये अब पूरे तामझाम के साथ, नाहौल बना कर आरोपित किये जाते हैं. गहन परख से उपजी इस प्रस्तुति केलिए हार्दिक बधाइयाँ. शुभ-शुभ
आ.राजेन्द्र गौर जी बधाई आपको इस रचना के लिए
प्रजातंत्र के खोखले होते जा रहे चौथे स्तम्भ का तो कहना ही क्या ! सच कहूं आज की पीढ़ी इनके न्यूज़ तो इंटरनेट पर पढ़ लेती है मगर इनके उबाऊ व्यूज़ और 'बहस ' वगैरह से बचती है। मगर आपके बाऊ जी का सशक्त पक्ष भी जानना जरूरी है।
सुरक्षा
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“अब आप सब कुछ मुझ पर छोड़ दें, आपने अबतक अपना काम बहुत सही ढंग से किया है, विभव बाबू. लोगों को अपनी वैधानिक परेशानी के दौरान अब आपकी संस्था का नाम याद आने लगा है, जो एक बहुत बडी़ बात है.” - शंकर बाबू ने अपने बडे़ से ऑफ़िस में ऊँची कुर्सी पर अपने आप को लगभग ढकेलते हुये विभव से कहा.
“मैने क्या किया है, सर ! सारा कुछ तो लोगों के सहयोग का है. मेरे किये से या मेरी सेवा से लोगों की समस्याओं का समाधान मिल जाता है, तो मुझे वाकई बहुत खुशी होती है” - विभव ने लगभग झेंपते हुये कहा.
विभव ने एक ग़ैर सरकारी संस्था बना कर जन-सूचना के अधिकार-अधिनियम से मिली सूचनाओं के माध्यम से कई आम लोगों को उनके अधिकार दिलवाये थे. एक कार्यक्रम में शंकर बाबू ने विभव से मुलाकात के बाद उसके जन-सुधार के विचारों से प्रभावित हो कर उसकी संस्था में स्वयं को शामिल कर लेने की बात कर रहे थे.
विभव ने एक नजर शंकर बाबू की विशाल काया, महँगी अँगूठियों से सजी उनकी उँगलियों और उनके ऑफ़िस की सज्जा पर डाली. बड़ी-सी कुर्सी, बडे़-से मेज़ के साथ-साथ बड़े-से शो-केस में कई संस्थाओं के सम्मान-पत्र और ट्राफ़ियाँ उनके सम्पर्क और रसूख का प्रदर्शन कर रही थीं.
शंकर बाबू की ऑफ़िस से निकलते हुए विभव अपनी संस्था के विस्तार के साथ-साथ अपनी संस्था की सुरक्षा की गुत्थी को भी सुलझाने में लगा था.
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(मौलिक और अप्रकाशित)
आदरणीय उस्मानी जी, कथा पर आने और विचार देने के लिये आभार. सादर.
आदरणीय शुभ्रांशु भाई जी, प्रदत्त विषय के अनुरूप कथानक बुनते हुए इस लघुकथा में बहुत बढ़िया ढंग से कथ्य को शाब्दिक किया है. इस प्रस्तुति पर आपको बहुत बहुत बधाई.
आदरणीय मिथिलेश जी, आपके अनुमोदन से एक विश्वास बनता है. कथा पर विचार देने के लिये आभार. सादर.
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