आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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यदि गुरु को संबोधित करना हो तो उसने/उसी/उसके संबोधन तो नहीं किया जा सकता न !
जैसे ..”मुझे उसने सहारा दिया है, उसके बिना मेरा क्या अस्तित्व?”
यदि कुछ सुझाव हो तो बेहिचक दीजियेगा, आखिर हम सभी एक दुसरे से सदैव ग्रहण करते रहते हैं. बहुत बहुत आभार इस प्रतिक्रिया हेतु.
आदरणीय गणेश बागी जी आपकी रचना ने शुरु से अंत तक बांधे रखा अंत तक पहुँचने का कोतुहल भी बना रहा। एक पाठक के रूप में कहूंगा रचना पसंद आई आपने प्रतीक स्वरुप जिन पात्रों को लिया है बस कमाल किया है बहुत बढ़ाई आपको उम्दा रचना के लिए ....
सादर
आदरणीय नादिर भाई, आपको लघुकथा पसंद आयी, लेखन कर्म सार्थक हुआ, सराहना युक्त प्रतिक्रिया हेतु बहुत बहुत आभार.
वाह आदरणीय बागी जी प्रदत्त विषय पर पतंग,डोर और हवाओं के प्रतीकों से आपने षड़यंत्र के भाव को बहुत ही सधे हुए अंदाज़ में संवादात्मक शैली के रूप में बड़ी महीनता से उकेरा है। दिल से बधाई स्वीकार करें।
आदरणीय सरना जी, बात आप तक हुबहू पहुँच गयी, लघुकथा सार्थक हुई, बहुत बहुत आभार.
बहुत सुंदर कथा हुई है आदरणीय | हार्दिक बधाई |
सराहना हेतु बहुत बहुत आभार आदरणीया कल्पना भट्ट जी.
जहाँ एक पिता/अभिभावक का उत्तरदायित्व, अनुशासन, उसकी गरिमा व्यवहार चाहती है, वहीं आशाओं, उत्सुकता, उद्भाव, उच्छृंखलता, लोकलुभावनी किन्तु बहकावे मे उलझाने वाली दुनिया में उड़ना चाहता बच्चा है. दोनों प्रतीकों के माध्यम से उद्धृत हुए हैं.
भाई गणेश जी, यह अवश्य है कि आप लघुकथा विधा का मर्म समझ चुके हैं. अतः कथ्य को खींच कर पटरी पर ले आते हैं लेकिन इस बार पटरी पर लाने की कवायद थोड़ी अधिक करनी थी. प्रस्तुति आपकी है अतः कह रहा हूँ. नहीं तो, लघुकथा अपने उद्येश्य में सफल है. हाँ इसके विस्तार से आप आश्वस्त हैं, लेकिन अब भी गुंजाइश है. चूँकि आपको अधिक समय नहीं मिला है . अतः आपने समझौता स्वीकार कर लिया है. ऐसा इस लिए कह रहा हूँ कि कुछ टंकण त्रुटियाँ इस ओर इशारा कर रही हैं.
इस दायित्वबोध की प्रतिस्थापना करती प्रस्तुति केलिए हृदय से बधाइयाँ.
प्रिय बागी जी , पतंग , डोर और आवारा हवा के माध्यम से लघुकथा रची जा सकती है , मानवीय रिश्तों को उकेरते हुए , यह आपकी रचना से समझा जा सकता है। बेशक कथा कुछ लम्बी हो गई है लेकिन ' आगे क्या होगा ' का रोमांच खत्म नहीं होता। पतंग उडी , खूब उडी मगर आवारा हवा अपने षड्यंत्र में कामयाब हो ही गई। अंत बहुत मार्मिक रहा // काँटों में उलझी पतंग धीरे धीरे दम तोड़ रही थी I आवारा हवाएँ विजयी भाव से एक दूसरे से हाथ मिला रही थीं, लेकिन डोर के आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे I // ऐसा ही होता है ज़िंदगी में। बधाई बागी जी।
ज़र जोरू और ज़मीन ( षड्यंत्र )
अँधियारी रात में नागिन सी सड़कों पर असंख्य बिजलियाँ दौड़ रही हैं।दोनों ख़ामोशी से ये मंज़र देख रहे हैं।एक की आँखों में निर्मलता के साथ सौम्यता झलक रही है पर दूसरे की आँखों में लपलपाती कुटिल चमक को गहरी कालिमा भी छुपा नहीं पा रही है।
" इंसान को इतनी तरक्की करते देख दिल को बड़ा सुक़ून मिलता है।ईश्वर की ये अनुपम कृति है, लाज़वाब।" सौम्य आँखों वाले फ़रिश्ते ने गहरी तुष्टि व्यक्त करते हुए कहा।
" दूसरा मुस्कुराया, कितना भी चमत्कार कर ले तुम्हारा इंसान?रहेगा मेरे काबू में ही।मैने अपने जहरीले नाख़ून उसके दिलोदिमाग पर गहराई से गड़ा रखे हैं। यूँहीं हर कोई मुझे शैतान नहीं कहता?"
" मुझे भरोसा है इस हाड़ माँस के पुतले पर। तुम चाहे कितनी भी कोशिश कर लो।बुराई इसको छू तक नहीं पायेगी।"फ़रिश्ते की आवाज़ में उम्मीद थी।
" हज़ारों लाखों साल हो गये तुम्हें ख्याली पुलाव बनाते हुए।कई सभ्यताएं आई और मिट गई।क्या तुम्हारे इस पुतले का लालच खत्म हुआ? इनकी कोई भी क़ौम हो।कोई भी नस्ल हो। कैसा भी रंग रूप हो और दुनिया के किसी भी कोने में रहते हों,ये ऐसे ही लड़ते झगड़ते रहेंगे।और साज़िशें बुनते रहेंगे।वो भी महज़ ज़र, जोरू और ज़मीन के लिए ? ये कह छलावे से भरी मुस्कान के साथ शैतान अँधेरे में विलीन हो गया।
मौलिक एवम् अप्रकाशित
मेरी भोली माँ - ( लघुकथा ) –
सुजाता गर्भ से थी!उसकी सासु माँ उसे बार बार भ्रूण परीक्षण के लिये उकसा रही थी! उनका मानना था कि इससे बच्चे के लिंग के अलावा बच्चे के स्वास्थ्य और पूर्णता के बारे में भी जानकारी मिलती है! सुजाता टालमटोल कर रही थी! फिर जब उसके पति ने भी अपनी माँ के सुर में सुर मिलाया तो मन मार कर सुजाता को राज़ी होना पडा!
दोपहर में लेटे लेटे, सुजाता की आंख लग गयी!
"माँ, तू कितनी भोली है, फिर वही भूल करने जा रही है"!
"कौन हो तुम और कौन सी भूल की बात कर रही हो"!
"माँ, मैं तेरी कोख में पल रही तेरी बेटी हूं"!
"मेरी बेटी , क्या कह रही हो तुम, मैं कुछ समझ नहीं पा रही"!
"पिछली साल भी मैं तुम्हारे गर्भ में आई थी! तुम्हारी सासुजी ने जाँच के बहाने लिंग परीक्षण कराया था! उनको यह पता लग गया था कि तुम्हारे गर्भ में कन्या है तो धोखे से तुम्हारे दूध में गर्भपात की दवा देती रहीं, और मुझे नष्ट कर दिया! अब फिर वही कहानी दोहराई जायेगी"!
सुजाता की आंख खुल गयी! सपने की बातों से वह सिहर गयी, पिछले साल की घटना चलचित्र की तरह उसकी आंखों में घूम गयी! उसने अपने उदर पर हाथ फिरा कर, गर्भस्थ शिशु को सहलाया और उसे आश्वस्त किया कि इस बार वह अपनी बच्ची के साथ कोई साज़िश नहीं होने देगी!
मौलिक व अप्रकाशित
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