आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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रक्षा बंधन के महीने में आपने रेशम के धागे को मजबूत कर दिया ... वाह बेहतरीन प्रस्तुत्ति!
आदरनीया नयना जी, सुंदर लघुकथा कि लिए बधाई
भूल-सुधार
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“छोड़ हाथ मेरा, मैं नहीं जाऊंगा।” एक झटके से हाथ छुड़ा वह बुज़ुर्ग अपने रिक्शे पर वापस जा बैठा।
युवक फिर आगे बढ़ा और बोला, “बात तो सुनिए मेरी!"
“मुझे कुछ नहीं सुनना। मैं नहीं जाऊंगा, एक बार में बात समझ नहीं आती है क्या?”
दोनों की बहस बढती देख आस पास जमा लोगों में से एक आगे बढ़ कर बोला:
“अरे भैया, क्यों बुजुर्ग आदमी से उलझ रहे हो?”
एक अन्य व्यक्ति ने बात सुलझाने की गरज़ से कहा:
“आप तो पढ़े-लिखे लगते हो! जब मन नहीं है गरीब का जाने का तो क्यों ज़िद कर रहे हो? कोई दूसरा रिक्शा कर लो।"
बुजुर्ग रिक्शे वाले ने भीड़ को संबोधित करते हुए कहा, “अरे! अभी टाइम होने वाला है, अब बच्चियों को स्कूल पहुँचाना है मुझे।”
“ओह अच्छा, अच्छा! स्कूल का रिक्शा चलाता है ये, तभी नहीं जा रहा है।” किसी ने बोला.
“ये मेरे पिता हैं। अभी कुछ दिन पहले ही मानसिक अस्पताल से वापस लाया हूँ इनको।” देर से चुपचाप खड़ा युवक बोल उठा।
"अरे, पागल है ये तो भाइयो, चलो यहाँ सेI” वास्तविकता जानकर भीड़ में से किसी ने कहा।
यह सुनकर बुजुर्ग ज़ोर से चिल्लाया:
“नहीं! पागल तो मैं पहले था, जो अपनी नाबालिग़ बेटी की पढ़ाई छुड़वा कर उसका ब्याह दिया था। उन जालिमों ने मार डाला मेरी बच्ची को!” यह कहकर वह सुबकने लगा।
“चलो, बाबा, चलो घर चलो।” बेटे ने बाप को मनाने का प्रयास करते हुए कहा।
“जब तक सभी बच्चिओं को स्कूल नहीं पहुंचा देता, मैं कहीं नहीं जाऊँगा।"
एक दृढ़ निश्चय भरे स्वर में उत्तर देकर वह वापस अपने रिक्शे पर जा बैठा।
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मौलिक एवं अप्रकाशित
अंदर से कहीं न कहीं वह बूढ़ा खुद को बेटी की हत्या में शामिल पा रहा है। इसीलिए अब इस दिमागी हालत में उसका ध्यान बच्चियों को स्कूल भेजने की तरफ है। हर बच्ची को वह भले ही सही मुकाम हासिल न करवा पाए, लेकिन अपनी बेटी की मौत के बाद उस बूढ़े का यह फ़ोबिया किसी प्रकार भी अस्वाभाविक नहीं लगता। क्योंकि इसी के ज़रिये वह बूढ़ा अपने अपराध हेतु प्रायश्चित कर रहा है। लघुकथा में पात्र का यह मनिवैज्ञानिक चित्रण इस कथा को बहुत ऊँचा ले जाने में सफल रहा है। इसके इलावा यह कथा कई बेहद सार्थक और महत्वपूर्ण सामाजिक सन्देश देने में भी सफल रही है। हालाकि शीर्षक कोई ज़्यादा दमदार नहीं, किन्तु कथ्य-शिल्प के दृष्टिकोण से लगभग निर्दोष इस उच्च-स्तरीय अभिव्यक्ति हेतु मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें सीमा सिंह जी।
ह्रदय से आभार, सर आपकी इस विस्तृत टिप्पणी से मन आत्म विशवास से भर गया.सच कहूँ तो मैं थोड़ी शंकित थी कथा को पोस्ट करतें समय,पता नहीं मेरी बात कथा से बाहर आ भी पाई हैं?पता नहीं पाठक तक संदेश पहुँचा भी कि नहीं. पर मैं ये कैसे भूल सकती हूँ ओबीओ तो शुद्ध साहित्यिक मंच हैं. यहाँ तो सब सम्भव है.
आ.सीमा जी उत्कृष्ठ कथानक चुना आपने और बडी खूबी से इसे निभाया. बधाई आपको
शुक्रिया आ० नयना जी.
ह्रदय से धन्यवाद दीदी ,आपकी तो उपस्थिति ही बहुत सुखद होती है कथा पर.
बढ़िया रचना विषय पर, थोड़ी कृतिमता लगी इसमें| बहरहाल बधाई इस रचना के लिए
आभार आपका, आपका रचना पर आना ही सम्मान की बात है सर.. मानसिक रूप से असंतुलित व्यक्ति से और किस व्यवहार की अपेक्षा की जा सकती है... बहुत अव्यावहारिक और असामान्य हो जाते हैं.
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