ओ बी ओ लखनऊ चैप्टर की मासिक गोष्ठी ‘साहित्य संध्या’- माह दिसम्बर 2015 पर एक संक्षिप्त रिपोर्ट
प्रस्तुति : डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव
रविवार 13 दिसम्बर 2015 , समय 2 बजे अपराह्न, आकाश में सूर्य और बादलों की आँख मिचौली, धरती पर गुदगुदाती शीत और लखनऊ के लोक निर्माण विभाग के छोटे सभागार ‘प्रगति भवन’ में कवि और शायरों की चहल-पहल. इन सबके बीच ओ बी ओ, लखनऊ चैप्टर की मासिक गोष्ठी – साहित्य संध्या का आयोजन चैप्टर के वरिष्ठ सदस्य श्री केवल प्रसाद सत्यम द्वारा किया गया था I इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में लगभग 27 साहित्यप्रेमियों ने अपनी उपस्थिति दर्ज की जबकि उस दिन जनपद में अनेक साहित्यिक कार्यक्रम थे और चैप्टर के कुछ नियमित सदस्य अपनी व्यस्तता के कारण आ नहीं सके थे I डा0 शरदिंदु मुखर्जी के संयोजन में इस कार्यक्रम की अध्यक्षता शहर के प्रसिद्ध व्यंग्यकार डा0 डंडा लखनवी ने की I संचालन का दायित्व डा0 गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने उठाया I
कार्यक्रम के प्रथम चरण में वाणी वंदना के उपरान्त छंद विधान और ग़ज़ल के शिल्प पर चर्चा हुयी I शरद कुमार पाण्डेय ‘शशांक’ ने छंदों के वैदिक आधार का उल्लेख करते हुए सवैया एवं घनाक्षरी जैसे छंद के शिल्प की जानकारी साझा की I छंद को अमर्त्य बताते हुए उन्होंने हितैषी और सनेही जैसे छन्दकारों का स्मरण किया I उनका मानना है कि आज भी अनेक कवि छंदबद्ध कवितायें कर रहे हैं यद्यपि वे प्रकाश में नहीं हैं I पर इससे छंद का महत्त्व कम नहीं हो जाता I सवैया छंद को व्याख्यायित करते हुए उन्होंने कहा कि किसी एक गण यथा, यगण, सगण, भगण आदि की सात आवृतियों के साथ आवश्यकतानुसार गुरु या लघु वर्ण या एक या अधिक कोई अन्य यथोचित गण से बनी आवृति से सवैया का एक पद होता है I ऐसे चार पदों के समूह को सवैया कहते हैं I इस प्रकार स्पष्ट है कि सवैया वर्णिक छंद होते हैं जो अधिकांशतः 21 से 26 वर्ण के हो सकते हैं I
ग़ज़ल के शिल्प पर कुंवर कुसुमेश जी ने विस्तार से प्रकाश डाला I उन्होंने बताया कि ग़ज़ल की लोकप्रियता का इससे बड़ा क्या प्रमाण होगा कि यह भाषा की सीमा का अतिक्रमण कर उर्दू से हिन्दी में आयी और पूरी शिद्दत से आयी I यह ग़ज़ल की अपनी आकर्षण क्षमता है I उन्होंने इस विधा के शिल्प पर प्रकाश डालते हुए कहा कि ग़ज़ल रचना में दो बातें महत्वपूर्ण हैं I एक छंद विधान और दूसरा तग़ज्जुल I तग़ज्जुल शेर में कोई चमत्कृत कर देने वाला भाव होता है I इससे छन्द में गहराई आती है I उन्होंने तग़ज्जुल का एक उदाहरण भी पेश किया –
“फलक के चांद को मुश्किल में डाल रक्खा है
ये किसने खिड़की से चेहरा निकाल रक्खा है” (डॉ इक़्बाल)
अगर ग़ज़ल या शेर में तग़ज्जुल नहीं हो तो कथन को सपाटबयानी कहा जायेगा I प्रख्यात शायर बशीर बद्र का जिक्र करते हए उन्होंने कहा कि तग़ज्जुल के बारे में उनका कहना था कि ‘कोई लड़की बहुत हसीन हो तो क्या आप उसे अच्छे कपडे पहनाना पसंद नहीं करोगे’ I
छंद के शिल्प के बारे में कुंवर कुसुमेश ने मतला, हुस्ने मतला (मतला सानी), बहर और बहर के नामकरण पर भी संक्षेप में चर्चा की I हर्फे रवी का जिक्र करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि जिस शब्द में काफिया श्लिष्ट हो उसमे से यदि काफिया अलग कर दिया जाये तो बचा हुआ शब्दांश निरर्थक होना चाहिये वरना काफिया गलत हो जायेगा I
कार्यक्रम के दूसरे चरण का आगाज शरद कुमार पाण्डेय ‘शशांक’ की सरस्वती वन्दना से हुआ –
जब तक सृष्टि ये रहेगी रस वृष्टि होगी
विश्व में तुम्हारा धर्म ध्वज फहराएगा
गीतकार गीत से बुलाएगा रिझाएगा I
गीतकार गीत में तुम्हारे गुण गायेगा II
युवा एवं समर्थ ग़ज़लकार आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ ने अपनी सुन्दर ग़ज़ल और मोहक आवाज से सभी को मंत्र-मुग्ध सा कर दिया -
हवा, सूरज, अगन, मिट्टी कभी पानी में गुजरा है
ये जीवन सरपरस्तों की निगहबानी में गुजरा है
तुम्हारा साथ हो तो जिन्दगी आसान हो जाए
मेरा तनहा सफ़र बेशक परेशानी में गुजरा है
मंजुल मिश्र ‘मयंक’ को जीवन से बड़ी शिकायत थी I उन्होंने अपनी व्यथा कुछ इस प्रकार दर्ज की –
कब तलक यूँ ही कटेगी ज़िन्दगी
रोयेगी या हँसेगी ज़िन्दगी ?
मनोज मिश्र ‘शीत‘ के तख़ल्लुस से जिस शीतलता का आभास होता है उनकी कवितायें उससे बिलकुल उलट थी I कविताओं का ताप सभी उपस्थित समुदाय ने महसूस किया I इन्होंने तुलसी और मानस की अनिवार्यता पर विशेष बल दिया I इनकी राष्ट्रीयता से ओत –प्रोत रचनाओं को इनके ओजपूर्ण स्वर की अच्छी संगति मिली I बानगी इस प्रकार है –
चाहे काश्मीर की क्यारी हो चाहे झेलम की घाटी हो
बहुत ज्यादा बंटी है अब नहीं जायेगी यह बांटी
युगों से चलती आयी है यह अपनी पुन्य परिपाटी
दिया है खून पर छूने नहीं दी देश की माटी
ओज परम्परा के ही एक अन्य युवा कवि आत्म हंस मिश्र ‘वैभव ‘ ने कौमी एकता के आह्वान को अपनी आवाज से पूरे सभागार में बुलंद किया I उनकी कविता की एक मिसाल पेश की जा रही है –
फूलों का मौसम कहता है सांसों का सरगम कहता है
फहराता कहता भगवा ध्वज इस्लामी परचम कहता है
जुड़े नमाज भजन पूजन से आरती जुड़े अजान से
आओ रामायण के पन्ने जोड़ें हम कुरआन से
प्रदीप कुमार शुक्ल ने अभाव से पूर्व प्रभाव की कामना करते हुए ईश्वर से याचना कुछ इस अंदाज में की –
करना था यदि प्रभु चीर हरण मेरा
एक बारगी को मेरा तन ढक देते तुम
घेरते हो यहाँ वहाँ मारने को बार-बार
रोकने को वार ढाल एक बार देते तुम
राम राज भारती ‘फतेहपुरी’ ने भगवान शंकर की स्तुति अपने अंदाज में इस प्रकार की -
रखे हाथ में त्रिशूल हरते हैं कष्ट शूल
जय बोलते ही होता जग में अभय है
धारते हैं मृग छाल राख को बनाए ढाल
चित्त में राखे सदैव दुष्ट का दमन है
मनमोहन बाराकोटी ‘तमाचा लखनवी’ के तख़ल्लुस पर लोगों की जिज्ञासा बरकरार रही
मगर उन्होंने कोई समाधान नहीं किया I सांसारिक दंश झेलकर अब वर निस्पृह एवं अनीह हो गए है, ऐसा उनकी कविता बोलती है –
ज़िन्दगी में सुकून और राहत नहीं है
है कौन ऐसा जो आहत नहीं है
बहुत पा लिया यश और अपयश दोनों
अब किसी चीज़ की मुझमें चाहत नहीं है
केवल प्रसाद ‘सत्यम‘ ने एकाधिक अच्छी रचनायें सुनाईं I छंदों के साथ ही उन्होंने ग़ज़लें भी पढ़ीं I उनकी ग़ज़ल का एक मतला इस प्रकार है –
स्वर्ण संसार लिये दिव्य दिवाकर देखो
साथ में डूब गया लाल समन्दर देखो
‘मिजाज लखनवी’ ने छोटे बहर की ग़ज़लें सुनायी I उनकी ग़ज़ल का एक मतला और शेर इस प्रकार है –
आसमाँ की छाँव जहां तक है
मोहब्बत के पाँव वहाँ तक हैं
दुनिया में इश्क-मिजाज हैं बहुत
जाने इनका गाँव कहाँ तक है
वरिष्ठ भूवैज्ञानिक डा0 दीपक मेहरोत्रा ने पहली बार इस गोष्ठी में पधारकर शृंगार रस की मंदाकिनी प्रवाहित करते हुए उसकी लोल लहरों से सभी को आप्यायित किया –
मन के बंद दरवाजे, जरा तुम आज फिर खोलो
मगर यह ध्यान भी रखना, न मैं बोलूँ न तुम बोलो
मूक नयनों की वाणी हो
तड़प केवल निशानी हो
हृदय के घाव की पीड़ा, न मैं खोलूँ न तुम खोलो
लबों पे हो नहीं शिकवा
अधूरी सी कहानी हो
गिरह उन चंद लमहों की, न मैं खोलूँ न तुम खोलो
वरिष्ठ कवि डा0 श्रीकृष्ण सिंह ‘अखिलेश’ ने अपनी रचना ‘अजीब लोक ‘ की कुछ पंक्तियाँ सुनायी -
देश की दुर्दशा देखते रह गए
क्या हमारे नयन क्या तुम्हारे नयन
घर की अंतर्कथा बांचते रह गए
क्या हमारे नयन क्या तुम्हारे नयन
हास्य कवि प्रवीण शुक्ल ‘गोबर गणेश ‘ ने ‘जूता पुराण’ नामक व्यंग्य रचना सुनायी और अच्छे दिन का स्वागत इस प्रकार किया -
जितने माँ हमरे बाप-दादा घी खायिन
उतने में गोबरौ नहीं मिल रहा
बता रहे अच्छे दिन आइ गये
डा0 सुभाषचन्द्र ‘गुरुदेव’ को भी व्यवस्था से शिकायत है I वे नए वर्ष का आगाज अपने आक्रोश प्राकट्य से निम्न प्रकार करते हैं –
वर्ष सोलह कुछ तो मना के देख लो
पहचान अपनी खुद बना के देख लो
चंद चेहरे जगमगाते हैं यहाँ
शेष हैं कुम्हलाये चेहरे देख लो
सुकुमार भावनाओं से सजी डा0 शरदिंदु मुकर्जी की कविता ‘मुझसे कविता मत मांगो’ कवि के उन क्षणों की विरासत है जब वह प्रकृति के सम्मोहन में बिंधकर सब कुछ भुला बैठा है, यहाँ कविता उसके लिए बेमायने है I इस सम्मोहन के उपादानों के बीच कवि की स्थिति निम्न प्रकार है -
छोड़ आया हूँ शब्दों को
रूपहले पर्वतों की चोटी पर
कल्पनाएं समाहित हैं
चीड़ और देवदार की घनी छाया में
स्वप्न सब बिखर गए हैं
एकाकी पगडंडियों में
मुझसे कविता मत मांगो
डा0 तुकाराम ने ‘नारी विमर्श‘ को अपने ढंग से प्रस्तुत किया I उनका परीक्षण (Observation ) है कि माँ , बेटी और बहन को लेकर जितनी गालियाँ भारत में हैं उतनी विश्व के किसी देश में नहीं हैं I उनकी प्रतिबद्धता कुछ इस प्रकार है –
टूटे हुये खिलौने मैं जोड़ने चला हूँ
आकाश के सितारों को तोड़ने चला हूँ
इस बीच उपस्थित समुदाय ने संचालक की कवितायें सुनने की मांग की I अध्यक्ष महोदय की अनुमति प्राप्त कर संचालक डा0 गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने अपना गीत पढ़ा, जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं –
सूने आंगन में जाल बिछा चांदनी रात सोयी रोकर
मेरी अभिलाषा जाग रही रागायित हो पागल होकर
मैं समय काटता रहा विकल
दायें-बायें करवटें बदल
घिर आये मानस-अम्बर पर
स्वर्णिम सपनीले बादल-दल
बौराया घूम रहा मारुत अपनी सब शीतलता खोकर
शहर के प्रतिष्ठित ग़ज़लकार ‘कुंवर कुसुमेश’ ने कई सुन्दर ग़ज़लें सुनायी I उनका शद यह है कि मोहब्बत दुनिया में आज भी जिन्दा है लेकिन चरित्र, शराफत अब नहीं है I वे कहते हैं –
ऐसा नहीं कि रस्मे मुहब्बत नहीं रही
दुनिया में सिर्फ आज शराफत नहीं रही
‘फुरकत लखीमपुरी’ ने अपने तरन्नुम और आम फहम ग़ज़लों से सबका मन मोह लिया I उनका अंदाज देखिये –
बस यूँ ही जमाने में ये निजाम चलता है
इक चराग बुझता है इक चराग जलता है
सुख की नींद सोता है कोई गर्म बिस्तर पर
कोइ सर्द रातों में करवटें बदलता है
कार्यक्रम के अंतिम कवि के रूप में अध्यक्ष डा0 डंडा लखनवी ने सर्वप्रथम एक सार गर्भित अध्यक्षीय भाषण दिया जिसमें उन्होंने वैज्ञानिकों को साहित्यकारों के साथ जोड़कर कहा कि दोनों आम आदमी को नया कुछ देते हैं और निरंतर आम जनता की ज़िंदगी खुशहाल बनाने में रत रहते हैं I बाद में उन्होंने अपनी कवितायें पढ़ीं I उनकी एक कविता का अंश नीचे दिया जा रहा है -
घी सीधी उँगलियों से निकलता ही नहीं है
डंडे के बिना मिलती सफलता ही नहीं है
घर में तहा के रख दिया उस नाटी व्यवस्था को
पल्लू है किसी सिम्त संभलता ही नहीं है
थाने में बहुत बार बजाया गया उसे
वह चोरियों का राज उगलता ही नहीं है
अध्यक्षीय वक्तव्य एवं काव्य-पाठ के बाद ओ बी ओ लखनऊ चैप्टर के संयोजक डा0 शरदिंदु मुकर्जी ने सभी कवियों और साहित्य अनुरागियों को उनकी सहभागिता के लिए धन्यवाद दिया और वर्ष 2015 में अनुष्ठित इस संस्था के अंतिम मासिक गोष्ठी के समापन की घोषणा इस आशा के साथ की कि आने वाले समय में भी सभी सुधीजनों का सहयोग मिलता रहेगा I
Tags:
वर्ष २०१५ की अंतिम गोष्ठी का यों सफलता पूर्वक सम्पन्न होना आने वाले वर्ष की गोष्ठियों की रूपरेखा के प्रति भरोसा जगाता है. साहित्य के फलक को विज्ञान के सान्निध्य से जिस तरह ओबीओ के लखनऊ चैप्टर ने विस्तार दिया है वह साहित्य के बहुआयामी स्वरूप को प्रस्तुत करता है. इस गोष्ठी के संयोजक, अध्यक्ष संचालक तथा आयोजक को हृदयतल से बधाइयाँ तथा उपस्थित हुए सभी सहभागी कवियों के प्रति हार्दिक आभार.
शुभ-शुभ
आ० सौरभ जी /आ० शरदिंदु जी -- इस बातसे मैं भी सहमत हूँ कि ओ बी लखनऊ चैप्टर की अविराम गतिविधि की सतत विविधता पर हमें एडमिन की और से दो शब्द भी नहीं मिलते I यही कारण है कि ओ बी ओ के जागरूक सदस्य भी इस टीप से प्रायशः दूर ही रह्ते हैं I आज जब हम आगामी वर्ष गाँठ के आयोजन के सम्बन्ध में अभी से विचार बना रहे ह तब एडमिन का सह्योग और प्रोत्साहन हमे स्फूर्ति देगा , मैं ऐसी उम्मीद करता हूँ . . सादर .
आदरणीय शरदिन्दुजी, मैं वर्तमान में कई व्यस्तताओं से गुजर रहा हूँ। इसी कारण पटल पर मेरी अनायास किन्तु आवश्यक उपस्थिति भी नियत नहीं रह पा रही है। परन्तु, पोस्ट पर अपनी दृष्टि बनाये रखने की पूरी कोशिश करता हूँ। आप सभी सही राह पर सोद्येश्य चल रहे हैं। इसका भान ही नहीं आश्वस्ति हम सभी को है।
चरैवेति चरैवेति
सादर
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |