सुपरिचित साहित्यिक-संस्था ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम (ओबीओ) के लखनऊ चैप्टर ने चैप्टर के संयोजक डॉ. शरदिन्दु मुकर्जी के निर्देशन में दिनांक 22 मई 2016 को स्थानीय डिप्लोमा इंजीनियर्स संघ, लोक निर्माण विभाग के प्रेक्षागृह में अपना चतुर्थ स्थापना-दिवस मनाया. यह एक-दिवसीय कार्यक्रम तीन सत्रों में सम्पन्न हुआ.
पहला सत्र उत्तरप्रदेश हेल्थ मिशन के वरिष्ठ अधिकारी एवं साहित्यकार डॉ. अनिल मिश्र की अध्यक्षता में ओबीओ के संस्थापक एवं महा-प्रबन्धक श्री गणेश जी ‘बाग़ी’ तथा प्रधान-सम्पादक श्री योगराज प्रभाकर सत्र के विशिष्ट आतिथ्य में सम्पन्न हुआ. सत्र का प्रारम्भ सरस्वती-वन्दना एवं दीप-प्रज्ज्वलन से हुआ. जिसके बाद ओबीओ, लखनऊ चैप्टर की स्मारिका ‘सिसृक्षा’ के द्वितीय अंक का विमोचन एवं लोकार्पण हुआ. आगे, ओबीओ, लखनऊ चैप्टर के संयोजक डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने ‘अंटार्कटिका और भारत : कितनी दूर, कितने पास’ शीर्षक के अंतर्गत अपने बेहतरीन स्लाइड-शो के माध्यम से भारत सरकार के अंटार्कटिका अभियान का रोचक विवरण प्रस्तुत किया. ज्ञातव्य है, कि डॉ. शरदिन्दु मुकर्जी लगातार तीन बार भारत–सरकार के ’अंटार्कटिका अभियान’ के वैज्ञानिक-सदस्य रहे हैं.
दूसरे सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ ग़ज़लकार जनाब एहतराम इस्लाम साहब ने की. सत्र के विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार श्री कुँवर कुसुमेश तथा हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध आलोचक डॉ. नलिन रंजन सिंह थे. इस सत्र में इलाहाबाद से आये हिन्दी तथा भोजपुरी भाषा के साहित्यकार एवं वरिष्ठ कवि श्री सौरभ पाण्डेय ने ‘नवगीत : तथ्यात्मक आधार एवं सार्थकता’ पर व्याख्यान प्रस्तुत किया, जिसमें नवगीत विधा से सम्बन्धित कई पहलुओं पर चर्चा हुई.
इसी द्वितीय सत्र में तीन पुस्तकों “अहिल्या-एक सफर” (लेखिका – श्रीमती कुंती मुकर्जी), “नौ लाख का टूटा हाथी” (लेखक – डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव) एवं “मनस विहंगम आतुर डैने” (लेखक – डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव) का विमोचन हुआ. इन पुस्तकों पर क्रमश: डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव, डॉ. नलिन रंजन सिंह तथा डॉ. बलराम वर्मा ने सारगर्भित समीक्षा प्रस्तुत की. साथ ही, श्री केवल प्रसाद ‘सत्यम’ विरचित “छन्द कला के काव्य-सौष्ठव” पर गीतिका विधा के प्रवर्त्तक एवं वरिष्ठ साहित्यकार श्री ओम नीरव ने समीक्षा प्रस्तुत की.
तीसरे एवं अंतिम सत्र में ’लघुकथा’ विधा पर एक कार्यशाला आहूत थी, जिसका संचालन लघुकथा विधा के जाने-माने विद्वान पटियाला, पंजाब से आये श्री योगराज प्रभाकर ने किया. कार्यशाला के अंतर्गत पंद्रह कथाकारों द्वारा लघुकथाओं का पाठ किया गया. इन प्रस्तुतियों पर समीक्षा करने के साथ-साथ श्री प्रभाकर ने इस विधा के मूलभत नियमों और लेखकीय बारीकियों की चर्चा करते हुए कहा कि “लघुकथा विधा में ’काल-खण्ड’ एक ऐसा प्रभावी विन्दु है, जो लघुकथा को किसी छोटी कहानी से अलग करता है”. कार्यशाला का समापन प्रश्नोत्तरी से हुआ जिसके अंतर्गत रचनाकारों और श्रोताओं की इस विधा से सम्बन्धित विभिन्न शंकाओं का निवारण किया गया.
इसी सत्र के अंतिम भाग में आमंत्रित कवियों द्वारा काव्य-पाठ हुआ. पद्य-विधा की विभिन्न शैलियों में हुए काव्य-पाठ ने इस सुनियोजित उत्सव को स्मरणीय बना दिया. कवि-सम्मेलन की अध्यक्षता ग़ाज़ियाबाद से आए हुए वरिष्ठ साहित्यकार एवं सुप्रसिद्ध गीतकार डॉ. धनंजय सिंह ने की. कवि-सम्मेलन के मुख्य अतिथि थे वरिष्ठ साहित्यकार एवं शास्त्रीय छन्द-मर्मज्ञ श्री अशोक पाण्डेय ‘अशोक’ तथा नवगीत विधा सशक्त हस्ताक्षर श्री मधुकर अष्ठाना. कार्यक्रम का समापन ओबीओ, लखनऊ चैप्टर के सह-संयोजक श्री केवल प्रसाद ‘सत्यम’ द्वारा धन्यवाद ज्ञापन से हुआ.
(रपट हेतु विन्दुवत सामग्री, सौजन्य - डॉ. शरदिन्दु मुकर्जी)
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मैं कुछ नहीं पूछ रहा, न जानना चाहता हूँ, आदरणीय. मैं लखनऊ चैप्टर का सदस्य हूँ. हालाँकि दूरवासी हूँ. अतः मेरी जो सीमाएँ हैं उनके प्रति नत-मस्तक रहते हुए, जो बन पड़ता है, करता हूँ. किन्तु, जो लखनऊ में हैं, आदरणीय, वे आदरणीयशरदिन्दु जे के साथ कैसा निभा रहे हैं ? क्या यह आदरणीय शरदिन्दुजी का कार्यक्रम है? क्या मासिक गोष्ठियों में उपस्थिति बन पाती है ?
मैंने उसी दिन मंच से कुछ निवेदन किया था, उस निवेदन का तथाकथित सदस्यों, शुभचिंतकों और वाह-वाहकारी जमात पर क्या असर पड़ा ? इसी का संज्ञान ले लीजियेगा तो आदरणीय शरदिन्दु जी को एक संयोजक के तौर पर महती सहयोग मिलेगा. सहयोग तीन तरह से किया जा सकता है, तन से, मन से और धन से. बिरले भाग्यशाली ही तीनों तरह से सहयोग कर पाते हैं.
एक बात और, पिछले चार-पाँच सालों से ओबीओ का मर्सिया पढ़ने और इसकी तैयारी करने वाले अब थक-हारकर, फेसबुक पर अपलोड हो रहे और हुए फोटो आदि पर अचानक लाइक वग़ैरह करने लगे हैं. कइयों की आपसी मुखर वाह-वाह तो है ही..
सादर
आप प्रभू अंतर यामी हैं . मैं कोई तापमान नही जों बदल जाऊँगा , कबिरा हूँ हर द्वारे चला जाऊँगा ,
सादर
प्रदीप कुशवाह ' आत्मा नन्द '
//एक बात और, पिछले चार-पाँच सालों से ओबीओ का मर्सिया पढ़ने और इसकी तैयारी करने वाले अब थक-हारकर, फेसबुक पर अपलोड हो रहे और हुए फोटो आदि पर अचानक लाइक वग़ैरह करने लगे हैं. कइयों की आपसी मुखर वाह-वाह तो है ही..//
आदरणीय
सादर
एक फिल्म थी '' तलाश ''
आँख और कान में ४ इंच का अंतर होता है . इसको बताने के लिए फिल्म जगत की पहली फिल्म थी एक करोड की .
वो भी जब मैं छात्र था .
पिछले माह मैं दादा मुखर्जी के आवास पर गया था. होली थी शायद
प्रदीप
आप सही और सटीक कहने लगें, आदरणीय प्रदीप जी, तो मेरे साथ-साथ इस मंच का भी भला होगा. न मैंने ’तलाश’ देखी है, न हाल-फिलहाल में देखने की कोई गुंजाइश ही है. ऐसी अन्योक्तियाँ और वक्रोक्तियाँ अन्यथा बतकही की श्रेणी में आती हैं.
आदरणीय शरदिन्दु जी के साथ आप सहयोगात्मक संपर्क में अविलम्ब आ जायें. सदस्य और शुभचिंतक नेवता और कार्ड की प्रतीक्षा नहीं करते. अन्यथा वे न सदस्य होने का अर्थ जानते हैं, न शुभचिंता की मर्यादा से परिचित होते हैं. :-))
सादर
आदरणीय मिथिलेश जी, आपकी ओर से मिला अनुमोदन आश्वस्तिकारी लगा.
वस्तुतः, एक प्रवृति हो गयी है कि किसी ने सलाह दी नहीं कि लोग उसे ही जुए में जोत देते हैं. कि, इतना बोले तो अब आगे बढ़ो ! और सभी पीछे से तमाशा देखेंगे ! जबकि ओबीओ के मंच से सदा सहयोगात्मक रवैये को तरज़ीह देने की बात होती रही है.
कोई कुछ और सहयोग न दे, कमसे कम कुछ व्यय तो उठा ही सकता है. ताकि संचालक/संयोजक और उसकी टीम आर्थिक रूप से थोड़ा-बहुत संबल पा सके. कहते हैं न, बूँद-बूँद से तालाब भरता है. क्या प्रति उपस्थित सदस्य २००/ की सहायता राशि नहीं दे सकता ? लेकिन आप दंग रह जायेंगे ?
यदि यह नहीं सही, तन से सहयोग दे. ताकि टीम को मज़बूत हाथ मिल सकें. दो से तीन, तीन से चार, चार से छः की संख्या बने और टीम का स्वरूप आकार लेता जाय !
या मन से कोई सहयोग दे. कोई बेहतर सुझाव दे कर उस पर अपने अनुभव साझा करे. कि कोई आयोजन कैसे सुचारू रूप से व्यवस्थित सम्पन्न हो सके. लेकिन ऐसा नहीं होता. जो आयोजन या प्रयोजन इनिशियेट करे वही भोगे. बाकी, निर्लिप्त बने ऊँंट के करवट लेने की प्रतीक्षा करते दिखते हैं.
यह तो हुई एक बात. दूसरी बात, कि ओबीओ के परिवार से कई लोग जुड़े और आवश्यक एवं अपनी क्षमता भर ’ज्ञान’ लेकर अपनी ओर से ही ’उर्वारुक बन्धन’ को प्राप्त हो गये. कुछ तो बाहर की दुनिया में भरपूर क्षमता से ’वाही-तबाही’ बकते रहे. लम्बे समय तक. साढ़े तीन-चार साल पहले एक सज्जन ने मुझे फोन कर कहा था, कि मंच तो अब बन्द ही हो रहा है. कौन चलायेगा इसे !? अब वे सज्जन आयोजन के अपलोड हुए फोटुओं को लाइक करना शुरु कर दिये हैं. ऐसे मौके ऐसी बातों को याद करने और सचेत होने केलिए भी हुआ करते हैं.
बातें बहुत सी हैं.
इस रिपोर्ट को पढ़कर पूरा आयोजन आँखों के सामने घूम गयाI आयोजन हर मायने में सफल रहा और हम सभी ने इसका भरपूर आनंद लिया जिस हेतु ओबीओ लखनऊ चैप्टर बधाई का पात्र हैI वहां अयोजित "लघुकथा कार्यशाला" एक एतिहासिक घटना रहीI इस सफल आयोजन हेतु आ० डॉ शरदिंदु मुकर्जी जी तथा इस जीवंत रपट हेतु आ० सौरभ भाई जी का हार्दिक आभारI
आप ओबीओ की ओर से सम्पन्न एक और ऐतिहासिक कार्यशाला को भूल रहे हैं, आदरणीय योगराज भाईजी.
हलद्वानी के इंजिनीयरिंग कॉलेज, एमआइईटी, के परिसर में आदरणीया प्राचीजी के सौजन्य से आयोजित कार्यक्रम में ’हिन्दी पद्य-भाषा में मात्रा-संयोजन’ पर हुई कार्यशाला ! जिसका संचालन इस ख़ाकसार ने किया था. पूरे ढाई घण्टे चली थी. उस कार्यशाला में भी अपने गणेश भाईजी, आदरणीय एहतराम साहब और डॉ. धनन्जय सिंह जी उपस्थित थे. ’मात्रा-संयोजन’ को लेकर वह भी देश की कोई पहली कार्यशाला थी.ओबीओ अपने छः साला जीवन में अबतक कई बड़े कारनामे कर चुका है. जिसका भान तो है, लेकिन अन्यथा अहंकार हमें नहीं है.
कैसे भूल सकते हैं हुजूर? जहाँ खुद को तुर्रम खान कहने वालो/वालियोँ को उनकी असलियत आप ने दिखाई थी! जोकि मात्रा गिनती में ही गच्चा खा गए थेI उनका वो हश्र हुआ था, जैसा कि एक पंजाबी कहावत है कि "आए सी जज्ज बण के - गए बेलज्ज बणके"
(वैसे मैं भूलता कभी कुछ नहीं हूँ I)
हा हा हा...
एक मोहतरमा से आयोजन की तैयारी के दौरान आदरणीया प्राचीजी ने कार्यशाला में उपस्थिति हेतु आग्रह किया तो उन्होंने आदरणीया प्राचीजी को ही आड़े हाथों ले लिया था, कि, वे दिल्ली के लालकिला से भारत सरकार के कवि-सम्मेलन में दो-दो बार पढ़ चुकी हैं. कितनी ही पत्रिकाओं में लगातार छपती रहती हैं. उनका कद ये, उनकी प्रतिष्ठा वो ! अगर उनको सम्मनित किया जाता तो कुछ बात बनती, ये कहाँ कार्यशाला में बैठने को बोल रही है !
इतना सब सुनकर आदरणीया प्राचीजी तो भौंचक रह गयी थीं. फिर भी, लालकुआँ की एक अत्यंत वरिष्ठ सम्पादिका महोदया के साथ वो मोहतरमा कार्यशाला में आयीं. और पूरी कार्यशाला-अवधि के दौरान बंगले झांकती रहीं. अक्सर सारे सही उत्तर अपने गणेश भाईजी दे रहे थे !
कार्यशाला के बाद वे मेरे पास आयीं और कहा कि ऐसी कार्यशाला और ऐसी समझाइश का अनुभव उन्हें नहीं था. आदरणीया प्राचीजी की खुली मुस्कान देखने लायक थी.
किसी प्रश्न पर उस समय गणेश भाई ने एक से कहा भी था, ऐसे सौरभ पाण्डेय एक नहीं है, ओबीओ पर कई हैं.. !
इस आयोजन की एक और मुख्य उपलब्धि रही आ० एहतराम इस्लाम साहिब का अभिभाषणI "हिंदी में सब चलता है" की मानसिकता पर उनकी सोद्हारण लताड़ गज़ब की रहीI "खिलाफत" और "महारथ" शब्दों के अर्थ समझे बिना "सरेआम" उपयोग पर बात करते हुए उनके अन्दर का दर्द उभर उभर कर बाहर आ रहा थाI जब एहतराम साहिब ये बातें कर रहे थे तो मुझे कार्यक्रम के प्रारंभ में गाई हुई सरस्वती वंदना की यह पंक्ति बार बार मेरे ज़ेहन में गूँज रही थी "माँ शारदे वरदान दोI" भाषा की फजीहत करने के बाद भी हम माँ सरस्वती से वरदान की आशा कर रहे हैं ? क्या दीदा-दिलेरी है यह हमारीI
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