For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

साहित्य-संध्या ओबीओ लखनऊ-चैप्टर माह दिसंबर 2020–एक प्रतिवेदन   ::   डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव

                                                                                                                                                         ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की ऑनलाइन मासिक काव्य-गोष्ठी 20 दिसंबर 2020 दिन रविवार को सायं 3 बजे प्रारंभ हुई I इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कवयित्री आभा खरे ने की I संचालन का दायित्व श्री अजय कुमार श्रीवास्तव ‘विकल’ ने  निभाया I इस कार्यक्रम के प्रथम सत्र का समारंभ कवयित्री कुंती मुकर्जी की कविता ‘चाँद और मैं ’ पर हुए विमर्श से हुआ, जिसमें ओबीओ लखनऊ-चैप्टर के सदस्य प्रतिभागी बने I इस विमर्श का प्रतिवेदन अलग से तैयार कर ओबीओ एडमिन को भेजा जा रहा है I कार्यक्रम के दूसरे सत्र का समारंभ संचालक ‘विकल’ की सरस्वती-वंदना से हुआ –

हे मातु! वीणापाणि निश्छल ज्ञान का वरदान दो l

तम से निकालो ज्योति में हमको अभय का दान दो ll

हम कर रहे हैं पुष्प लेकर चरण-रज की वंदना l

छवि श्वेत वल्कल, कमल-दृग, मुख-चंद्र की है अर्चना ll

इसके बाद संचालक द्वारा पहला आह्वान कवयित्री सुश्री कौशांबरी जी के लिए हुआ I कवयित्री ने सृजन के विविध रूपों में किस तरह माँ की गोद प्राप्त की, उसका एक विहंगम चित्र प्रस्तुत किया, जिसकी बानगी निम्नवत है –

अंकुरित हो दूब निकली

ओस की बूँदें समाईं 

सूर्य ने फिर मुस्कुराकर

पीठ मेरी थपथपाई

धारा ने तब शरण देकर

सृजन के सब द्वार खोले

गोद में मैं आज माँ की

यही है प्रारब्ध मेरा

अगले कवि थे हास्य-विस्फोटक श्री मृगांक श्रीवास्तव जी  I माँ शारदा का स्मरण कर उन्होंने अपनी चार कवितायें सुनाईं और लोगों को लहालोट कर दिया i कुछ नमूने यहाँ प्रस्तुत हैं –

[1] यदि आप बिना अर्द्धांगिनी के  महान बनने की सोचते हैं।

अटल ,मोदी, योगी और कलाम, की नक़ल करते हैं।

अगर बुध्दि कम हो तो, ज्यादा उछल-कूद न मचायें ।

इस चक्कर में , आप पप्पू भी बन सकते हैं।

 [2] जीवन में ग्रहों का प्रभाव होता है, कि आप कब पैदा हुए?

अच्छे समय जन्मे मोदी, चाय वाले से पीएम बन गए।

राहुल गाँधी के बारे में  बहुत कम लोग जानते हैं ।

फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ और पप्पू दोनों उन्नीस सौ सत्तर में रिलीज हुए I

 कवयित्री निर्मला शुक्ल ने अनादि काल से बहु व्याख्यायित प्रेम के सन्दर्भ को अपनी अभिव्यंजना से कुछ इस तरह सजाया I 

क्या यही प्रेम है

उद्दाम लहरों को

जाते हुए देखता है समंदर

किनारों की ओर

पर उन्हें रोकता नहीं

वापस लौटने पर ले लेता है

फिर अपने आगोश में

समकालीन कविता की सशक्त हस्ताक्षर सुश्री संध्या सिंह ने इस बार एक ग़ज़ल प्रस्तुत की I इस ग़ज़ल के काफिये बिलकुल नए और टटके थे i कुछ शेर यहाँ प्रस्तुत हैं  -

पत्तियों से हवा की ज़िरह के नतीजे

आँधियाँ है चमन में कलह के नतीजे I

 शक़्ल में कतरनों की ज़मीं पर पड़े हैं

एक जबरन लगाई गिरह के नतीजे II

 ज़लकार आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ ने अपने मिजाज के विपरीत एक मोहक गीत पढ़ा I इस गीत का हर बंद अपनी अदा में है i यहाँ एक बंद उदाहरण हेतु

प्रस्तुत है –

जिसमें है सामर्थ्य सहन की  दर्द वहीं आश्रय पाता I

जीवन का सहचर बनकर वह पीर हृदय में बो जाता II

पीड़ा को पीड़ा से ऊपर उठ  जिसने स्वीकार किया I

वही तपस्वी सच्चा साधक जिसने अपना दर्द जिया II

 

ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह ने एक बेहतरीन ग़ज़ल प्रस्तुत की I इसके कुछ शेर दिल छू लेते हैं I जैसे-

जो हैं शरर अंगेज़ वजूद उनका मिटा दें,

वरना वो जला देंगे ये संसार किसी दिन I    

क़ुदरत के ख़ज़ाने से डकैतों सा ये बर्ताव

साँसें कहीं हो जाएँ न दुश्वार किसी दिन I 

जारी है सफ़र ज़ीस्त तेरा चार दिनों का 

होने को हैं अब ख़त्म ये दिन चार किसी दिन I

 कवयित्री नमिता सुन्दर ने बिम्बों का सहारा लेकर वयोवृद्ध जीवन के महत्व को अपने रेशमी शब्दांकन में कुछ इस तरह उकेरा-

ढहती दीवारों के बीच

प्यार से भींच लेते हैं

थरथराते, कँपकँपाते हाथ।

और

कहते हैं कुछ लोग

बुजुर्गियाई भीतें

सहारा नहीं दे पातीं।

 

डॉ. शरदिंदु मुकर्जी की कविता में जीवन के अवसान का संकेत है I रात शुरू हुई है I जीवन में अब तक हमने क्या किया I पीछे की जिंदगी में झाँक कर यह आत्मविश्लेषण का समय है I शरदिंदु जी कहते हैं -

दो पल के लिए मुड़ कर देखो

क्या खोया जग ने क्या पाया?

हमने सिर्फ़ अपना घर देखा

सिर्फ़ अपनों को ही अपनाया II

जो घाव लगे औरों को

हमने ऐसे ही ठुकराया ।

चलो, बहुत हो गया अब

वापस अंतर्मन को ढूँढ़ें

जहाँ निर्वाक खड़ा 'वह' देखे

प्रेम जहाँ पर हहरी है..

 डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने ‘आमना-सामना’ शीर्षक से एक कविता सुनाई I जब किसी से आमना-सामना होता है तो कितने द्वंद्व मानव के मन में उभरते हैं, उसका एक अक्स इस कविता में है,  चाहे वह आईने के साक्षात्  से हो, पलकों की परछाईं से हो या अँधेरी रात से हो I इस कविता का एक नमूना प्रस्तुत है –

उफनते आवेश

याचना से आक्रोश

रोष से परितोष ,

हर आशय का करे दीदार

नमी से ढके कभी खुशी के पल

उदासी में ढूँढ़े कभी स्तब्ध

हलचल।

डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने किसान आन्दोलन के ताजा-तरीन मुद्दे पर अपनी कविता ‘नया राजा’ के द्वारा यह बताने की कोशिश की कि राजा कोई भी हो प्रजा की सुध लेने वाला उसका अपना भाग्य है I इस कविता की बानगी इस प्रकार है - 

पहले वाला

राजा 

सुनता न था

पर भागता भी न था

वह हमारी प्रजाति को

कहता था अन्नदाता

पर वह बहरा था 

 

अन्नदाता

कहता तो यह भी है

पर बहुत दिन तक

हम जान नहीं पाए

कि यदि पहले वाला 

राजा बहरा था

तो इस नये राजा के

तो कान ही नहीं है I

 सुश्री कुंती मुकर्जी अपनी कविता में नदी की सहयात्री बनने को आतुर हैं, पर दोनों की मंजिल और यात्रा-व्यवहार में कुछ फर्क है -

नदिया तू क्यों बहक रहा.....

कुछ देर ठहर....!

तू क्यों पानी-पानी हो रहा...!

न मैं मोम हूँ न तू आग का दरिया

जितना दूर तुझे है जाना ...

उससे कहीं दूर मेरी मंजिल..!

 संचालक श्री अजय श्रीवास्तव 'विकल' ने अपनी कविता में बचपन को याद किया I अपना बचपन तो मात्र एक स्मृति है पर बचपन कैसा होता है यह हम बड़े होकर तटस्थ भाव से देखते है तब जान पाते हैं पर तब तक हमारा नजरिया बदल चुका होता है I हाँ,  बचपन के सुर अवश्य नहीं बदलते i एक बानगी इस प्रकार है –

डामर की सड़कों पर,

कभी खेतोँ की अल्हड़

पगडंडी नापना,

आम को बौने हाथों से

छूना,

दौड़ती सड़कों से

डर जाना,

हवा पर उड़ते हुए

धरती को ध्यान से निहारना l

गाँव के तालाबों को सूरज

से हँसाना l

 

कार्यक्रम के अंत में अध्यक्ष सुश्री आभा खरे ने अपने पद को ‘धज‘ प्रदान करते हुए एक बड़ी ही अर्थपूर्ण कविता प्रस्तुत की I स्त्री और पुरुष नैसर्गिक रूप से सहधर्मी हैं और एक दूसरे के सुख-दुःख को बाँटने का संकल्प लेकर परस्पर पूरी निष्ठा से समर्पित होते हैं I जीवन में हठात अपरिहार्य रूप से प्रकट होने वाली आकस्मिक हताशा या अवसाद का जब दोनों प्रतिबद्धता से सामना करते हैं तब एक दूसरे के प्रति न केवल विश्वास दृढ़ होता है अपितु समर्पण सही अर्थों में रूपायित और व्याख्यायित होता है I आभा जी की कविता की मूल भावना यही समर्पण है, इसी समर्पण भाव से एक की हताशा दूसरे की हताशा को काटती है I कविता का एक निदर्शन यहाँ प्रस्तुत है -

मेरा दर्द बाँटते हुए

वह लग रहा था मुझे

ठीक नदी की तरह ...

 

और तभी महसूस हुआ कि

इस दुनिया में

इस धनक से भरा-पूरा

जिंदादिल,  खुशमिजाज़, हंसोड़

कोई और नहीं...

 

क्या उसकी पीड़ा,  उसकी हताशा

गड्डमड्ड हो गयी थी मेरी हताशा और पीड़ा में ?

 

क्या इसे ऐसे भी समझा जा सकता है

कि

एक की हताशा

दूसरे की हताशा को काट रही थी

ठीक वैसे ही

जैसे लोहा  लोहे को काटता है...?

 कोई भी कवि सम्मेलन हो या गोष्ठी, जब हम उससे उबरते हैं तो कुछ कवितायें हमारे अधरों पर अनायास ही विचरने लगती हैं I हमारे कुछ साथी चाय के लिए बेचैन थे और मेरा चैन आभा जी की कविता में खो चुका था I मैं सोचने लगा -

विश्वास

और समर्पण

बस इतनी सी व्याख्या में

सिमटी है नारी 

इसी विश्वास में

उसे मिले हैं धोखे

इसी समर्पण में वह

बनी है कुंवारी माँ

कोठे में बैठी है कभी

जान भी दी है, कई बार   

फिर भी नहीं छोड़ा उसने

विश्वास करना

समर्पित होना

क्योंकि यह है नारी की प्रकृति

उसकी नैसर्गिकता

 

घात 

तो तब होता है 

जब नहीं कर पाती वह चुनाव

सही साथी का, सच्चे चरित्र का

मानवता की छवि का 

और ऐसा होता है

अक्सर तब

जब आत्ममेधा से करती है वह

अपने भाग्य का निर्णय

और छली जाती है

समाज के श्वान और

दुर्दांत भेड़ियों से

हालाँकि

कदापि वर्जनीय नहीं है

आत्म-मेधा का अधिकार

पर जब वह हो

समाज से नियंत्रित

जब वह हो अधिकार

स्वयंवर जैसा  

जैसा होता था और हुआ है

हजारों-हजार साल पहले

इतिहास गवाह है

 

और

यह न संभव हो यदि

तो क्या बुरा है  

उसे साथी चुनने में 

सही मानते है 

जिसे माता और पिता

क्या बुराई है

एक अनिर्दिष्ट पथ पर

जाने के बजाय

एक मार्ग निर्देशक की

बताई राह पर चलने में

जहाँ विपथ होने की

या फिर भटकने की 

जरा भी न हो संभावना

 

वहीं 

फलता है विश्वास

और समर्पण भी खिलता है वहीं

जहाँ मिलता है

प्रेम और प्रेम का प्रतिदान

जरूरी है जिसके लिए 

दाम्पत्य का बंधन

जिसके बाद

नारी बनती है नदी 

और मिलती है किसी सागर से

जहाँ दोनों ही होते हैं

पानी सिर्फ पानी

और तब बीतता है जीवन

कभी ज्वार सा कभी भाटे सा

अंतहीन, समर्पित

विश्वास से भरा  

जहाँ तृप्ति पाती है नारी की प्रकृति  (सद्य रचित)

(अप्रकाशित/ मौलिक )

Views: 659

Reply to This

Replies to This Discussion

आ. भाई गोपाल नारायण जी, सादर अभिवादन । आपका यह प्रतिवेदन पढ़ गोष्ठी में उपस्थिति सी महसूस हुई । कामयाब गोष्ठी व आपकी इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई ।

आदरणीय गोपाल दादा, आपका हर प्रतिवेदन अपने आप में अद्वितीय होता है | वास्तव में हर कवि की रचना को पढ़कर, उसकी गहराई में उतरकर उसे अपनी सार्थक अभिव्यक्ति प्रदान करना अद्भुत है | मैंने कई अन्य लोगों के प्रतिवेदन भी पढ़े हैं लेकिन यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि किसी ने भी रचनाओं की समीक्षा  करने  का कष्ट नहीं किया और सत्य तो ये है कि ये सबके बस की बात भी नहीं है | कविता को पहले तो पढ़ना, फिर उसकी मूल भावना को आत्मसात करना और फिर समीक्षा करना .... इतना कष्ट भला कौन उठाता है ... और किसमें  भला इतना सामर्थ्य है | आपको पुनः इस सार्थक और सारगर्भित प्रतिवेदन हेतु ढेर सारी बधाई और शुभकामनाएं | मैं स्वयं को भाग्यशाली और गौरवान्वित महसूस करता हूँ कि आपका स्नेह और आशीर्वाद मुझे निरंतर प्राप्त हो रहा है |

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ज़िन्दगी की रह-गुज़र दुश्वार भी करते रहे
"धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी "
16 hours ago
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ज़िन्दगी की रह-गुज़र दुश्वार भी करते रहे
"धन्यवाद आ. सौरभ सर,यह ग़ज़ल तरही ग़ज़ल के साथ ही हो गयी थी लेकिन एक ही रचना भेजने के नियम के चलते यहाँ…"
16 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ज़िन्दगी की रह-गुज़र दुश्वार भी करते रहे
"आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। यह गजल भी बहुत सुंदर हुई है। हार्दिक बधाई।"
20 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ज़िन्दगी की रह-गुज़र दुश्वार भी करते रहे
"आदरणीय नीलेश भाई,  आपकी इस प्रस्तुति के भी शेर अत्यंत प्रभावी बन पड़े हैं. हार्दिक बधाइयाँ…"
yesterday
अजय गुप्ता 'अजेय commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (अलग-अलग अब छत्ते हैं)
"साथियों से मिले सुझावों के मद्दे-नज़र ग़ज़ल में परिवर्तन किया है। कृपया देखिएगा।  बड़े अनोखे…"
yesterday
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ज़िन्दगी की रह-गुज़र दुश्वार भी करते रहे
"धन्यवाद आ. अजय जी ...जिस्म और रूह के सम्बन्ध में रूह को किसलिए तैयार किया जाता है यह ज़रा सा फ़लसफ़ा…"
yesterday
अजय गुप्ता 'अजेय commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ज़िन्दगी की रह-गुज़र दुश्वार भी करते रहे
"मुशायरे की ही भाँति अच्छी ग़ज़ल हुई है भाई नीलेश जी। मतला बहुत अच्छा लगा। अन्य शेर भी शानदार हुए…"
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post उस मुसाफिर के पाँव मत बाँधो - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, आपकी प्रस्तुति के लिए धन्यवाद और बधाइयाँ.  वैसे, कुछ मिसरों को लेकर…"
yesterday
अजय गुप्ता 'अजेय commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (अलग-अलग अब छत्ते हैं)
"हार्दिक आभार आदरणीय रवि शुक्ला जी। आपकी और नीलेश जी की बातों का संज्ञान लेकर ग़ज़ल में सुधार का…"
yesterday
अजय गुप्ता 'अजेय commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (अलग-अलग अब छत्ते हैं)
"ग़ज़ल पर आने और अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए आभार भाई नीलेश जी"
yesterday
अजय गुप्ता 'अजेय commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (हर रोज़ नया चेहरा अपने, चेहरे पे बशर चिपकाता है)
"अपने प्रेरक शब्दों से उत्साहवर्धन करने के लिए आभार आदरणीय सौरभ जी। आप ने न केवल समालोचनात्मक…"
yesterday
Jaihind Raipuri is now a member of Open Books Online
Tuesday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service