आदरणीय साथिओ,
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देवयानी के काव्यात्मक संवाद से सुसज्जित इस बेहतरीन लघुकथा के लिए आपको हार्दिक बधाई आदरणीया जानकी वाही जी।
खुद की पहचान ढूँढने की जद्दोजेहद ..वाह खूबसूरत ...बहुत सुन्दर कथा है आपकी हार्दिक बधाई प्रेषित है आदरणीया जानकी जी
/हाँ ! होनी तो चाहिए, अगर हर औरत पारिवारिक और सामाजिक अहमों की अँध सुरंग पार कर पाये तो ? .../ सधी व वैचारिक लघुकथा प्रेषण हेतु सादर शुभकामनाएं ।
असलियत - लघुकथा -
आदर्श अपने चाचा रनबीर को ही पिता का दर्ज़ा देता था। पिता क्या वह तो उनको भगवान की तरह पूजता था।इसके पीछे बहुत बड़ा कारण भी था। उसके पिता की मौत तो उसके जन्म के कुछ दिन बाद ही हो गयी थी इसलिये उसे पिता के बारे में ज्यादा कुछ याद भी नहीं था। उसे सिर्फ़ इतना मालूम था कि उसके पिता की मौत ज़हर खाने से हुयी थी , यह उसकी माँ द्वारा बताया गया था।
उसकी माँ ने ही उसे बताया था कि तेरे चाचा ने तेरे भविष्य को लेकर अपनी शादी नहीं की। उनका मानना था कि यही मेरी सबसे बड़ी जिम्मेवारी है।माँ के अनुसार चाचा ने अपना सारा जीवन एक तपस्वी की तरह बिता दिया। आदर्श के मन में चाचा के लिये बहुत इज्जत और श्रद्धा थी।
आज सुबह तड़के आदर्श खेतों से लौटा,वह रात भर खेतों में पानी लगा रहा था, घर का दरवाजा खुला था।उसने सोचा माँ घेर में पशुओं की देख रेख करने गयी होगी । वह माँ के कमरे की कुंडी खोलकर अंदर चला गया।मां के बिस्तर पर चाचा को खर्राटे भरते देख आदर्श का खून सूख गया।वह उल्टे पैर बाहर आगया।घर से निकलते ही माँ का सामना हो गया,
"माँ, मैं हमेशा के लिये जा रहा हूँ।मुझे बस इतना बता दे कि मेरे पिता को ज़हर किसने दिया था"।
माँ की आँखों से टपकते आंसुओं से आदर्श सारी कहानी समझ गया।
मौलिक एवम अप्रकाशित
तस्वीर का दूसरा रुख इतना घिनौना भी हो सकता है पढ़कर स्तब्ध रह गई प्रदत्त विषय को पूर्णतः सार्थक करती इस सफल लघु कथा के लिए बधाई लीजिये आद० तेजवीर सिंह जी |
हार्दिक आभार आदरणीय राजेश कुमारी जी।
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