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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-21 में सम्मिलित सभी लघुकथाएँ

(1). श्री विजय जोशी जी  

दोयम दर्जा

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'रागिनी ज़िद छोड़ दो।' 'कोई और रास्ता अपना लो।'
'खुले आसमान के नीचे रहना ज्यादा आसान है, किन्तु हम गरीबों के लिए महलों का सुख छलावा है, जीवन से खिलवाड़ है।"
' घुटनभरे गलिहारो में, स्वर्ण की चमक के बीच अपना आभामंडल का सर्वस्व खो जाने जैसा है।'
'भारती तुम्हारी नाकामी मुझ पर मत थोपो , मैं अपना अच्छा-बुरा खुद जानती हूँ।'
' मेरी कामयाबी से इतनी ईर्ष्या?'
"तुम दोस्त हो या मेरी दुश्मन।"
भारती की लाख समझाइश भी रागिनी के भ्रमर जाल को नहीँ तोड़ सकी। और रागिनी माया लोक के दलदल में अंजान सी धसती चली जा रही थी।
लक्ज़री फेसिलिटी की चकाचोंध में रागिनी ने भारती को काफी पीछे छोड़ दिया था।
आज शहर में नोट बंदी के साथ वृहद पैमाने पर सर्चिंग चल रही थी। रागिनी का घर परिवार भी निशाने पर था।
आज रागिनी मान , माया, मर्यादा, महल लेश हो गई। आज ही रागिनी को ज्ञात हुआ कि घर में उसका दर्जा एक्सवाइफ़ का है। दोन नंबरी दर्जे के सारे काम उसी के नाम से जारी थे।
रागिनी के कानों में भारती की बाते अक्षरसह गूँज रही थी।

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(2). श्री तेजवीर सिंह जी  

सरहद  

क़ुफ़वाड़ा (जम्मू कश्मीर) से तीस किलो मीटर आगे, दिसंबर की हाड़ कपाने वाली बर्फ़ीली रात,  लगभग दो बजे होंगे। खंदक में से कंबल छोड़ कर, ठिठुरते हुए हवलदार असलम ने लघु शंका के लिये बाहर निकलने की कोशिश की। एक गोली दन्न से उसका बायाँ कंधा छीलते  हुए निकल गयी।

असलम अपना संतुलन नहीं संभाल पाया।धम्म से गिर गया। साथी हवलदार रूप सिंह ने सहारा देकर असलम को खंदक में अंदर खींच लिया। असलम के कंधे से खून बह रहा था। खंदक में कोई प्रथम उपचार का सामान नहीं था।

रूप सिंह ने रम की बोतल से थोड़ी रम ज़ख्म पर उड़ेल दी। असलम जलन से तिलमिला उठा।

"असलम भाई, आप अभी अपनी पिछली चौकी पर चले जाइये। वहाँ सब साधन हैं, आपका ठीक सेउपचार हो जायेगा"।

"नहीं ज़नाब, यह संभव नहीं होगा। हमारी क़ौम पहले ही बदनाम है। मैं पीछे नहीं हटूंगा"।

"असलम भाई, आपको पीछे केवल उपचार के लिये जाना है। रात भर खून बहेगा तो आपकी जान को खतरा है"।

"मुझे कुछ नहीं होगा ज़नाब, आप बेफ़िक्र रहिये"।

"असलम भाई, आप ज़ख्म की गंभीरता को समझिये। आप को जाना ही पड़ेगा"।

रूप सिंह के बार बार जोर देने पर असलम झुंझला गया,"ठीक है ज़नाब, आपका आदेश तो मानना ही होगा। मगर जाने से पहले एक जरूरी काम करना है"।

इतना कह कर असलम फ़ुर्ती से अपनी एल एम जी लेकर निकला और अंधेरे में गायब हो गया। रूप सिंह सांस रोके असलम की गति विधि की टोह लेने का प्रयास कर रहा था।

रूप सिंह को लगा, जैसे असलम अपनी चौकी की ओर ना जाकर दुशमन की चौकी की तरफ़ जा रहा था|   मगर घुप्प अंधकार में कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था।

अचानक ताबड़तोड़ गोलियों की आवाज़ होने लगी।

तड़ तड़ तड़.............. फिर उन गोलियों की आवाज़ से भी तेज़, हवलदार असलम की आवाज़ गूंजी,

"भारत माता की जय"।

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(3). श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय जी 

माँ

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मन और आत्मा में अंतर्द्वंद्व चल रहा था.
मन ने हल्का होने के लिए आत्मा से कहा, “ मुझे पेन मिला था. माँ से कहा. वह कुछ नहीं बोली. मै ने पेन अपने पास रख लिया. मगर जब रास्ते में माँ के साथ जा रहा था, तब मुझे कीमती आभूषण व रूपए से भरा पर्स मिला था. उसे देख कर माँ बड़ी खुश हुई, ‘ ऊपर वाला जब भी देता है छपरफाड़ कर देता है.’ माँ ने यह कहते हुए उस अमानत को अपने पास रखा लिया था.”
“ यह तो गलत बात थी. क्या, भगवान इस तरह छप्परफाड़ कर धन देता है ?”
“ मुझे क्या पता. मै उस वक्त छोटासा बच्चा था. बस चीज़े उठाना सीख गया. और बड़ा हुआ तो छोटेछोटे अपराध करने लगा. मगर, मैं ने उस लड़की की हत्या नहीं की हैं.”
“ गले से चैन किस ने खीची थी ? उसी चैन से उस लड़की का गला कटा था और वह मर गई, ” आत्मा ने जवाब दिया.
“ मगर एक छोटीसी गलती के लिए हत्या, छेडछाड जैसे आरोप और जेल की सजा ? यह तो सरासर गलत व नाइंसाफी है. यदि मै पैसेवाला होता तो जेल से छुट गया होता ?” मन ने कहा तो आत्मा ने जवाब दिया, “ तुम ने गलती तो की है. सजा तो मिलेगी ही. चाहे शारीरिक हो या मानसिक ?” तभी अँधेरी कालकोठारी में गन्दगी में पनपने वाले मच्छर ने उस के एक हाथ पर काट खाया. दूसरा हाथ तब तक उस मच्छर को मौत की सजा दे चूका था, “ गलती की सजा देना तो कुदरत का भी कानून है.”
आत्मा ने कहा तो मन पश्चाताप की आग में जलते हुए बोला, “ सजा केवल मुझे ही मिलेगी ?”
“ नहीं. सभी को."
तभी अंधेरे को चीरती हुई प्रहरी की आवाज़ आई. “राजन ! तुम्हारी माँ मिलने आई है.” जिसे सुन कर मन चीत्कार उठा, “ गलत आदत सिखाने वाली मेरी माँ नहीं हो सकती है ?” और वह कालकोठरी की अँधेरी राह को चुपचाप निहारने लगा.
तभी आत्मा ने कहा, “ माँ ! माँ होती है. अन्यथा वो यहाँ नहीं आती,” और वह खामोश हो गई.

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(4). डॉ विजय शंकर जी  

अँधेरी राह के हमसफ़र

मेरी बर्थ नीचे की थी , मैं आराम से मैगजीन लेकर बैठ चुका था। सामने की बर्थ पर एक माडर्न स्टाइलिश महिला थीं। शांत , चुप चाप सी , कुछ परेशान सी , अस्थिर। बार बार ऊपर देखती , फिर इधर - उधर, शायद उनकीं बर्थ ऊपर की थी। कुछ ही समय में एक आंचलिक दम्पत्ति सामान सहित आये , तेरह चौदह , कहते हुए , बैठ गए। मतलब सामने की दोनों बर्थ उन्हीं की थीं। मैं भी निश्चिन्त हो गया , ए सी टू की हम चारों की सीटों के पैसेंजर आ चुके थे। पर उनके आने से मैडम अचानक काफी असहज सी हो गयी। वे सज्जन स्वयं मेरी बगल में बैठ गए , सामने मैडम की बगल में उनकीं पत्नी बैठ गयीं।जीन्स - कोट में मैडम उस महिला से हट कर खिड़की की तरफ खिसकती जा रहीं थीं , वे शायद उनसे सीट बदलने तक के लिए बात करने में भी असहज हो रहीं थीं।
कहीं दूर से राजधानी आये वे दोनों पति पत्नी अब तक स्थापित हो चुके थे। उनकीं बातचीत से लग रहा था कि वे कुछ परेशान , खिन्न थे। वे किसी दूरस्थ स्थान से आये थे और राजधानी में काम भी कुछ बना नहीं था। कभी व्यवस्था को कोसते , कभी किसी आदमी को। ट्रेन धीरे धीरे स्टेशन छोड़ने लगी थी। उन लोंगों की खिन्नता अधिक मुखर होने लगी थी। काम बना नहीं था , आगे क्या करना है , समझ नहीं आ रहा था। संस्था के अन्य साथी तरह तरह के सवाल करेंगे तो वे क्या कहेंगे। इसी में परेशान थे।
मैं अपनी पत्रिका में कुछ पढ़ने में लग गया था।
ट्रेन अभी भी सुस्त चल रही थी , कब कंडक्टर आया , कब चला गया ,पता नहीं चला।उन पर ध्यान तब गया जब मैडम उनकीं बातों में शामिल हो चुकी थीं और पूरे उत्साह से उनकीं बातों में रूचि ले रहीं थीं। राजधानी का ही कोई दूसरा स्टेशन आया था , गाड़ी रुकी , फिर चली। मैडम की आवाज स्पष्ट थी , " नहीं , नहीं , आप परेशान न हों , हमारी कम्पनी पूरी जिम्मेदारी लेती हैं ,सारा डॉक्यूमेंटेशन हम करा देते हैं , पूरी गारेंटी के साथ , आप जो चाहो खरीदो , बांटों आपकी मर्जी , आपकी संस्था है। आप सेवा कर रहे हो। हम तो बस आपकी मदद करते कि आप इतनी दूर से यहां आकर कहाँ कहाँ भटकोगे। " स्थिति स्पष्ट हो रही थी , वे दोनों सामाजिक सेवा हेतु कोई केंद्र चला रहे थे , मैडम किसी ऐसी फर्म में काम करती थीं जो ऐसे संगठनों के हिसाब - किताब की देख-भाल करती हैं। दोनों का काम दूसरे से चलता है , मैडम अब पूरी तरह सहज और आश्वस्त थीं , दोनों पक्ष एक दूसरे से घुल-मिल चुके थे , आपस में एक दूसरे के मोबाईल नंबर ले रहे थे। ट्रेन ने पूरी रफ़्तार पकड़ ली थी। इंजन का हॉर्न सुनाई दे रहा था , शायद ड्राइवर रात के अँधेरे में पटरी-मार्ग पर आश्वस्त हो रहा था। इधर मेरे तीन सह-यात्री अपने अँधेरे मार्ग के साथी - हमसफ़र बन चुके थे। मैंने भी अपना मोबाईल चेक किया। किसी ने फेसबुक पर एक पोस्ट डाली थी , " सरकार ऍन जी ओस के प्रति सख्त " . ट्रेन का हॉर्न फिर बजा , उन तीनों की बातें गहरी होती जा रहीं थीं , मुझे नींद आ रही थी।

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(5). डॉ टी आर सुकुल जी  

ठोकर

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मिठाई का लालच देकर मेले में से चुराए गए एक गरीब किसान के बेटे गफलू को चोरों के सरदार धन्ना ने ऐसा ट्रेन्ड किया था कि उसके गिरोह के इस लड़के ने न केवल लोगों को परेशान कर रखा था बल्कि पुलिस की नाक में दम कर रखा था। अंधेरी रातों के मालिक, इस गिरोह में केवल गफलू का ही रिकार्ड था कि अभी तक एक भी रात ऐसी नहीं आई थी जिसमें उसे चोरी में सफलता न मिली हो। गफलू यह मानता था कि उसने धन्ना का नमक खाया है अतः जी जान से उसकी कीमत चुकाएगा। इस बार चोरी के लिए गफलू एक भीड़ भरे पंडाल में जा पहुॅंचा जहाॅं प्रवचनकर्ता कह रहे थे कि,
‘‘ इस प्रकार युद्ध में अजेय भीष्मपितामह और कर्ण मारे गए। वह दोनों, दुष्ट दुर्योधन के पापों को अपनी आॅंखों के सामने होते देखते रहे और एक बार भी नहीं टोक पाए क्योंकि वे सहज नैतिकता के प्रभाव में आकर यह मानते रहे कि उन्होंने उसका नमक खाया है। यदि उन दोनों ने सहज नैतिकता के स्थान पर आध्यात्मिक नैतिकता को अपनाया होता तो कह सकते थे कि, ठीक है तुम्हारा नमक खाया है इसलिए तुम्हें परामर्श दे रहा हॅूं कि पापकर्म छोड़कर समाज कल्याण करने का सही रास्ता पकड़ लो नहीं तो हम तुम्हारा साथ नहीं देंगे‘‘
इतना सुनकर गफलू के सुसंस्कार जागे और उसके दिमाग पर ऐसी ठोकर मारी कि वह वापस धन्ना के पास पहुँचकर बोला,
‘‘ ठीक है, तुम्हारा नमक खाया है इसलिए तुम्हें सुझाव दे रहा हॅूं कि पापकर्म छोड़कर समाज कल्याण करने का सही रास्ता पकड़ लो नहीं तो हम तुम्हारा साथ नहीं देंगे ‘‘
‘‘अबे! माल निकाल, कहाॅं है ? क्या आज बड़ा खजाना हाथ लग गया है जो बगावती सुर निकाल रहा है ?
‘‘ नहीं उस्ताद! खाली हाथ हूँ , आज कुछ नहीं मिला, पर बहुत कुछ पा गया हॅूॅं और मैं पुलिस के पास सरेंडर करने जा रहा हॅूं।‘‘

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(6). श्री तस्दीक अहमद खान जी  

रात का सफ़र 
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अमर ने रोज़ की तरह रात के दस बजते ही स्लीपर बस को स्टार्ट कर दिया ,कंडक्टर ने बस चलते ही जल्दी जल्दी मुसाफिरों के टिकेट चेक किए और उसके बाद ड्राइवर अमर के पास कॅबिन में पहुँच गया बस अपनी मंज़िल की तरफ बढ़ रही थी कि अचानक दो घंटे बाद एक यात्री अपनी सीट से उठ कर कॅबिन की तरफ बढ़ा और उसने अमर की कनपटी पर रिवाल्वर लगाने के बाद कहा

"आगे जहाँ बोलूं वहाँ गाड़ी रोक देना ''
अमर ने फ़ौरन स्थिति को भाँप लिया क्योंकि उसके साथ एसा पहले भी हो चुका था , उसने फ़ौरन कंडक्टर को आँख से इशारा करके ब्रेक लगा दिया , वो आदमी मुँह के बल गिर गया रिवॉल्वर हाथ से छूट गया ,कंडक्टर ने उसे दबोच लिया, अचानक ब्रेक लगने से मुसाफिरों को झटका लगा और जाग गये ,अमर ने उसके बाद बस आगे एक पुलिस चौकी पर खड़ी करदी ,उस आदमी को गिरफ्तार 
कर लिया गया अमर ने बस अपनी मंज़िल की तरफ रवाना करदी ,मुसाफिरों ने अमर का शुक्रिया अदा किया क्योंकि उसकी वजह से सबकी जान और माल की हिफ़ाज़त हुई है आसमान पर रात का मुसाफिर चाँद ज़मीन पर अंधेरी राहों के मुसाफिरों के कारनामों को हैरत से देख कर मन ही मन मुस्करा रहा था -------

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(7). श्री मनन कुमार सिंह जी  

रास्ते

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कालू भागता-भागता घर पहुंचा।बेटी सुधिया निढ़ाल पड़ी है।कपड़े अस्त-व्यस्त हैं,बाल बिखरे हुए।जोर-जोर से हाँफ रही है।हाथ में पाँच सौ और हजार के कुछ नोट फड़फड़ा रहे हैं।बहुत पूछने पड़ धीरे से बोल पायी,
-लाला के बेटे।
कालू सन्न रह गया।लाला के काम से ही तो वह कई दिनों से बैंकों के चक्कर काट रहा है।रधिया भी कतार में लग-लग कर बेहाल हुई जा रही है आजकल।क्या करे बेचारी?एक से निकलती है,फिर दूसरी कतार में लगना पड़ता है।शाम तक बीस हजार बदल लेना मजाक थोड़े ही है।आज दूसरी दफा कतार में जा पायी थी।दोपहर हो गयी थी।आगे-पीछे करने में मार-झोंटव्वल(झगड़ा) हो गयी।दोनों औरतें अब पुलिस थाने में पूछताछ का सामना कर रही हैं।दूसरी तो विधायक का काम करती है।वह संभाल लेगा।पर लाला कितना कुछ करेगा रधिया के लिए,यह सोच पाना उसे मुश्किल लग रहा था।अचानक सुधिया को हिचकी आयी।लगा पानी पियेगी।उसने उसे थोड़ा पानी दिया।वह पी नहीं सकी।उसका छोटका अभी डॉक्टर साहब को बुला कर आया नहीं।रधिया कराह रही है।वह पहले उसका कुछ उपचार कराये।फिर आगे की सोचे।तबतक छोटका दौड़ता हुआ आया।उसने जल्दी-जल्दी बेतान शुरू किया-
-बाबू, डॉक्टर साहब आने से मना किये हैं।कह रहे थे लाला के लोग आये थे,कह गये हैं कि कालू के घर नहीं जाना,नहीं तो खैर नहीं।
-कुछ और बोले डॉक्टर का रे छोटू?
-हाँ,कह रहे थे कि तेरी दूसरी मइया ने लाला के खिलाफ नोटों के मामले में गवाही
दी है।क्या करती बेचारी! लाला की सेवा-टहल में ही तो रही भर जवानी।बाद में कालू के गले बाँध दी गयी।विधायक ने अपनी नौकरानी को थाने से छुड़वा लिया।इधर लाला अपना नोट होने से मुकर गया।
कालू की भवें तन गयीं।उसने सुधिया की तरफ देखा।वह अब शांत हो चुकी थी।उसे किसी ईलाज की दरकार नहीं थी।कालू की मुट्ठियाँ कस गयीं।एक-एक बात उसे याद आ रही थी।कैसे लाला के लिए वह पत्थर फेंकता रहा।रैलियों में भीड़ जुटाता रहा,भीड़ बनता रहा।लाठियाँ भी खायी उसने,कई बार।बस इसी बात के लिए लाला उसे डराता रहा कि उसकी दूसरी शादी की पोल खोल देगा,कि रधिया उसकी रखैल रही है,बचपन से जवानी तक।बिरादरी में उसकी नाक कटवा देगा।आज भी कभी-कभी उसके यहाँ काम करने आती ही है।उसने छोटू से कहा-
-चल,दीदी की चारपाई उठाते हैं।
-कहाँ जायेंगे?
-थाने। हमनी त घर के अँधियारा भगावे खातिर अँधेरे रस्ते चले।अँधेरा त झोपड़ी तक आ गया।
-कवन अँधेरा बाबू?
-लाला का,उसके नोट का और नीयत की खोट का।
कोई बात नहीं।सब अपने-अपने रास्ते चलते हैं।

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(8). सुश्री प्रतिभा पाण्डेय जी

जवाब’

 

मनोज जब घर लौटा तो माँ  चहक चहक कर किसी से बाते कर रही थी I

“पहचाना  बेटा i राधा मौसी “I

राधा मौसी बारह तेरह साल पहले पास की खोली में रहती थी I माँ की पक्की सहेली थी , सगी बहन जैसी  I पति की मौत के बाद अपने पाँच साल  के बेटे को लेकर वो अपने  गाँव चली गई थी I

“हाँ हाँ पहचान लिया “ मनोज ने हाथ जोड़ दिए I आज पता नहीं क्यों उसका मन बहुत भारी  था I पर्दा लगा कर अलग किये खोली के हिस्से में जाकर वो अपने पलंग पर पड़ जाना चाह रहा था चुपचाप I

“ छोटू अब डॉक्टरी की परीक्षा में बैठने वाला है पता i राधा उसको कोचिंग दिलवाने के लिए इसी शहर में रहने आ गई है वापस I  हनुमान मंदिर के पास खोली भी ले ली है”I  मनोज की उदासीनता माँ को अच्छी नहीं लग रही थी I

“ छोटू ने बारवीं भी कर ली i मुझे तो वो ही छोटू याद है जो स्कूल जाने में रोता था और मै टॉफी का लालच देकर उसे स्कूल छोड़ कर आता था “I मनोज को बात चीत में शामिल देख माँ के चेहरे पर अब  तसल्ली थी I

“दिन रात मेहनत तो कर रहा है छोटू I  कोचिंग से आकर भी अपनी कोठरी में ही घुसा रहता है I पढ़ पढ़ कर आँखें सुजा ली हैं “I  मौसी की आवाज में चिंता थी I

“डॉक्टरी की परीक्षा भी कोई हल्की वाली नहीं होती है मौसी I  पर देखना जरूर निकलेगा अपना छोटू “I

“कमजोर भी बहुत हो गया है ,मुझसे भी ढंग से बात नहीं करता “I मौसी की आवाज़ भर्रा गई I

“ भगवान सब ठीक करेंगे “  माँ ने मौसी का हाथ अपने हाथ में ले लिया I  “ बीए के बाद पांच छःसाल मनोज भी कितना परेशान रहा था नौकरी के लिए I अब ठीक है सब भगवान की दया से “I  माँ ने ऊपर देखते हुए हाथ जोड़ दिए I

“ अब कहाँ नौकरी है ?”  मौसी  अब संयत थी I

“कोई सेठ के यहाँ है I है तो भागा दौड़ी की ही पर  पैसे ठीक मिल जाते हैं “I  मनोज के लिए वहां बैठना अब मुश्किल हो रहा था I

“ मै आता हूँ मौसी अभी “I

“ठहर मनोज “ मौसी अपना झोला टटोलने लगी  “ ये देख फोटो छोटू का I कहीं  टकरा जाए तो पहचान तो ले तू अपने छोटू को  I आने से पहले गाँव में ही खिचवाई थी”I

माँ के कंधे को घेरे युवा छोटू हँसता हुआ बहुत प्यारा लग रहा था I अचानक मनोज को लगा जैसे जलता कोयला हाथ में ले लिया है I

“ बहुत सुन्दर लग रहे हो आप दोनों “  फोटो मौसी को थमा भारी क़दमों से अपने पलंग तक पहुँच वो ढेर हो गया I

क्यों आज उस गिडगिडाते याचना करते बैचैन लड़के को देख उसका मन भारी हो गया था ,  क्यों उस लड़के को मारने के लिए उठे रज्जाक भाई के हाथ को  उसने पकड़ लिया था I हर ‘क्यों’ का जवाब अब आँसूं बनकर चादर को भिगो रहा था और रज्जाक भाई के शब्द  कानों में गूँज रहे थे I

“देख मनोज,  तुझे तो छः महीने ही हुए हैं ,मै चार साल से हूँ इसमें  I हलक के अन्दर हाथ डालकर पैसे निकालने पड़ते हैं इन छोरों से I  नशे के धंधे में दिल कमजोर रख कर काम नहीं चलता” I

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(9). श्री मोहम्मद आरिफ जी 

रफ़्तार की दीवानगी

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सुबह-सुबह जिसने भी यह खबर सुनी सन्न रह गया। झकझोर के रख दिया इस ख़बर ने। हरिओम जी को अब तक ख़बर पल्ले नहीं पड़ी थी। अपने बुद्धिजीवी साथी रमेशजी से पूछा जो पाठक जी के घर की ओर जा रहे थे।
हरिओम- ‘‘ज़रा ठहरना रमेशजी, माजरा क्या है, जो सभी पाठक जी के घर की ओर जा रहे हैं?
रमेश जी- ‘‘आपको नहीं पता?’’
‘‘जब मैं मार्निंग वाक से आया तो बहू ने बताया कि पाठक जी का आवारा बिगड़ैल, शराबी लड़का मनीष और उसका दोस्त सचिन नेशनल हाइवे पर नशे की हालत में तेज़ रफ़्तार बाइक चला रहे थे। रात के अंधेरे में भारी वाहन से टकराने से आॅन द स्पाॅट मारे गए। दोनों को नशे और तेज़ रफ़्तार की दीवानगी थी।’’ अब हरिओम भी सन्न थे।

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(10). सुश्री जानकी वाही जी   

फ़र्ज़ 
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" कई दिन से नज़र है तुझ पर मेरी, ये क्या बाँटता फिर रहा है इनको? गन्दगी फैला रहा है यहाँ।"
कहते हुए मजबूती से उसका हाथ पकड़ लिया पुलिस वाले ने।
" अरे ! मेरा हाथ छोड़ो ,इसमें क्या बुराई है ?मैं अपनी संस्था की ओर से ये काम कर रहा हूँ।"
" चल ये सफ़ाई अब थाने चलकर ही देना ,तुम जैसे लोग ही समाज़ को बिगाड़ रहे हैं।"
" आय -हाय थानेदार साहब इस भलेमानुष को क्यों परेशान कर रहे हैं। छोड़ दीजिए इनको।" झुण्ड को देख और थानेदार, सुनकर सिपाही थोड़ा नरम पड़ा।पर माना नहीं उसे थाने पहुंचाकर ही दम लिया।
" साहब ! ये आदमी कई दिन से किन्नरों को ये चीज़ बाँट रहा है।" कहते हुए सिपाही ने उसके झोले से ढेर सारे पैकेट निकाल कर इंस्पेक्टर की मेज पर रख दिए।
ढेर देखते ही इंस्पेक्टर की आँखें चौड़ी हो गई।
" क्यों बे ! ये क्या है ?" फाड़ खाने वाली आवाज़ थी उसकी।
" सर !जो भी है आपके सामने ही है।।"
" मुझे सिखा रहा है ?तुझे, मैं अँधा दिखाई दे रहा हूँ? तुझे शर्म नहीं आती किन्नरों के बीच समलैंगिगता फैलाते हुए ?" इंस्पेक्टर ने उसे घुड़का।
" सर ! फैला नहीं रहा हूँ , वे लोग अनजान मौत की गलियों में दौड़ रहे हैं ,हम तो उन लोगों की जान बचाने की कोशिश कर रहे हैं।"
"तुम क्या डॉक्टर हो ?"
"सर, हमारे न बाँटने से सच्चाई बदल तो नहीं जायेगी। हमारी संस्था तो उन्हें एच .आई.वी. के प्रति जागरूक करने की पहल कर रही है।"
" हूँ उ उ... "
इंस्पेक्टर ने हिक़ारत से ढेर को घूरते हुए कहा।
" सर ! वे भी हमारे ही भाई बन्धु हैं। हम तो अपना फ़र्ज़ अदा कर रहे हैं जिससे वे लोग अँधेरी गलियों से बच सकें। "
" वे बच्चे हैं क्या ?जो उन्हें समझाया जाय।समाज उन्हें पूछता नहीं और ये हैं कि ..."इंस्पेक्टर की आवाज़ में अब व्यंग था।
" सर , अगर वे समाज से तिरष्कृत तो क्या हम भी शुतुरमुर्ग की तरह आँख बन्द कर लें। "

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(11). श्री महेंद्र कुमार जी 

दूसरा अँधेरा

आख़िरी शब्द लिखते ही उसने गहरी सांस ली। फिर काग़ज़ के टुकड़ों को हाथ में लिया और मुस्कुराया। वह काफी रोमांचित था और इस बात से ख़ुश भी कि उसकी कविताएँ अब छपने के लिए तैयार थीं। उसने निश्चय किया कि वह कल सुबह ही शहर जा कर प्रकाशक से मिलेगा। पर इसके पहले वह अपनी सारी कविताएँ एक बार पढ़ लेना चाहता था।

जैसे-जैसे उसने कविताओं को पढ़ना शुरू किया वैसे-वैसे उसके सामने कुछ चित्र घूमने लगे; पहाड़ों, झरनों और झीलों का ख़ुशनुमा वातावरण, खिलखिलाती हँसी, जीवन से भरी ढेर सारी आशाएँ, उगता सूरज, फूलों की घाटियों से आती ख़ुशबू, शान्ति का सन्देश फैलाते कबूतर, ख़ूबसूरत चाँद को निहारता छोटा सा लड़का, कुत्ते के सर पर हाथ फेरता आदमी व उसके पैर को प्यार से चाटता वफ़ादार कुत्ता, एक दूजे का हाथ पकड़ समुद्र किनारे प्रेम का गीत गाते टहल रहे दो साये और जलते अलाव के पास खड़े तत्त्व सम्बन्धी बातें करते दार्शनिक। वह बहुत ख़ुश था।

तभी हवा का एक तेज झोंका खिड़की से आ कर उससे टकराया जिससे उसके हाथ में रखे पन्ने तेजी से पलटने लगे। उसे एक अजीब सी गंध वहाँ पर फैलती हुई प्रतीत हुई। वह सिहर गया। झोपड़ी में टंगी लालटेन ज़ोर-ज़ोर से हिल रही थी और उसकी रौशनी कविताओं के बीच से आ जा। न चाहते हुए भी उसकी आँखें फिर से उन कविताओं से गुज़रने लगीं। उसकी कविताओं में फैले हुए पहाड़ अब टूट रहे थे, झरने थम रहे थे, झीलें सूख रही थीं, खिलखिलाती हँसी रूदन बन रही थी तो आशाएँ निराशाओं का संगीत। सूरज डूबने लगा। कुछ लोग घोड़ी पर बैठकर घाटी में आये और माली की हत्या कर फूलों को लूट ले गए। कबूतर गिद्ध बनकर घाटी के ऊपर मँडराने लगे। ख़ूबसूरत चाँद जली हुई रोटी में बदल गया। तभी कुत्ते ने आदमी को ज़ोर से काटा। उसके मुँह से चीख़ निकल पड़ी। उसने कुत्ते की तरफ देखा। वह कुत्ता नहीं, उसका दोस्त था। सुमद्र किनारे टहल रहे जोड़े में से एक ने खंजर निकाला और दूसरे की पीठ पर घोंप दिया। वह वहीं गिर गया। खंजर वाले उस हाथ की चूड़ियों की खनखनाहट सुमद्र से उठती लहरों के शोर से भी तेज थी। अब तक धीरे-धीरे जल रहा वो अलाव अचानक तेज हो कर चिता में तब्दील हो गया। दार्शनिक शान्त हो कर मुर्दों में बदल गए। उन मुर्दों के बीच एक कवि बैठा था जो अपनी ही जलती हुई चिता पर कविता लिख रहा था।

वह गंध उन कविताओं से आ रही थी। उसने उन्हें झटक कर अपने हाथों से दूर फेंक दिया। मगर उस गंध में कोई कमी नहीं हुई। उससे बर्दाश्त नहीं हो रहा था। लगा कि वह मर जाएगा। वह इधर उधर कमरे में घूमने लगा। अचानक उसने लालटेन को उठाया और कविताओं पर दे मारा। कविताएँ जलने लगीं। धीरे-धीरे एक उजाला पूरे कमरे में फैलने लगा जिसमें उन कविताओं में लिखे शब्दों के साथ वह गंध भी लिपटी थी। अब वह पहले से और ज़्यादा थी। उसका सर चकराने लगा। गंध में लिपटा वह उजाला धीरे-धीरे इतना बढ़ गया कि अँधेरे में तब्दील हो गया। उसे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। वह गंध अब उसके नथुनों से होते हुए फेफड़ों तक जा पहुँची। वह हाँफने लगा और किसी तरह झोपड़ी से बाहर निकला। बाहर अमावस सी काली रात थी। वह जंगल की तरफ भागा। धूँ-धूँ कर जलती हुई उस झोपड़ी से प्रेम, विश्वास और करुणा जैसे चमकते हुए कुछ शब्द निकले और उसका पीछा करने लगे। उसने मुड़कर देखा और ज़ोर से चिल्लाया, "अब मैं तुम्हारी पकड़ में नहीं आऊँगा।" और फिर देखते ही देखते उस जंगल में ग़ुम हो गया।

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(12). श्री विनय कुमार जी 

कर्ज मुक्ति

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"चलिए राजूभाई, सब सामान ले लिया है", चचा ने बड़ी वाली डेकची उठायी और बाहर निकल गए| राजू ने भी झोले उठाये और पीछे पीछे चल दिया| बाहर खड़ी ऑटो में बैठ कर दोनों मंदिर के बाहर जाकर रुके|
रोज रात को मंदिर के बाहर बैठे भिखारियों और कुछ अन्य भूखे लोगों को भर पेट खाना खिलाना, दोनों का नियम था| जैसे ही दोनों सामान लेकर पहुंचे, लोग कतार में बैठ गए और अपने अपने पत्तल में खाना लेने लगे| खाना देकर दोनों किनारे बैठ गए और लोगों को खाते देखने लगे| 
चचा को याद आया, एक समय था जब उनके मोहल्ले में लोगों ने बहुत खरी खोटी सुनाई थी| सबसे ज्यादा दिक्कत उनको मंदिर के बाहर खाना खिलाने को लेकर थी, आखिर गैर मज़हबी होकर मंदिर के बाहर सेवा लोगों के गले नहीं उतरती थी| लेकिन उन्होंने कभी किसी की बात की परवाह नहीं की और इसी क्रम में उनको राजू मिला जिसको एक दिन उन्होंने यहीं खाना खिलाया था| 
चचा इसी सोच में डूबे हुए थे कि उनको थोड़ी दूर से एक बुजुर्ग महिला आती दिखीं| चचा लपक कर उठे और एक थाली में जल्दी जल्दी खाना निकाल कर उनकी तरफ बढे| बड़े प्यार से उन्होंने उस महिला को बिठाकर खाना दिया और वहीँ बैठ गए| राजू उनके पास आया और बोला "अरे चचा, माताजी खाना खा लेंगीं, मैं हूँ यहीं, आप चलकर ऑटो में बैठो"| 
चचा ने एक बार राजू को देखा और फिर खाना खाती बुजुर्ग महिला को देखा| फिर बहुत संतुष्टि भरी मुस्कराहट चहरे पर लाते हुए बोले "रहने दो राजूभाई, तुमको नहीं पता, इसी बहाने मैं इस मंदिर का कर्ज उतार रहा हूँ| इसी मंदिर के सामने मेरी माँ को किसी ने तब खाना खिलाया था, जब वो बेहद भूखी थीं"|
बुजुर्ग महिला खाना खा रही थीं, चचा उनको बेहद प्यार से देख रहे थे और आज राजू को भी इसका राज पता चल गया था| 

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(13). डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी 

अंधेरी राहों  के मुसाफिर

 

प्लेटफार्म पर गाडी खडी हुयी ही थी कि एक सजीला युवक मेरे पास आया और अपना ब्रीफकेस मुझे थमा कर बोला –‘अंकल ज़रा इसे देखिएगा , मैं अभी आया . इससे पहले कि मैं कुछ प्रतिक्रिया व्यक्त करता वह अंतर्धान हो गया. गाडी चल पड़ी और वह नहीं आया. स्टेशन दर स्टेशन गुजरते रहे पर युवक का कही पता न था. ब्रीफकेस को लेकर मेरे मन में अनेक शंकाये उत्पन्न हो रही थी. यहाँ तक कि मेरी मंजिल आ गयी. चारबाग स्टेशन पर चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात देखकर मुझे कुछ अचम्भा भी हुआ. ब्रीफकेस को लेकर मैं पहले से ही व्यग्र था. अचानक किसी ने मेरी जेब में हाथ डाल दिया. मैं संभलता इससे पहले ही हाथ डालने वाला फरार हो गया. मैंने जेब की सामग्री चेक की. कुछ भी गायब नहीं था. एक कागज़ का टुकडा अलबत्ता उसमे अलग से बरामद हुआ. उसमे लिखा था –‘Briefcase to home . no police . no smartness ‘ 

मेरा दिल काँप उठा, यह मैं किस अंधेरी राह में फंस गया. सावधानी बरतते हुए किसी तरह घर आया. ब्रीफकेस मुझे किसी संपेरे की टोकरी सा लग रहा था. लगभग दो घंटे बाद श्रीमती जी ने आकर सूचना दी –‘कोई सज्जन आपसे मिलने आये है, ड्राइंग-रूम में आराम फरमा हैं.’  मैं समझ गया वही युवक होगा . ब्रीफकेस लेकर मैं तुरंत वहां पहुंचा. मगर यह कोई और ही सज्जन थे . उतनी ही उम्र. वैसे ही सजीले. ‘अंकल, ब्रीफकेस लेने आया हूँ ‘- उसने बिना किसी प्रस्तावना के कहा –‘ आपका बहुत-बहुत शुक्रिया. इसमें दो करोड़ का माल था जो आप सुरक्षित लाने में कामयाब हुए ‘

’‘मगर --- यह  ब्रीफकेस मुझे आपसे तो नहीं मिला था ?’

‘सो व्हाट ? वह हमारी गैंग का दूसरा सदस्य था. आप यह पचास हजार रुपये  संभालिये और यदि आगे भी हमारी मदद के इच्छुक हों तो बताइए, आप कुछ ही दिनों में करोड़ों में खेलने लगेंगे, पर सोच लीजिये इस राह में entrée तो है exit नहीं है .

मुझे लगा मेरी शरीर पर हजारों बिच्छू रेंग रहे हैं. मैं किन्कर्तव्यविमूढ़ सा हो गया. अंधेरी राहों  के मुसाफिर मुझे भी अपनी राह पर घसीटने को आतुर थे. पर अब तक मैंने अपने को संभाल लिया था . मैंने पचास हजार की गड्डी वापस करते हुये उससे दृढ स्वर में कहा  –‘नो, थैंक्स जेंटलमैन, जो कुछ हुआ आपका प्लान था पर मेरे लिए महज एक इत्तेफाक. मुझे आपके प्रस्ताव में कोई रूचि नहीं है .’

युवक चला गया पर जाते-जाते सावधान कर गया-‘ Uncle .  Please Keep it up to you for sake of your life .’

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(14). सुश्री सीमा सिंह जी 

अगला मक़ाम

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"माँ तुमसे मिलना चाहती हैं, पारसI" उसने अपनी अस्त व्यस्त साड़ी का पल्लू संभालते हुए कहाI
"माँ से क्यों? मेरा मतलब, तुम्हारी माँ मुझसे क्यों मिलना चाहती हैं?"
पारस को हड़बड़ाया देख उसकी हँसी छूट गयी।
अचानक बाज़ार में हुई मुलाक़ात इतने अपनेपन में बदल जाएगी, ये तो उसने खुद भी न सोचा था। पारस का साथ उसे दवाओं से ज्यादा फायदा दे रहा था। जो दौरे दुनिया भर के इलाज़ से ठीक नहीं हुए वह पारस से मिलने के बाद कभी पड़े ही नही। इसीलिए उसकी मनोचिकित्सक माँ ने भी कभी उनको मिलने से रोका नहीं।
"पारस, शादी कब करोगे?" आँखों में चमक आ गई थी उसके। "बताओ न, शादी कब करोगे?"
"पहले ये बताओ, तुम्हारी माँ क्यों मिलना चाहती हैं मुझसे?"
बेड पर लेटे हुए पारस ने उसकी आँखों में झाँका।
"अरे, मेरे बैग से टेबलेट गिर गई जो माँ ने देख ली। बस तब से तुमसे मिलने की रट लगाये है!"
"ओह! तुमको ऐसी चीज़ें सम्भाल कर रखनी चाहिए..."
"अरे, हो गई गलती! तुम माँ से मिलोगे तो?"
स्वर के साथ-साथ आँखों में भी अविश्वास तैर गया।
"हाँ, हाँ! मिल लूंगा कभी भी, आखिर को वो तुम्हारी माँ है।" पारस ने उसे अपनी तरफ खींचते हुए कहा।
"तुम शादी कब करोगे, ये तो बताओ।" उसकी बेचैनी स्वर में उतर आई थी।
"अरे, कर लूंगा शादी भी! इतनी जल्दी क्या है? थोड़ा लाइफ तो एन्जॉय कर लें।"
उसके चेहरे पर ऊँगली फिराते हुए पारस की आँखे नशीली हो उठी थी। करीब खींचना चाहा तो उसने रोक दिया।
"क्या तुम हमेशा मुझसे ऐसे ही प्यार करते रहोगे? कहीं बदल तो नहीं जाओगे, पारस?”
"न मेरा प्यार ही बदलेगा, और न हमारे मिलने की जगह ही बदलेगी।”
“मैं कुछ समझी नहीं...”
“एक नया फ्लैट ले लिया है मैंने। इस मकान में तुम रहोगी, और मेरी वाइफ नए फ्लैट में।”

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(15). श्री सुधीर द्विवेदी जी 

गैर-जरूरी
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"ओए ! तू किधर भागा जा रहा है, आज़ इत्ती जल्दी दुकान काहे बन्द कर दी...?" लालू को हड़बड़ाहट में साईकिल पर सवार होते हुए देख सोहना ने गली से ही आवाज़ लगाई ।
"चच्चा सरकारी कोटा वाला चावल फिनिश हुई गवा है!अब बाज़ारी रेट पर मिलेगा !" साईकिल पर सवार होते-होते लालू ने सोहना से पीछा छुड़ाने का जतन किया।
"ठीक है, ठीक है सुन तो! बाज़ारी भाव ही ले ले..! जमाई जी आये है; नाक कट जायेगी जो आज़ घर में चावल न पका।" सोहना गली के मुहाने से ही हाथ हिलाते हुए रिरियाया।
"चच्चा ! फोर-जी सिम कनेक्शन लेने जा रहा हूँ।अब तो नाम-मात्र के पैसों में बात होगी। ऊपर से इंटरनेट भी मुफ़्त ! उसी से फ़ोन करके तुम्हे बुला लूँगा। अभी टाइम नही है।" कहते हुए लालू ने साईकिल आगे बढ़ा दी।
" चल हट! कोई मुफ्त में देता है कुछ?" हाथ में झोला लटकाए-लटकाए लगभग दौड़ते हुए सोहना गली से निकल कर अब सड़क पर लालू के क़रीब आ पहुँचा।
" कस्सम से चच्चा ! एक्को धेला नही देना पड़ेगा।" ब्रेक लगा कर एक पैर से साईकिल साधते हुए लालू ने अपनी बात की पुरज़ोर हिमायत की।
"ऐसा कौन दानवीर हुआ है जो..?" सोहना बोल ही रहा था कि लालू ,उसका कन्धा थपथपाते हुए चहक उठा।

" बहुत बड़ा कारोबारी है। कहता है कि इंटरनेट बहुत जरूरी है और यह हर देशवासी का हक़ है।अपने हक़ के लिए मैं किसी को पैसा नही खर्चने दूँगा।"
"अच्छा!! पर चावल तो ज़्यादा जरूरी है..।" सोहना गम्भीर होते हुए बुदबुदाया फ़िर फ़ौरन लालू की ख़ुशामद करते हुए बोला।

" हमारा लालू क्या कोई छोटा व्यापारी है भला! चल मुफ़्त न सही पर तू मुझे सरकारी भाव पर ही चावल दे देना।"
सोहना का आग्रह सुनकर लालू पल भर के लिए सकपका गया फ़िर "आखिर आप बुड्ढे लोग कब तक चावल-दाल में ही अटके रहोगे? इंटरनेट का जमाना है चच्चा! इंटरनेट का!" कहते हुए साईकिल दौड़ा दी।
कुछ पलों तक ख़ामोश खड़े रहने के बाद निराश सोहना, जरूरी-गैरजरूरी के हिसाब में उलझ कर धीरे-धीरे वापस उसी तंग गली में गुम होता जा रहा था।

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(16). श्री सतविन्द्र कुमार जी 

आत्मग्लानि

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रतन काफी दिनों में अपनी बहन से मिलने गया।
"नमस्ते जीजी!"
"नमस्ते भाई! रतनू बड़े दिनों बाद याद आई,हमारी।"
बहन के चेहरे पर दर्द-सा झलक रहा था।उससे रहा न गया तो,"दीदी आप ठीक नहीं लग रही हो,कोई दिक्कत है क्या?"
"हाँsssss,अरे नहीं सब ठीक है।",वह बात को घुमाती हुई सी बोली।
"तू सुना,सब ठीक है न?और घर पर सब?"
वह सामान्य होने की कौशिश कर रही थी,पर भावुकता उसके शब्दों से साफ़ झलक रही थी।
रतन ने पुनः आग्रह किया,"जीजी!आप मुझसे कुछ छुपा रही हैं।बताओ न क्या हुआ?अपने भाई को भी नहीं बताओगी।"
अब वह अपने भावावेश को नहीं रोक पाई और फूट पड़ी।फिर सम्भलते हुए बोली,"तुम्हारे जीजा जी के जाने के बाद बड़ी मुश्किल से सम्भाला था खुद को।उनके इंश्योरेंश के पैसे से काम शुरु किया था,बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और घर खर्च ठीक-ठाक चला पा रही थी।"
"जी जी मैं जानता हूँ।आप में बड़ी हिम्मत है और आपने बड़े अच्छे से सब सँभाल भी लिया है।फिर..?"
"मैंने जो पैसा अपने बैंक खाते में जमा करवाया था वह अब नहीं रहा?मेरी सारी मेहनत लूट गई भाई।"
बोलते-बोलते वह फिर रोने लगी।
"एक फोन आया था बैंक से कि मेरा एटीएम बन्द होने वाला है।उन्होंने मुझसे जो पूछा मैंने बता दिया।उसके बाद मेरे खाते से सारे रुपए उड़ गए।मैंने एटीएम से पैसे निकलवाने की कौशिश की तो खाता खाली दिखाया।बैंक से मालूम हुआ कि मेरे साथ ठगी हुई है।"
"जी जी...।",अचंभित सा वह इतना ही बोल पाया।
"भैया!ऐसे कैसे कोई ठगी हो गई? मेरी तो समझ में ही सही से नहीं आ रहा।बैंक वाले कहते हैं कि किसी भी अनजान को अपने बैंक खाते के बारे में नहीं बताना चाहिए।ऐसे फोन बैंक से नहीं आते।",मासूमियत से वह बोलती ही जा रही थी।
रतन को उसकी बातें तीर की तरह चुभती हुई महसूस हो रही थी।उसे लग रहा था कि उसकी बहन को यह जख्म उसी ने दिए हैं।आत्मग्लानि से भर गया था।
उसका हृदय चित्कार उठा।अंदर से आवाज आई,"यह तेरे ही कर्मों का फल है।तूने भी तो इसी काम से मासूमों को.....।नहीं अब और नहीं।"
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(17). श्री सुनील वर्मा जी  

अँधेरगर्दी
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घूमने के लिए विदेश गया वह परिवार छुट्टियाँ पूरी होते ही वापस होटल से एअरपोर्ट के लिए निकला। साथ बैठे बच्चे ने रास्ते में अपने बैग से चिप्स का पैकेट निकाला और खाना शुरू कर दिया। इच्छित खाद्य सामग्री समाप्त होने पर उसने पैकेट को मोड़कर खिड़की से बाहर फेंकना चाहा। खिड़की का शीशा नीचे उतारते समय पास बैठी उसकी माँ की नजर सामने लगे सूचना पट्ट पर जुर्माने संबधित सूचना पर गयी।
उसने शीशा वापस चढाया। जुर्माने का भय संस्कार बनकर बाहर निकला। मुड़े हुए पैकेट को बच्चे के बैग में रखते हुए उसने कहा "अच्छे बच्चे सड़क पर कचरा नही डालते।"
नियत समय पर अपने देश पहुँचकर वे अपनी गाड़ी द्वारा एअरपोर्ट से अपने घर के लिए निकले। अभी कुछ दूरी ही तय की थी कि बच्चे ने लघुशंका की इच्छा जाहिर की। माँ ने गाड़ी चालक से गाड़ी को साईड में रोकने के लिए कहा। गाड़ी रुकते ही बच्चे के साथ साथ उसका पिता भी बाहर निकला। बच्चे के निवृत्त होने पर माँ ने उसके हाथ धुलाकर उन्हें पोंछने के लिए उसके बैग से रूमाल निकालनी चाही। रूमाल के साथ साथ बैग से मुड़ा हुआ पैकेट भी बाहर आया।
"इसे अभी तक लेकर क्यूँ घूम रहा है ?" कुछ देर पहले संस्कारों से भरकर रखा पैकेट माँ ने बाहर फेँकते हुए कहा।
प्रयोजन समाप्त होने पर बच्चे का पिता भी गाड़ी में वापस बैठ ही रहा था कि पास से एक दूसरी गाड़ी गुजरी, जिसकी खिड़की से मुँह बाहर निकालकर एक महिला उल्टी कर रही थी। हवा के वेग से कुछ छींटे उस पर पड़े तो गुस्से से तिलमिलाते हुए उसने पीछे से आवाज लगायी "नॉनसेंस...!! इतनी भी तमीज नही है। इस देश में भी न, कैसी अँधेरगर्दी मची हुई है।"
गुस्से से कपड़े झाड़ते हुए उसके गाड़ी में वापस बैठते ही गाड़ी अपने गंतव्य की और चल पड़ी। पीछे सड़क पर अपशिष्ट रूप में पड़े दोनों तरल पदार्थ सड़क किनारे अँधेरे में चमक रहे 'स्वच्छता अभियान' के सूचना पट्ट को मुँह चिढा़ रहे थे।

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(18). श्री शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी 

लम्बा सफ़र 

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.एक ही कॉलेज के स्नातकोत्तर उपाधिधारी दस-बारह सहपाठी एक लिखित परीक्षा में सम्मिलित होने के लिए लम्बे सफ़र पर ट्रेन से लखनऊ जा रहे थे। अच्छी लॉज में ठहरने व बेहतरीन मनचाही व्यवस्थाओं के इरादों के साथ रुपयों का साझा संग्रह एक साथी के पास करा ही दिया गया था। उनमें से कुछ युवक अपनी कसी हुई पोषाकों में से स्मार्ट फ़ोन निकाल कर इन्टरनेट की आभासी दुनिया में व्यस्त हो गए। कुछ सेल्फ़ी वग़ैरह लेने लगे। फिर दो-चार युवक अपनी प्रतियोगिता परीक्षाओं की क़िताबें निकाल कर पन्ने पलटने लगे। किन्तु उनके कुछ साथी मस्ती का माहौल बनाने की कोशिश करने लगे। तभी एक युवक ने कोहनी मारते हुए अपने दोस्त से कहा-

"अबे, उधर तो देख, क्या नज़ारे हैं!"
"श..श..श.. चुप रह, अभी कुछ करता हूँ!" कुछ संकेत कर वह दोस्त अपने दो साथियों से खुसुर-पुसुर करने लगा।
एक थकी-हारी सी युवती मासूम बच्ची की तरह पास की ही एक सीट पर गहरी नींद में बेसुध सो रही थी। दो युवकों ने उसके अस्त-व्यस्त कपड़ों को थोड़ा-थोड़ा सरकाते हुए अपने कैमरों से फोटो लिए। युवती करवट बदलती हुई सिकुड़ने लगी। एक-दो ने उसे छूने की कोशिश भी की। क़िताब पढ़ रहे एक साथी ने आपत्ति की।
"लल्लू, या तो तू चुप रह कर कुछ सीख ले हमसे, या सीट बदलवा ले अपनी!" एक युवक बोला।
फिर दूसरे ने सिगरेट का कश लेते हुए कहा-

"लगता है कि पहली बार निकले हो ऐसी टोली के साथ! जितना मिलता जाये, मज़े लेते चलो! लम्बा सफ़र है!"
"लम्बा सफ़र! तुम्हारे करिअर का, बेरोज़गारी का या मौज़-मस्ती का!" उस युवक ने अपनी क़िताब बंद करते हुए कहा- "लल्लूू, उल्लू ख़ुद को बना लो या माँ-बाप को!"

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(19). श्री प्रदीप पाण्डेय जी 

उजाले की ओर

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"  क्यों शर्मा जी ,हम आये और आप उठ कर चल दिएI "

" ऐसा कुछ नहीं है माजिद भाई , चाय ख़त्म हो गई अब बैठ कर क्या करें I"

" तो  क्या हुआ ,  एक चाय और सही I कल रात रैली में आप भी तो खूब चिल्ला रहे थे, गला बैठ गया होगाI"

" देखिये i हम क्या करते हैं इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है आपको "I

" बिलकुल है ,  आप मित्र हैं हमारे बचपन के और अगर गलत लोगों के साथ उठेंगे  बैठेंगे  तो हमारी फ़िक्र वाजिब है I आपकी माताजी को हम मौसी कहते थे  ,  ये तो पता ही है आपको "I

"  और उस रिश्ते की आपने कितनी लाज रखी है i  जिन लोगों के साथ आजकल आप दिखते हैं , जिनकी तोड़ने वाली बातों का आप विरोध नहीं करते हैं   ..अगर आपकी अम्मी और हमारी माँ आज जिन्दा होती तो क्या  उन दोनों को ये अच्छा लगता I "

" अंकल हमने स्कूल में क्राफ्ट में मोमबत्तियां बनाई हैं I  इनको बेचकर जो पैसे मिलेंगे वो अनाथालयों के लिए भेजे जायेंगे I  प्लीज खरीद लीजियेI " स्कूल के दो तीन बच्चे चाय की दुकान में आ गए थे I

"  अरे क्या i ये स्कूल वाले भी आज कल बच्चों को  कहाँ कहाँ लगा देते हैं I"  शर्मा जी चिढ कर बोले I

" रुकना बच्चे ,   इधर आ .ला  दो मोमबत्तियां दे दे I" चाय वाला जेब में हाथ डालते बोलाI 

"तू क्या करेगा इनका? कैंडल लाइट डिनर पर ले जाएगा क्या घरवाली को? माजिद भाई की बात पर शर्मा जी भी खिल खिला पड़े I

" आप लोगों के लिए ले रहा हूँ  I"  चाय वाले की आवाज गहरी थी I

" अब ग्यानी जी ये भी बता दें आप कि हमें इनकी क्यों जरूरत है I"  शर्मा जी मुस्कुराते हुए चाय वाले को देख रहे थे I

"मेरी तो आँखें  दो भाइयों को अलग करने की  चालो को देख पा रही हैं पर  आप दोनों  नहीं देख पा रहे हैं I इसीलिए मैंने आप दोनों के लिए ये ..I"   उसकी बात पूरी होने से पहले माजिद भाई ने बढ़कर उसके हाथों को पकड़ लिया I

" बस ..बस I"  वो भरे गले से बोले I

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(20). डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी जी

खरीदी हुई तलाश

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उस रेड लाइट एरिया में रात का अंधेरा गहराने के साथ ही चहल-पहल बढती जा रही थी। जिन्हें अपने शौक पूरे करने के लिये रौशनी से बेहतर अंधेरे लगते हैं, वे सभी निर्भय होकर वहां आ रहे थे। वहीँ एक मकान के बाहर एक अधेड़ उम्र की महिला पान चबाती हुई खोजी निगाहों से इधर-उधर देख रही थी कि सामने से आ रहे एक आदमी को देखकर वह चौंकी और उसके पास जाकर पूछा,

"क्या हुआ साब, आज यहाँ का रास्ता कैसे भूल गए? तीन दिन पहले ही तो तुम्हारा हक़ पहुंचा दिया था।"

सादे कपड़ों में घूम रहे उस पुलिस हवलदार को वह महिला अच्छी तरह पहचानती थी।

“कुछ काम है तुमसे।” पुलिसकर्मी ने थकी आवाज़ में कहा।

“परेशान दिखाई दे रहे हो साब, लेकिन तुम्हें देखकर हमारे ग्राहक भी परेशान हो जायेंगे, कहीं अलग चलकर बात करते है।”

वह उसे अपने मकान के पास ले गयी और दरवाज़ा आधा बंद कर इस तरह खड़ी हो गयी कि पुलिसकर्मी का चेहरा बंद दरवाजे की तरफ रहे। पुलिसकर्मी ने फुसफुसाते हुए पूछा:

"आज-कल में कोई नयी लड़की... लाई गयी है क्या?"

"क्यों साब? कोई अपनी है या फिर..." उस महिला ने आँख मारते हुए कहा।

"चुप... तमीज़ से बात कर... मेरी बीवी की बहन है, दो दिनों से लापता है।" पुलिसकर्मी का लहजा थोड़ा सख्त था।

उस महिला ने अपनी काजल लगीं आँखें तरेर कर पुलिसकर्मी की तरफ देखा और व्यंग्य से मुस्कुराते हुए कहा,

"तुम्हारे जैसों के लालच की वजह से कितने ही भाई यहाँ आकर खाली हाथ लौट गए, उनकी बहनें किसी की बीवी नहीं बन पायीं और तुम यहीं आकर अपनी बीवी की बहन को खोज रहे हो!"

और वह सड़क पर पान की पीक थूक कर अपने मकान के अंदर चली गयी।

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(21). योगराज प्रभाकर 

अनाम सिपाही 
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बचपन से ही जिनको लेखन में अपना आदर्श माना था, उस महान फ़िल्मी गीतकार का निमंत्रण मिलते ही युवा शायर मक़बूल के चेहरे पर रौनक आ गईI उनके दफ्तर पहुँचते ही दिल बल्लियों उछल रहा थाI अपने गीतों और गजलों का जो पुलिंदा वह उन्हें देकर गया था वह कई महीने धूल फांकता रहा थाI लेकिन आज अचानक जब उन्होंने रचनाएँ पढीं तो वे चकित रह गए थेI हर रचना एक दूसरे से बढ़कर प्रभावशाली थीI मौलिक सोच और लेखन की गहराई चौंका देने वाली थीI हर गीत का एक एक बंद संगीतमयी था, ग़ज़लें ऐसी कि सीधे दिल में उतर जाएँI एक एक शब्द जैसे कुशलता से तराशा गया होI 

"प्रणाम सर!" कमरे में प्रवेश करते ही उत्साहपूर्वक उनके पाँव छूते हुए युवा लेखक ने कहाI
"आओ आओ बैठोI" उन्होंने सोफे की तरफ इशारा करते हुए कहाI
"मेरी रचनाएँ पढ़ीं सर आपने?" उनके हाथ में आपनी फ़ाइल देख कुछ झिझकते हुए उसने पूछाI
"हाँ, मैंने तुम्हारी रचनाएँ देखींI अच्छी हैं, लेकिन..I"

"लेकिन क्या सर?"

"मुझे नहीं लगता कि अभी तुम्हारी शायरी फिल्मों के काबिल हैंI"
"मैं बहुत आस लेकर आया था सर! बहुत देर से इस शहर में धक्के खा रहा हूँI"
"मैं तुम्हारी मदद तो करना चाहता हूँ, मगर...."
"मैंने हमेशा आपको अपना आदर्श माना हैं सर, इसलिए आपकी छत्रछाया चाहता हूँI
"ये इतना आसान नहीं मेरे दोस्तI"  
"बरसों से दिल में यही तमन्ना है कि आपके साथ काम करूँI"
"देखो, वैसे तो मुश्किल हैI मगर हाँ! अगर तुम चाहो तो एक रास्ता हैI"
"कैसा रास्ता सर?"
"यही, कि तुम मेरे साथ नहीं मेरे लिए काम करोगेI गिव एंड टेक के बारे में तो सुना ही होगा तुमनेI"        
"सुना तो है, लेकिन मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँI"
"सीधी सी बात है, काम तुम्हारा होगा और नाम मेराI"
"लेकिन सर.."
"घबराओ मत, उसके बदले में जो दाम मिलेगा उसमे तुम्हारा भी हिस्सा होगाI"
"इसके इलावा मुझे और क्या करना होगा?" पराजित से स्वर में उसने पूछा।
"कुछ भी नहीं! बोलो मंज़ूर है?”

मकबूल ने स्वीकृति में केवल सिर हिलाया और अपने आदर्श की कुटिल मुस्कान देख मन ही मन बुदबुदाया:  
"अब अपना नाम बदल कर गुमनाम रख ले मक़बूलI"

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(22). सुश्री बांसल जी

चिंता

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बस गंतव्य की ओर बढ़ रही थी । बाहर का दृश्य स्पष्ट दिखे, इसलिए बस के भीतर की सारी बत्तियाँ बंद कर दी गई थीं । प्रत्येक सीट पर इक्का-दुक्का सवारी निद्रालीन थीं ।वह भी घुटनों को पेट से चिपकाये उकड़ूँ सो रही थी । रात्रि का द्वितीय प्रहर... उसे महसूस हुआ , कोई उसकी पीठ पर अंगुलियाँ फिरा रहा है ।उसने झटके से आँखे खोली और पलटकर पीछे की सीट देखी । सड़क पर चल रही दूसरी गाड़ियों के प्रकाश में उसे एक पुरुष आकृति गहरी नींद में सोते हुए दिखी ।" शायद मुझे नींद में भ्रम हो गया है।क्या जिंदगी है हमारी भी , न घर में बेफिक्र हो सो पातीं हैं , और ना बाहर ही ..." खुद से ही बतियाती हुई वह पुनः लेट गई , लेकिन सतर्कता और मन के डर ने उसे सोने नहीं दिया ।कुछ क्षण और बीते होंगे , सीट की जोड़ वाली खाली जगह से उसे दोबारा अपने शरीर पर कठोर हाथ का दबाव महसूस हुआ ।वह झटके से उठकर बैठ गई ।पुरुष को खुद को संभालने के लिए उतना वक़्त पर्याप्त था । वह अभी भी सोने का उपक्रम किये हुए था ।डर से उसका शरीर काँपने लगा । संस्कार और शर्म के कारण जुबान तालू से चिपक गई ।वह सामने की सीध की सीट पर सोये पिता को जगाकर उसके साथ क्या घट रहा है, ये बताने की भी हिम्मत न जुटा पाई ।अब सोना मूर्खता थी ।उसने दोनों पैर सीट पर मोड़े ,चादर से खुद को कसकर लपेटा और पानी की बोतल मुँह से लगा ली ।
" क्या हुआ लच्छो , सोई नहीं अभी तक ?" पिता कब पास आकर बैठ गए , उसे पता ही नहीं चला ।
" वो ... झटके बहुत लग रहे हैं न बस में , इसीलये नींद नहीं आ रही " पिता की आवाज़ सुन उसे बहुत राहत मिली । परंतु शब्दों में अभी भी कंपन था ।" पर आप क्यों उठ गए पिताजी ?"
पिता ने एक तीक्ष्ण दृष्टि पीछे की सीट पर डाली ," लड़की आधी रात को भी जाग रही हो तो किस पिता को नींद आएगी बेटी ?" पानी की बोतल उसके हाथ से लेते हुए पिता ने कहा ।

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(23). सुश्री नयना आरती कानिटकर जी 

दिशाहीन

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चौराहे पर  "स्टाप" सिग्नल को देख गाड़ी रोकी ही थी कि तभी पास ही एक एक्टिवा  भी खचाक से आकर रुकी तो सहसा ध्यान उसकी तरफ़ मुड़ गया, उस पर सवार दोनो लड़कियों ने अपने आप को आपस मे कस के पकड़ रखा था। कंधे से उतरती-झुलती टी-शर्ट और जांघे दिखाती  पेंट के साथ पिछे वाली के हाथ में जलती सिगरेट देख वो दंग रह गई।

एक कश खुद लगा छल्ले आसमान मे उडा दिये और आगे हाथ बढा ड्रायविंग सीट पर बैठी लड़की के होंठो से लगा दिया । उसने भी जम के सुट्टा खींचा, तभी सिग्नल के हरे होते ही वे हवा से बातें करते फ़ुर्र्र्र्र हो गई। उन्हें देख संवेदना  जडवत हो गई थी, पिछे से आते हॉर्न की आवाज़ों से मानो  वो अवसाद से  बाहर आयी । 
पास से गुजरने वाला हर शख्स व्यंग्य से उसे  घुरते निकलता और कहते आगे बढ़ता कि गाड़ी चला नही सकती तो...

" अरे! लेकिन देखो तो इन लड़कियों को।  सारी शर्म हया बेच खायी है इन लोगो ने।  इज़्ज़त मिट्टी मे ...  है।"--सुलभा गुस्से मे थरथरा उठी।"

"अरे ! आंटी गाड़ी आगे बढाओ।"--पिछे से एक नौजवान चिल्ला रहा था।

 ये सब तो अब आम बात है। अब लड़कियाँ भी कहा लड़कों से कम है।

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(24). सुश्री नीता कसार जी

नेकी कर

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मुझे कुछ नही सुनना,एक बार कह दिया सो कह दिया,पिता की बरसी पर कंबल नही बाँटेंगे ।ये मैंने फैसला किया है,अब आगे कुछ नही सुनना ।हम भजन संध्या कर लेंगे,सस्ते में निपट जायेंगे ।
घर में चल रही है बैठक में पिता का एलान सुन सब स्तब्ध हो गये।फिर भी बड़े बेटे ने अपना पक्ष रखा ।
हम हमेशा दादाजी की बरसी पर ग़रीबों को कंबल बाँटते आये है।आप ही कहते थे ना उनकी आत्मा को शांति मिलेगी ।हाँ कहा था मैंने पर अब ये लोग बहुत होशियार हो गये है।कंबल बेच देते होंगे ।जानते हो तुम।पिता ने दलील रखी ।
फिर तो विचार करना चाहिये कि क्या भजन संध्या से दादाजी और हमारे मन को ही शांति मिलेगी पर कंबल बाँटने से तो दिल से निकली दुआयें मिलेगी,जब कोई चीज़ हमने दे दी तो वह जो चाहे करे, उनकी मर्ज़ी ,माहौल में सन्नाटाछा गया।
पिता को समझ आने लगा बेटा मानेगा नही,स्वत:तेवर ढीले हो गये ।
हमें क्या करना चाहिये खुलकर कहो मुकुंद बेटा ?वक्त की नज़ाकत अनुभवी आँखों ने पढ ली ।
हम हर ज़रूरतमंद को कंबल बाँटेंगे क्या सस्ता क्या मंहगा,दादाजी ने आप पर अपना कीमती समय ख़र्च किया है फिर कैसी कंजूसी ।हम उनका बोया ही तो खा रहे है ।

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(25). श्री लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला जी

करोडपति बनने का स्वप्न    

.

यार कैलाश, मै रोज सोचता था कि मै सुबह से शाम तक दूकान में कुछ नहीं कमा पाता और रमेश को सेठ ने अहमदाबाद में गद्दी सम्भला उसे वहां साझेदार बना लिया | उसकी माँ भी उसकी बड़ाई करते नहीं थकती थी | अब राज खुला कि सेठ का हवाला का कारोबार है और अहमदाबाद में चांदी के व्यापार की गद्दी तो नाम की थी | बाजार से लोगो से पैसे उधार लेते रहे और लोग अच्छे ब्याज के लालच में देते रहे, क्योकि वह ब्याज सबको हर माह निमित रूप से दे रहा था | अब लोग घर पर इक्कठे होकर अपना पैसा मांग रहे है और रमेश कहाँ गायब हो गया पता ही नहीं |

   कैलाश बोला - देखो मुझे तो पहले भी उसका काम समझ नहीं आ रहा था | व्यापारियों से पैसे उधार लेकर अपनी माँ के पास ही रखवाता था तो माँ को पूछना चाहिए था ये इतनी बड़ी रकम आये दिन कैसे और कहाँ से कमा कर ला रहा है | अब एक सप्ताह गायब रहने के बाद अपने शरीर पर चाक़ू के घाव दिखाकर आत्म-ह्त्या का नाटक रच रात को अचानक प्रकट हो गया | उचित ध्यान न देकर माँ-बाँप ही लालच में अपने बेटे को गलत रास्ते जाने से नहीं रोकते तभी वह गलत संगत में पड़ता है | एक कहावत है कि “चोर को नहीं चोर की माँ को पकड़ो” | कोई भी व्यक्ति रातो रात करोडपति बनने के सपने देखे, पर सीधे तरीके से बन नहीं सकता | उन्नति को कोई शोर्ट कट नहीं होता |

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(26). सुश्री कल्पना भट्ट जी
सवेरा होगा


पन्द्रह साल का शंकर अपनी माँ के साथ एक टूटी फूटी झुग्गी में रहता था । रोज़ तड़के दोनों कचरा बीनने चले जाते थे और अपना गुज़ारा जैसे तैसे करते थे ।
बस्ती क्योंकि बड़ी थी , आये दिन के झगडे फसाद , गाली गलौच , जुआ खेलना वहां की दिनचर्या में शामिल था | बड़ों की देखा देखी में बस्ती के बच्चे भी उनकी नक़ल करने लगे थे |
शंकर को यह सब पसंद न था | बस्ती में गिने चुने ही उसके दोस्त थे जिनसे उसकी बातें होती थी |
"यार सुखिया, क्या कोई रास्ता नहीं है कि आप और हम भी कुछ पढ़ लिख सकें ? " शंकर ने अपने दोस्त से पूछा |
" बात तो तू पते कि कर रहा है शंकर , पढ़ना लिखना तो मैं भी चाहता हूँ , पर अपनी बस्ती में हमको पढ़ने कौन देगा ? मेरा बाप तो रोज़ दारू पीकर घर में तमाशा करता है , माँ को मारता है , वो क्या पढ़ायेगा अपुन को ! "
" मैं भी यही सोच रहा हूँ सुखिया , ले दे के माँ ही तो है , यह कचरा उठाते उठाते वो भी थक गयी है , बेचारी कुछ बोलती नहीं पर कभी कभी वह मुझसे कहती है बेटा , काश मैं तुमको पढ़ा पाती | कुछ तो करना ही होगा जिससे मैं माँ का सपना पूरा कर सकूँ | "
सड़क पर चलते हुए दोनों एक दूसरे से बाते कर रहे थे | चलते हुए उन्होंने देखा , एक जगह बहुत भीड़ थी , काफी गरीब बच्चे वहां खड़े हुए थे |
शंकर से न रहा गया उसने वहां खड़े हुए एक बच्चे से पूछा , " क्या हो रहा है यहाँ ? इतनी लम्बी लाइन क्यों लगी है ?"
उस बच्चे ने कहा , " वो देखो , वहां जो लोग बैठे हुए न , वो सब सेठ लोग हैं , इन लोगों ने अपने कुछ लोगों को हमारी बस्ती में भेजा था , यह कहकर कि आस पास कि बस्तियों से बच्चों को यहाँ ले आओ , जो पढ़ना चाहते है , उनलोगों की पढ़ाई हम करवाएंगे | उनको एक समय का खाना भी देंगे | "
शंकर उस बच्चे की तरफ देखने लगा | ये लोग ऐसा क्यों कर रहे हैं आज तक तो कोई यहाँ नहीं आया , तभी अंदर से एक आदमी बाहर आया और चिल्लाया , " आओ सब आ जाओ , सेठ लोग सवेरा लेकर आये हैं , बस्ती वालों का भाग्य खुलेगा | अब तक इनकी तिजोरियों में पैसा पड़ा सड़ रहा था , देर से ही सही पर अब इनको ...।"

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(इस बार कोई भी रचना निरस्त नहीं की गई है अत: किसी आदरणीय सदस्य की रचना यदि संकलन में सम्मिलित होने ने रह गई तो अविलम्ब सूचित करें)

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हार्दिक आभार भाई विजय जोशी जीI 

आदरणीय महोदय ,
मित्रों के सुझावों का आदर करते हुए क्रमांक ५ पर संकलित की गयी मेरी कथा को मैं इस प्रस्तुत करना चाहता कृपया निवेदन स्वीकार करें।

ठोकर
====
मिठाई का लालच देकर मेले में से चुराए गए एक गरीब किसान के बेटे गफलू को चोरों के सरदार धन्ना ने ऐसा ट्रेन्ड किया था कि उसके गिरोह के इस लड़के ने न केवल लोगों को परेशान कर रखा था बल्कि पुलिस की नाक में दम कर रखा था। अंधेरी रातों के मालिक, इस गिरोह में केवल गफलू का ही रिकार्ड था कि अभी तक एक भी रात ऐसी नहीं आई थी जिसमें उसे चोरी में सफलता न मिली हो। गफलू यह मानता था कि उसने धन्ना का नमक खाया है अतः जी जान से उसकी कीमत चुकाएगा। इस बार चोरी के लिए गफलू एक भीड़ भरे पंडाल में जा पहुॅंचा जहाॅं प्रवचनकर्ता कह रहे थे कि,
‘‘ इस प्रकार युद्ध में अजेय भीष्मपितामह और कर्ण मारे गए। वह दोनों, दुष्ट दुर्योधन के पापों को अपनी आॅंखों के सामने होते देखते रहे और एक बार भी नहीं टोक पाए क्योंकि वे सहज नैतिकता के प्रभाव में आकर यह मानते रहे कि उन्होंने उसका नमक खाया है। यदि उन दोनों ने सहज नैतिकता के स्थान पर आध्यात्मिक नैतिकता को अपनाया होता तो कह सकते थे कि, ठीक है तुम्हारा नमक खाया है इसलिए तुम्हें परामर्श दे रहा हॅूं कि पापकर्म छोड़कर समाज कल्याण करने का सही रास्ता पकड़ लो नहीं तो हम तुम्हारा साथ नहीं देंगे‘‘
इतना सुनकर गफलू के सुसंस्कार जागे और उसके दिमाग पर ऐसी ठोकर मारी कि वह वापस धन्ना के पास पहुँचकर बोला,
‘‘ ठीक है, तुम्हारा नमक खाया है इसलिए तुम्हें सुझाव दे रहा हॅूं कि पापकर्म छोड़कर समाज कल्याण करने का सही रास्ता पकड़ लो नहीं तो हम तुम्हारा साथ नहीं देंगे ‘‘
‘‘अबे! माल निकाल, कहाॅं है ? क्या आज बड़ा खजाना हाथ लग गया है जो बगावती सुर निकाल रहा है ?
‘‘ नहीं उस्ताद! खाली हाथ हूँ , आज कुछ नहीं मिला, पर बहुत कुछ पा गया हॅूॅं और मैं पुलिस के पास सरेंडर करने जा रहा हॅूं।‘‘
मौलिक और अप्रकाशित

यथा निवेदित तथा प्रस्थापित 

आ योगराज सर, बहुत बहुत बधाई एक और सफल और बेहतरीन आयोजन के लिए| मुझे खेद है कि मैं बाद में रचनाएँ नहीं पढ़ पाया और टिपण्णी भी नहीं कर पाया लेकिन अब उन्हें पढूंगा| नव वर्ष की शुभकामनाएँ और बहुत बहुत बधाई आप सब को 

आदरणीय मंच संचालक महोदय, आपके मार्गदर्शन व वरिष़्ठ साथियों की सार्थक टिप्पणियों के आधार पर अपनी लघुकथा का परिमार्जित रूप अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रहा हूं। सफल प्रयास हो, तो कृपया संकलन में 18वें स्थान पर इसे प्रतिस्थापित कर दीजियेगा---

लम्बा सफ़र (लघुकथा) :

एक ही कॉलेज के स्नातकोत्तर उपाधिधारी दस-बारह सहपाठी एक लिखित परीक्षा में सम्मिलित होने के लिए लम्बे सफ़र पर ट्रेन से लखनऊ जा रहे थे। अच्छी लॉज में ठहरने व बेहतरीन मनचाही व्यवस्थाओं के इरादों के साथ रुपयों का साझा संग्रह एक साथी के पास करा ही दिया गया था। उनमें से कुछ युवक अपनी कसी हुई पोषाकों में से स्मार्ट फ़ोन निकाल कर इन्टरनेट की आभासी दुनिया में व्यस्त हो गए। कुछ सेल्फ़ी वग़ैरह लेने लगे। फिर दो-चार युवक अपनी प्रतियोगिता परीक्षाओं की क़िताबें निकाल कर पन्ने पलटने लगे। किन्तु उनके कुछ साथी मस्ती का माहौल बनाने की कोशिश करने लगे। तभी एक युवक ने कोहनी मारते हुए अपने दोस्त से कहा- "अबे, उधर तो देख, क्या नज़ारे हैं!"

"श..श..श.. चुप रह, अभी कुछ करता हूँ!" कुछ संकेत कर वह दोस्त अपने दो साथियों से खुसुर-पुसुर करने लगा।

एक थकी-हारी सी युवती मासूम बच्ची की तरह पास की ही एक सीट पर गहरी नींद में बेसुध सो रही थी। दो युवकों ने उसके अस्त-व्यस्त कपड़ों को थोड़ा-थोड़ा सरकाते हुए अपने कैमरों से फोटो लिए। युवती करवट बदलती हुई सिकुड़ने लगी। एक-दो ने उसे छूने की कोशिश भी की। क़िताब पढ़ रहे एक साथी ने आपत्ति की।

"लल्लू, या तो तू चुप रह कर कुछ सीख ले हमसे, या सीट बदलवा ले अपनी!" एक युवक बोला।

फिर दूसरे ने सिगरेट का कश लेते हुए कहा- "लगता है कि पहली बार निकले हो ऐसी टोली के साथ! जितना मिलता जाये, मज़े लेते चलो! लम्बा सफ़र है!"

"लम्बा सफ़र! तुम्हारे करिअर का, बेरोज़गारी का या मौज़-मस्ती का!" उस युवक ने अपनी क़िताब बंद करते हुए कहा- "लल्लूू, उल्लू ख़ुद को बना लो या माँ-बाप को!"

यथा निवेदित तथा प्रस्थापित 

बहुत-बहुत शुक्रिया मेरी परिमार्जित रचना की त्वरित प्रतिस्थापना हेतु आदरणीय श्री योगराज प्रभाकर जी।

यदि आप भी उचित समझें तो मेरी इस लघुकथा की पहली पंक्ति के शब्दों // एक ही कॉलेज के स्नातकोत्तर उपाधिधारी // के स्थान पर ये शब्द कर दीजियेगा--

एक ही कॉलेज की स्नातकोत्तर कक्षाओं के

//एक ही कॉलेज के स्नातकोत्तर उपाधिधारी दस-बारह सहपाठी एक लिखित परीक्षा में सम्मिलित होने के लिए लम्बे सफ़र पर ट्रेन से लखनऊ जा रहे थे। अच्छी लॉज में ठहरने व बेहतरीन मनचाही व्यवस्थाओं के इरादों के साथ रुपयों का साझा संग्रह एक साथी के पास करा ही दिया गया था।//

मुझे लगता है कि यह प्रारंभिक पंक्तियाँ कुछ कमज़ोर रह गई हैं भाई उस्मानी जी:

//एक ही कॉलेज के स्नातकोत्तर उपाधिधारी दस-बारह सहपाठी एक लिखित परीक्षा में सम्मिलित होने के लिए लम्बे सफ़र पर ट्रेन से लखनऊ जा रहे थे।//

1.एक कॉलेज के हों कि अलग-अलग से इसे क्या फर्क पड़ता है?

2.स्नातकोत्तर का ज़िक्र क्यों ज़रूरी है? लिखित परीक्षा देने जा रहे पढ़े लिखे होंगे, यह तो शीशे की तरह साफ़ ही है.

3.लखनऊ का ज़िक्र क्यों?  

// अच्छी लॉज में ठहरने व बेहतरीन मनचाही व्यवस्थाओं के इरादों के साथ//

अच्छी लॉज या बेहतर व्यवस्था तो हर कोई चाहेगाI आपने इस कथा में लड़कों की परीक्षा के बहाने मौज-मस्ती करने को उभारना है, इसलिए यहाँ लॉज के साथ पब या बार का ज़िक्र करके बात में दम पैदा किया जा सकता हैI 

पुन: मार्गदर्शन हेतु सादर हार्दिक आभार। दरअसल आंख़ों देखी घटना पर काफी आधारित रचना में केवल यह उभारना चाहा है कि "मध्यमवर्गीय" परिवार के ग्रेजुएट हो चुके अगली एक ही कक्षा के छात्र जब लिखित परीक्षा देने दूर के केन्द्र हेतु लम्बे सफर पर समूह में जाते हैं तो परीक्षा देने के साथ ही अवसर का यथासंभव अधिक लाभ लेते हुये मज़े भी लेना चाहते हैं। पब या पूल का मकसद नहीं। एक ही कक्षा के न होने पर ऐसी हरकत बोगी में करने की हिम्मत नहीं करते। इसी कारण "आरक्षित" का प्रयोग भी पूर्व में किया था।
आपके बिन्दु को समझ रहा हूं। उन शब्दों को हटा भी सकते हैं। जैसा आप निर्देश दें। सादर।
आदरणीय योगराज भाई साहब शुक्रिया आप का लघुकथा प्रतिस्थापित करने के लिए.
आदरणीय योगराज सर, "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी, अंक-21" के सफल आयोजन, सञ्चालन एवं तीव्र संकलन हेतु आपको हार्दिक बधाई। आपसे विनम्र निवेदन है कि क्रमांक 11 पर स्थित "बदबूदार उजाला" नामक लघुकथा को निम्नलिखित लघुकथा "दूसरा अँधेरा" से प्रतिस्थापित कर दीजिए। मैंने लघुकथा में संपादन के साथ-साथ शीर्षक को भी बदल दिया। अतः आपकी एक दृष्टि अपेक्षित है, यदि आपको समय मिले तो। बहुत-बहुत धन्यवाद। सादर।

दूसरा अँधेरा

आख़िरी शब्द लिखते ही उसने गहरी सांस ली। फिर काग़ज़ के टुकड़ों को हाथ में लिया और मुस्कुराया। वह काफी रोमांचित था और इस बात से ख़ुश भी कि उसकी कविताएँ अब छपने के लिए तैयार थीं। उसने निश्चय किया कि वह कल सुबह ही शहर जा कर प्रकाशक से मिलेगा। पर इसके पहले वह अपनी सारी कविताएँ एक बार पढ़ लेना चाहता था।

जैसे-जैसे उसने कविताओं को पढ़ना शुरू किया वैसे-वैसे उसके सामने कुछ चित्र घूमने लगे; पहाड़ों, झरनों और झीलों का ख़ुशनुमा वातावरण, खिलखिलाती हँसी, जीवन से भरी ढेर सारी आशाएँ, उगता सूरज, फूलों की घाटियों से आती ख़ुशबू, शान्ति का सन्देश फैलाते कबूतर, ख़ूबसूरत चाँद को निहारता छोटा सा लड़का, कुत्ते के सर पर हाथ फेरता आदमी व उसके पैर को प्यार से चाटता वफ़ादार कुत्ता, एक दूजे का हाथ पकड़ समुद्र किनारे प्रेम का गीत गाते टहल रहे दो साये और जलते अलाव के पास खड़े तत्त्व सम्बन्धी बातें करते दार्शनिक। वह बहुत ख़ुश था।

तभी हवा का एक तेज झोंका खिड़की से आ कर उससे टकराया जिससे उसके हाथ में रखे पन्ने तेजी से पलटने लगे। उसे एक अजीब सी गंध वहाँ पर फैलती हुई प्रतीत हुई। वह सिहर गया। झोपड़ी में टंगी लालटेन ज़ोर-ज़ोर से हिल रही थी और उसकी रौशनी कविताओं के बीच से आ जा। न चाहते हुए भी उसकी आँखें फिर से उन कविताओं से गुज़रने लगीं। उसकी कविताओं में फैले हुए पहाड़ अब टूट रहे थे, झरने थम रहे थे, झीलें सूख रही थीं, खिलखिलाती हँसी रूदन बन रही थी तो आशाएँ निराशाओं का संगीत। सूरज डूबने लगा। कुछ लोग घोड़ी पर बैठकर घाटी में आये और माली की हत्या कर फूलों को लूट ले गए। कबूतर गिद्ध बनकर घाटी के ऊपर मँडराने लगे। ख़ूबसूरत चाँद जली हुई रोटी में बदल गया। तभी कुत्ते ने आदमी को ज़ोर से काटा। उसके मुँह से चीख़ निकल पड़ी। उसने कुत्ते की तरफ देखा। वह कुत्ता नहीं, उसका दोस्त था। सुमद्र किनारे टहल रहे जोड़े में से एक ने खंजर निकाला और दूसरे की पीठ पर घोंप दिया। वह वहीं गिर गया। खंजर वाले उस हाथ की चूड़ियों की खनखनाहट सुमद्र से उठती लहरों के शोर से भी तेज थी। अब तक धीरे-धीरे जल रहा वो अलाव अचानक तेज हो कर चिता में तब्दील हो गया। दार्शनिक शान्त हो कर मुर्दों में बदल गए। उन मुर्दों के बीच एक कवि बैठा था जो अपनी ही जलती हुई चिता पर कविता लिख रहा था।

वह गंध उन कविताओं से आ रही थी। उसने उन्हें झटक कर अपने हाथों से दूर फेंक दिया। मगर उस गंध में कोई कमी नहीं हुई। उससे बर्दाश्त नहीं हो रहा था। लगा कि वह मर जाएगा। वह इधर उधर कमरे में घूमने लगा। अचानक उसने लालटेन को उठाया और कविताओं पर दे मारा। कविताएँ जलने लगीं। धीरे-धीरे एक उजाला पूरे कमरे में फैलने लगा जिसमें उन कविताओं में लिखे शब्दों के साथ वह गंध भी लिपटी थी। अब वह पहले से और ज़्यादा थी। उसका सर चकराने लगा। गंध में लिपटा वह उजाला धीरे-धीरे इतना बढ़ गया कि अँधेरे में तब्दील हो गया। उसे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। वह गंध अब उसके नथुनों से होते हुए फेफड़ों तक जा पहुँची। वह हाँफने लगा और किसी तरह झोपड़ी से बाहर निकला। बाहर अमावस सी काली रात थी। वह जंगल की तरफ भागा। धूँ-धूँ कर जलती हुई उस झोपड़ी से प्रेम, विश्वास और करुणा जैसे चमकते हुए कुछ शब्द निकले और उसका पीछा करने लगे। उसने मुड़कर देखा और ज़ोर से चिल्लाया, "अब मैं तुम्हारी पकड़ में नहीं आऊँगा।" और फिर देखते ही देखते उस जंगल में ग़ुम हो गया।

हार्दिक आभार सर ! कार्यालयी परिस्थितियों के कारण आयोजन में सक्रिय नहीं रहा पाया , जिस हेतु क्षमा-प्रार्थी हूँ | परन्तु आयोजन में अपनी उपस्थिति का भरसक प्रयत्न करता रहूँगा | ओ बी ओ परिवार दिन-दूनी , रात-चौगुनी उन्नति करे , यही अभिलाषा है | सादर 

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