आदरणीय साथिओ,
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भाई उस्मानी जी, आप अच्छा भला लिखते लिखते अचानक उलझ क्यों जाते हैं? कथा एक विधवा हुई बहू के अपनी सास से संवाद से शुरू होती है, लेकिन वहां न केवल अनावश्यक विवरण ही है बल्कि विरोधाभास भी है. देखिए:
//"तुमने अपने ग़रीब पिता का नाम तो ससुराल में रोशन किया लेकिन शायद मैं तुम्हारे पिता से किया वादा पूरी तरह नहीं निभा सकी!"//
सास ने बहू के पिता से क्या वायदा किया था? अगर कोई किया भी होगा तो इस कथा के संदर्भ में उसके ज़िक्र का क्या औचित्य है?
बहू को गरीब पिता की बेटी बताया गया है, साथ ही यह भी कहा गया है:
//मैं जानती हूँ मेरी तरह तुमने भी अब तक सिर्फ़ दौलत और सुविधायें ही देखीं हैं, बस !//
इन दो स्टेटमेंट्स में विरोधाभास नहीं है क्या? खासकर जब इसमें “अब तक” कहा गया है, इससे यह नहीं लगता कि बहू हमेशा ही हर तरह का वैभवपूर्ण जीवन जीती आई हो?
बहरहाल अपनी बहू के भविष्य को लेकर एक ढहते किले की तरह सास का दर्द भी बखूबी उभर कर सामने आया है (इसे और भी प्रभावशाली तरीके से उभारा जा सकता था) जिस हेतु आपको हार्दिक बधाई.
भाई उस्मानी जी, ज़ाहिर है कि इस कथा में सास-बहू में काफी प्यार हैI सास अपनी बहू के भविष्य को लेकर बहुत चिंतित है, यहाँ ढहते हुए किले का रूपक सास पर सटीक बैठता हैI जैसा कि मैंने पहले भी अर्ज़ किया है कि सास के दर्द को और ज्यादा उभारा जा सकता था (इस कथा की पूँछ मरोड़कर), अब देखिए:
//"....आपके विद्यालय की सृजन स्थली में ख़ुद को खपा दूंगी !"//
सास ने चिंता ज़ाहिर की और बहू ने उपरोक्त उत्तर दे दियाI ज़रा सोचें कि जिस जायदाद और विद्यालय के आसरे बहू सारा जीवन काट देने की बात कर रही है, अगर वह सब गिरवी पड़े हों (जिसका सास को भलीभांति पता भी हो) तो कैसा रहे? इससे ढहते किले का दर्द बहुगुणित होगा कि नहीं?
बहुत बढ़िया रचना प्रदत्त विषय पर, बहुत बहुत बधाई आपको
आदरणीय उस्मानी जी, आपने प्रदत्त विषय के अनुरूप बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है. इस हेतु हार्दिक बधाई. आदरणीय योगराज सर के मार्गदर्शन अनुसार आप त्रुटियों को सुधार ही लेंगे. इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई. सादर
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