आदरणीय साथिओ,
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बहुत बढ़िया रचना विषय पर, हाँ दुस्साहस की जगह कुछ उपयुर्क्त शब्द लिखा जा सकता है| बहुत बहुत बधाई आपको
प्रवाह के विपरीत
उसकी नई नई नौकरी थी , अभी एक सप्ताह भी नहीं हुआ था कि ऑफिस के सारे रंग-ढंग उसे समझ में आने लगे। सेवा भाव तो कहीं दूर-दूर तक उसे नज़र नहीं आया। हाँ , अपनी अपनी मेवा बनाने में सब लगे रहते थे। बड़े जतन , बड़े परिश्रम और बड़े-बड़े तिकड़म , सब किये जाते। कहीं किसी से न कोई डर , न किसी से कोई कुछ छुपाव। जैसे , सब देख कर भी हर कोई दूसरे के मामले में बिलकुल अंजान बना रहता है। सुना था , लोग सरकारी पैसे का हेर-फेर करते हैं पर यहां तो पूरे का पूरा खेल साफ़ है। वह बैठा बैठा सब सोच रहा था कि अचानक उसे अपने चाचा के मित्र का ख्याल आया , जो इसी कार्यालय में कुछ उच्च पद पर हैं। उसने निर्णय किया आज घर जाने से पहले उनसे जरूर बात करेगा। शाम भीड़ कम होने पर वह उनके कक्ष में गया और जो कुछ देख रहा था सब उन्हें साफ़ साफ़ बता दिया कि क्या कुछ कैसे कैसे होता है , जैसे कहीं किसी को किसी का लेश-मात्र भी डर नहीं। कोई यह भी नहीं सोचता कि कहीं कोई उसकी शिकायत न कर दे। उनके चेहरे पर कहीं कोई भाव नहीं आये , वरन , असीम शांत भाव से उन्होंने बताया कि ये सब एक ही धारा में बहने वाले लोग हैं , सब एक से , एक प्रवाह में बह रहे हैं। साथ बहने वालों में कोई किसी के लिए बाधा नहीं बनता , बल्कि अपने अपने बहने में लगा रहता है। कोई आपस में टकराव नहीं होता क्योंकि बहाव ही सबको बहा रहा है। एक पारस्परिक भय मुक्त व्यवस्था बन जाती है। हाँ कठिनाई तब आती है जब इस धारा - प्रवाह में कोई बहाव के विपरीत चलने का साहस करता है।
" कैसी कठिनाई " वह पूछ बैठा।
" कोई ख़ास नहीं , सब मिल कर उसे बहाव में बहने को बाध्य करते हैं और यदि वह नहीं मानता तो उसे रास्ते से हटा भी देते हैं।"
उनके उत्तर से वह अंदर तक सहम गया , फिर भी पूछ बैठा , " मतलब " ?
" मतलब कुछ ख़ास नहीं , उसका ट्रांसफर कहीं दूर करवा देते है , नहीं तो उसे कहीं फंसा देते हैं। वह अपने आप धारा में आ जाता है " .
वह चुपचाप आकर अपनी सीट पर बैठ गया।
मौलिक एवं अप्रकाशित
आदरणीय विजयशंकरजी आप ने लघुकथा में बहुत ही उम्दा विषय उठाया है. यह विषय बिलकुल नया है. इस हेतु आप बधाई के पात्र है. लघुकथा में विवरण बहुत ज्यादा आने से इस का प्रभाव थोड़ा कम हो रहा है. यह मेरा निजी विचार है. इस से आप सहमत हो, यह जरूरी नहीं है. वैसे लघुकथा का कथानक बहुत जोरदार है.
नौकरशाही का कटु सत्य .. कथा में धारा और प्रवाह जैसे शब्द बार बार आने से बचा जा सकता था I कुछ अनकहा पाठकों के समझने के लिए छोड़ देने से प्रभाव दोगुना हो जाता है ....हार्दिक बधाई आपको इस कथा के लिए आदरणीय डॉ विजय शंकर जी ...सादर
अच्छी लघुकथा वह होती है जो विसंगति को प्रकट करने के साथ ही यदि समाधान न सुझाए तो कम से कम इस ओर इशारा तो करे ही . यहाँ नायक का सब कुछ सुनकर चुपचाप बैठ जाना क्या प्रदर्शित करता है , मैं नहीं समझ पाया ! सादर
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