आदरणीय साथिओ,
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आदरणीय सर ! मैं भी तो यही कहना चाह रहा हूँ कि स्पष्ट तो हो कि नायक चुपचाप क्यूँ बैठ गया ? चुपचाप बैठ जाने से तो यही निष्कर्ष निकाल लिया जाता है . यह माना कि लघुकथाओं में कुछ पाठको को अपने हिसाब से समझने के लिए अनकहा छोड़ दिया जा सकता है , परन्तु यदि इसे उस मोड़ पर छोड़ा जाय जहां पाठको को सकारात्मक सोचने का मौका मिले तो मेरे विचार से यह अधिक सही रहेगा | सादर
विवरणात्मक शैली में प्रदत्त शीर्षक धारा के विपरीत को पानी के बहाव के बिम्ब से परिभाषित करती लघु कथा अपना सन्देश छोड़ने में कामयाब है किन्तु खेद है की देश में आज की व्यवस्था में तो यही धारा बह रही है जिसके साथ सब बह रहे हैं विपरीत कोई विरले ही बह रहे हैं एक सार्थक कटाक्ष करती हुई लघु कथा बहुत बहुत बधाई आद० डॉ० विजय शंकर जी
अच्छी लघुकथा कही है आ० डॉ विजय शंकर जी,हार्दिक बधाई प्रेषित हैI भाई सुनील वर्मा जी की कई बातों से मैं भी सहमत हूँI पहला पैरा अनावश्यक विस्तार ले गया है, यदि चाचा के दोस्त के साथ एकाध संवाद दे दिया जाता तो रचना चुस्त हो जातीI उसका चुपचाप सीट पर आकर बैठ जाना उसके धारा के विपरीत होने की बनिस्बत पलायनवादी दृष्टिकोण को अधिक उभार रहा हैI बजाय चुपचाप बैठ जाने के यदि पात्र से कोई प्रबलतीव्र संवाद कहलवाया जाता तो शायद प्रदत्त विषय कहीं बेहतर ढंग से परिभाषित होता, सादरI
हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ विजय जी।सुन्दर लघुकथा।आजकल अधिकांश विभागों में ऐसी ही स्थितियां देखने को मिलती हैं।नये लोग लीक से हट कर चलने की चेष्टा करते हैं लेकिन माहौल अपने विरुद्ध होता देख वे भी उसी प्रवाह में बहने लगते हैं।बेहतरीन संदेश।सादर।
आदरणीय डॉ. विजय शंकर सर, व्यवस्था के दोष को उजागर करती बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है. एक दफ्तर में नए कर्मचारी का आना और एक अनुभवी कर्मचारी का उसे व्यवस्था के विषय में समझाना कि या तो प्रवाह के साथ बहते जाओ तब तक सब ठीक है लेकिन विपरीत गए तो फेक दिए जाओगे. यह दृश्य विभिन्न माध्यमों में कितनी ही बार देखने, सुनने और पढने में आया है. कथ्य की तुलना में शाब्दिक विस्तार अधिक लग रहा है. प्रस्तुति कथोपकथन शैली में होती तो और भी ज्यादा प्रभावी लगती. रचनाकार क्या कहना चाहता है यह इस वाक्य से ही स्पष्ट हो जाता है-//उसकी नई नई नौकरी थी , अभी एक सप्ताह भी नहीं हुआ था कि ऑफिस के सारे रंग-ढंग उसे समझ में आने लगे। सेवा भाव तो कहीं दूर-दूर तक उसे नज़र नहीं आया। हाँ , अपनी अपनी मेवा बनाने में सब लगे रहते थे। // इसके बाद आभास हो जाता है कि कोई सिस्टम के बारे में बताएगा कि जो सिस्टम में नहीं आता उसे आदि आदि झेलना पड़ता है. फिर भी पाठक 'कुछ ख़ास' की उम्मीद में पूरी प्रस्तुति को पढ़ता है. और अंततः खाली हाथ रह जाता है उसे कुछ नहीं मिलता. अभी प्रस्तुति लघुकथा का कच्चा माल है यानी केवल रचनाकार की सोच में प्लाट बना है उसे अभी लघुकथा बनना है. बहरहाल इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. सादर
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