आदरणीय साथिओ,
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बहुत ही शानदार लघुकथा हुई है आदरणीय। समाज को रिश्तों की मर्यादा निर्धारित करती हुई कहानी। बहुत बहुत बधाई।
हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ गोपाल नारायन जी।एक बेहद पेचीदा विषय उठाकर आपने लघुकथा का सृजन बड़ी खूबसूरती और शालीनता के साथ किया। इस प्रकार के विषय पर लिखना एक कठिन कार्य है जिसे आपने बखूबी अंज़ाम दिया।बहुत सुंदर।
ख़ुराफ़ाती
हिसाब ,किताब का समय शुरू हो चुका था। एक -एक करके सबका किया धरा सामने आने लगा।आज मुकर जाने की स्थिति किसी की भी ना थी। हर बात के सबूत और गवाह मौजूद थे ।इतने पर भी किसी के साथ नाइंसाफी ना हो ,इसलिये वे अंग जिनकी जुबान नहीं होती ,उन्हें जुबान दे दी गयी ।
"अब जिसको जो कहना है अपनी सफाई में ,वह निडर होकर कह सकता है"ज़मीन और आसमान के सबसे बड़े न्यायधीश बोले।
सबसे पहले आँख बोली, "मेरा काम सिर्फ देखना था।किसे देखूं ,किसे नहीं,क्या देखूं ,क्या नहीं इसका फैसला मेरे हांथों में कभी नहीं रहा"
"और मेरा भी काम सिर्फ सुनना था। फैसला तो आँख की तरह मेरे बस में भी कभी नहीं रहा "कान ने अपनी सफाई दी।
"हे जगन्नाथ !कुछ ऐसा ही हाल हम सब का भी है। इस बार हाथ ,पैर और पींठ एक साथ बोले"
"हम सब बेक़सूर है ...,बेकसूर हैं।"सब एक साथ दुहाई देने लगे।
हाथ ,पैर और पीठ ने तो वह जख्म भी दिखाए ,जो उन्हें किसी और की खुराफात के चलते मिले थे।
"आप सब शांत हो जाईये ।यहाँ सिर्फ न्याय होगा । किसी के भी साथ रत्ती भर नाइंसाफी नहीं होगी ।बल्कि आप सब के गुनाहगार को कड़ी से कड़ी सजा दी जाएगी ।" ये सुन कर सब की जान में जान आ गयी ।लेकिन
दिमाग के पसीने छूट गये।
मौलिक एवं अप्रकाशित
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भरोसे की भैंस
एक साल की कहकर पूरे तीन साल बाद वतन लौटे अरशद के घर पर मिलने वालों का ताँता लगा हुआ था । उससे मिलने वाले हर इन्सान के पास सवालों की लंबी फेरहिस्त थी। अतीत की बदसूरत तस्वीर को याद करके वह उन सवालों के जबाब देते हुए बीच बीच में रो पड़ता था|
खुशनसीब था जो किसी की मेहरबानी और रहमदिली की वजह से वापस आ गया ।वरना वहाँ फंसा हर शख्स इतना खुश नसीब नहीं था कि उन ज़ालिम शेखों के चंगुल से आज़ाद हो सके।
"बस बेटा! इसलिए ही कहता था जल्दी और आसानी के चक्कर में रिस्क मत लो।"
"पर चचा!दिन-रात हाड़ तोड़ मेहनत के बाद जो यहाँ मिलता था ,वह वहां चंद घंटो की कमाई थी। इसलिए बड़ी नौकरी और जल्दी पैसा कमाने के चक्कर में कुछ समझ ही नहीं पाया।"
" लेकिन तुझे तो बढ़िया नौकरी मिली थी ना फिर ऐसा हाल?"
" काहे की बढ़िया नौकरी ,सब धोखा था। ओहदा, सिर्फ क़ागजों पर था।और इन्हीं झूठे सच्चे कागजों की वजह से फंस के रह गया था।" कहते हुए उसके चेहरे पर गहरी मायूसी छा गयी।
"लेकिन भाईजान ये तो होने वाली बात है, आपके साथ जो हुआ वह सबके साथ हो जरूरी तो नहीं।" वहीं खड़े अशरफ के चचेरे भाई ने कहा जो खुद भी बाहर जाने की जुगाड़ में लगा था|
"बिलकुल जरूरी नहीं ।लेकिन ना हो इसकी कोई गारंटी है क्या?"
"भाई!जो इंतेजाम करा रहा है,वह अपनी ही बिरादरी का है। ऐसे में गारंटी ही समझो।" विदेश की चकाचौंध से प्रभावित उसने अपनी बात के साथ, बिरादरी की ताकत भी बतानी चाही।
"जिसने मेरा और मेरे जैसे जाने कितनों का बेड़ागर्क किया, वह लोग भी गैर कौम के नहीं थे समझे | पूरा भरोसा दिलाया था कि वहाँ कोई परेशानी नहीं होगी ।क्या पता था कि ऐसे लोग सिर्फ दलाल होते हैं।"
"खाक डालो बीती बातों पर बेटा! तुम लोगों के लिए सबक बनकर लौटे हो। इतने पर भी जो लोग गलत लोगों पर भरोसा करने से गुरेज ना करें ,उनकी भरोसे की भैंस का पाड़ा ही पैदा समझो।" कहकर, एक नजर अपने लड़के पर डालते हुए, चचा वहाँ से उठ खड़े हुए।
मौलिक एवं अप्रकाशित
भई वाह ..क्या लिखती हैं आप प्रिय राहिला जी ,, बड़ी कुशलता से निभा जाती हैं आप विषय को , पहली कथा का विषय जाना पहचाना है पर निर्वाह अलहदा है ...दूसरी रचना का विषय ज्यादा गंभीर है और उसका निर्वाह भी उतनी ही कुशलता से हुआ है हार्दिक बधाई
आदरणीय राहिला जी, प्रस्तुत लघुकथाओं में से प्रथम प्रस्तुति 'खुराफाती' कथानक के कथ्य में रोचकता, कौतूहलता एवं नवीनता है जिससे पाठक में जिज्ञासा बनी रहती है इसके प्रभावस्वरूप लघुकथा अधिक राेचक एवं प्रभावशाली बनी है । लघुकथा के शीर्षक में लघुकथा का सार एवं उद्देश्य समाया हुआ है जिससे यह एक अर्थपूर्ण शीर्षक बना है । शुभकामनाएं । दूसरी प्रस्तुति 'भरोसे की भैंस'मे निहित संदेश भी सार्थक है । अल्प परन्तु सार्थक शब्दों और अर्थपूर्ण संक्षिप्त संवादों के द्वारा व्यापक अर्थ देने वाली भाषा सूक्ष्म विषय का वर्णन एवं चरित्रों का प्रकाशन करने में सफल सिद्ध हुई है। दोनों प्रस्तुतियों एवं रजत जयंती गोष्ठी में सहभागिता हेतु हार्दिक शुभकामनाएं । सादर
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