आदरणीय साथिओ,
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आ० अनुज योगराज ने जो बात कही , मैं उसका समर्थन करता हूँ. मजहबी मामलात में अतिरिक्त सतर्कता आवश्यक है , भावनाएं किसी की भी आहत नहीं होनी चाहिए . आपकी कथा की प्रस्तुति बहुत बहुत अच्छी है . थोड़े से सम्पादन से उत्कृष्ट रचना बन सकती है . सादर .
कथा की प्रस्तुति आपको पसंद आयी, आपका बहुत-बहुत आभार आ. डॉ. गोपाल नारायण सर. हार्दिक आभार. सादर.
लघु कथा का कथानक सामयिक तथा प्रदत्त विषय को सार्थक करता हुआ है अच्छी लघु कथा लिखी है आद० महेंद्र जी आपको बहुत बहुत बधाई |सजग पाठकों का इशारा इस पंक्ति की तरफ --"हाँ, मैं मुस्लिम हूँ झूठ नहीं बोलता और न ही हिन्दुओं की तरह पीठ में खंजर घोंपता हूँ।"है जिसको आप बड़ी मुस्तैदी से सतर्कता से बदल सकते हैं अर्थात न कहते हुए भी पाठकों को खुद समझने के लिए छोड़ सकते थे फिर पात्र का मानसिक संतुलन यदि ठीक नहीं है तो पीठ में खंजर घोंपने वाली बात कैसे कह सकता है लघु कथा जाति/ धर्मवाद की शिकार हो गई है इस एक पंक्ति से जिसको आप निःसंदेह संकलन के वक़्त सुधार सकते हैं ये आपके लिए कोई जटिल काम नहीं है |बहरहाल बहुत- बहुत बधाई |
रचना को पसंद करने के लिए आपका हार्दिक आभार आ. राजेश मैम. आपने जिस पंक्ति की तरफ़ इशारा किया है उसे मैंने बहुत सोच-समझ के लिखा है. वह न तो किसी एक पक्ष का समर्थन करती है और न ही दूसरे पक्ष पर एक तरफ़ा आरोप लगाती है. यह सिर्फ और सिर्फ पात्र की मनोदशा का वर्णन करती है. तर्कशास्त्र में "दोषयुक्त सामान्यीकरण" नामक एक दोष होता है जिसमें हम कुछ के आधार पर सब का निष्कर्ष निकाल लेते हैं. मुख्य पात्र इसी तर्कदोष से पीड़ित है. उसने कुछ लोगों अथवा घटना विशेष के आधार पर पूरे समुदाय को लेकर एक गलत धारणा बना ली है. जो कि गलत है और मैं ये मानता हूँ. लेकिन, मेरा मुख्य ज़ोर इस पर है कि उसने ऐसा किया क्यों. यही मैंने अपनी कथा में दिखाने की कोशिश की है. साथ ही, आपने मानसिक संतुलन की बात भी की है. क्या मानसिक संतुलन खोने पर कोई पीठ में खंजर घोंपने वाली बात नहीं कह सकता? मुझे तो नहीं लगता. बल्कि मैंने तो इसका कारण भी लघुकथा में स्पष्ट किया है : उसके दोस्त. अन्त में, मुझे नहीं लगता कि कथा जाति या धर्मवाद की शिकार हो गई है. बल्कि मैंने तो लघुकथा में इससे बचने का सन्देश ही दिया है. आपका पुनः बहुत-बहुत आभार. सादर.
बहुत रोचक और भावपूर्ण रचना प्रदत्त विषय पर, हाँ कुछ चीजों से बचा जा सकता है इसे और बेहतर बनाने के लिए| बहुत बहुत बधाई आपको
रचना आपको रोचक लगी, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद आ. विनय कुमार जी. हार्दिक आभार. सादर.
बहुत-बहुत धन्यवाद आ. तस्दीक़ जी. हार्दिक आभार. सादर.
आ. सुनील जी, लघुकथा में आपकी उपस्थिति और निष्पक्ष टिप्पणी का बहुत-बहुत आभार. जिस पंक्ति का ज़िक्र आपने किया है उसके सन्दर्भ में मैंने अपना जवाब आ. राजेश मैम की टिप्पणी में दे दिया है. आप चाहें तो अवलोकन कर सकते हैं. शीर्षक मैंने कुछ सोच कर रखा है इसलिए उसका परिवर्तन फिलहाल तो संभव नहीं लगता. हाँ, यदि आप इसके विषय में थोड़ा और खुलकर कहें तो अवश्य ही विचार किया जा सकता है. सादर.
आपका हार्दिक आभार आ. प्रतिभा मैम. अगली बार ध्यान रखूँगा. बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर.
साम्प्रदायिकता जैसे नाजुक विषय पर जिस लेखकीय दायित्व एवं अनुशासन की आवश्यकता होती है जिसमें आप चूक गए प्रतीत होते हैं प्रिय महेन्द्र भाई जी । सादर गुणीजन अपनी टिप्पणीयों में संकेत दे चुके हैं इसलिए अधिक कुछ नहीं कहूंगा । सादर
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