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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक 27 में स्वीकृत लघुकथाएँ

(1).  श्री मोहम्मद आरिफ जी 

मुक्ति
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"बेचारे को आज मुक्ति मिल ही गई ।" राम प्रसाद ने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा । पास ही खड़े दिवाकर ने जिज्ञासा से पूछा-"किसको मुक्ति मिल गई ?"
"तुझे नहीं पता दिवाकर ?"
"नहीं, कतई नहीं ।"
"हमारे गाँव के रणछोड़ लाल को मुक्ति मिल गई ।"
"किस चीज से मुक्ति मिल गई ।"अब दिवाकर की जिज्ञासा ने और जोर मारा ।
"दर असल हमारे देश में मुक्ति उत्सव चल रहा है । धीरे-धीरे सबको मुक्ति मिल जाएगी ।"
"क्यों पहेलियाँ बुझा रहे हो राम प्रसाद , जरा साफ-साफ बताओ ।"
" कर्ज़दारी, भुखमरी, खाद बीजों की किल्लत, बिचौलिएँ राक्षस, भूमि से बेदखली, मौसम की बेरूखी, पुलिस की फायरिंग आदि के चक्रव्यूह से तंग आकर हमारे देश के किसान आत्महत्या करके मुक्ति पा रहे हैं । रणछोड़ लाल ने भी आज वही किया । क्या तुम अर्थी में चलोगे ?"
दिवाकर जड़वत् हो गया ।
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(2).  सुश्री अपराजिता जी 
तमगा
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सुदूर गांवों से शिक्षा का महत्व समझा कर लायी गयीं आदिवासी बालिकाओं का छात्रावास जिसका आज औचक निरीक्षण था । राजधानी से तीन बड़े अधिकारी आए थें । पहली से पांचवी तक के छात्रावास मे मौजूद सभी बच्चियां बड़े से हॉल मे आ कर नीचे बिछी चटाई पर बैठ गयीं । औचक निरीक्षण का पता वार्डन को था तभी लड़कियों के पहनावा साफ और कंघी चोटी बनी थी ।
तीनों अधिकारी कुर्सी पर बैठते हुए बोलें:
"वाह ! गोमती बाई , इस बार तो लड़कियां साफ सुथरी दिख रही हैं । "
"जी हजूर , सब आपकी कृपा है ...आप तो सर्वश्रेस्ठ का तमगा दिलवा दो हमें बस ।" पान से रंगे पीले काले दांत बाहर आ गये वार्डन के ।
"दिलवा देंगे पर पहले विशेष प्रशिक्षण तो दे दें ।" कह कर एक अधिकारी ने आँख दबाई तो सभी ने दांत निपोर दिये।
वार्डन ने एक लड़की को हड़काया:
"ऐ मंगली , चल सामने आ ...साहब जो पूछें जबाब दे ।"
अधिकारी ने मंगली का मुआयना करते हुए पूछा
"तुम जानती हो गुड टच बैड टच ? "
मंगली ने नहीं मे सर हिलाया तो उन्होंने वार्डन को देखा । वो बत्तिसी दिखाती बोली:
"अब ये तो आप हीं बेहतर सिखाते हो न हजूर और इसी के पीछे तो सरकार आप सब पे इत्ता खरच रही ...."
" तू तो घाघ हो गयी है अब ...तेरा प्रमोशन तय है ।" कहते हुए अधिकारी के हाथ गुड टच बैड टच सिखाने के बहाने मंगली के शरीर पर हरकत करने लगे। मंगली की झिझक देख सभी की सम्मिलित हँसी और भद्दे इशारे भी शुरू हो गयें । बच्चियां क्रमशः बदलती जा रहीं थीं पर शिक्षा एक जैसी ही चल रही थी ।
तभी दरवाजे के पीछे एक चेहरा देख तीनों ने सवालिया नजर से वार्डन को देखा जिसका चेहरा अचानक हीं पीला पड़ गया था । उसे इशारे से पास बुला कर एक अधिकारी ने ज्यों ही वही सवाल पूछना चाहा कि वार्डन घिघियाई:
"ये मेरी बेटी है साहब जी , इसको रहने दो ।"
" ओह ! पर शिक्षा पर तो सभी का हक है, तेरी बेटी का भी। आखिर सरकार इतना खर्चा कर रही ... प्रमोशन की चिंता मत कर । "
एक गंदा इशारा उछाल कर तीनों ठहाके लगाने लगे। । आगे के शब्द वार्डन के कान तक नहीं पहुंचे , आँखों मे अंधेरा छा गया...
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(3). श्री विनय कुमार जी 
मौका
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"भाई, छा गए हो आजकल, जिसे देखो बस तुम्हारी ही चर्चा कर रहा है", उसने मुस्कुराते हुए बधाई दी|
"अब समाज सेवा में सब करना पड़ता है, तुम भी तो करते हो यह सब", चम्पू ने उसके कंधे पर हाथ मारा|
"वैसे ईद का यह आईडिया कहाँ से आया तुम्हारे दिमाग में, मान गए तुमको", उसने एक हारे हुए खिलाडी के अंदाज़ में कहा|
"अब क्या कहें, जिसे देखो कहीं न कहीं इफ्तार पार्टी में जा रहा था, कुछ अलग करने का सोच रहा था| फिर अचानक यह दिमाग में आया और देख लो इसका असर", चम्पू ने फिर से एक धौल उसको जमाया|
"अरे हम भी गए थे कुछ महीने पहले इन्हीं कैदियों के साथ दिवाली मनाने, किसी ने दूसरे दिन याद तक नहीं रखा", उसने खोये हुए लहज़े में कहा| 
"तुम भूल रहे हो, हम भी गए थे होली में, अब तो मुझे भी याद नहीं है| खैर असली मजा तो अपने त्यौहार में ही है, बाकी तो जनता जनार्दन को जितना इस भंवर में उलझा कर बना सकते हो, बना लो", हँसते हुए चम्पू सोफे पर पसर गया|
उसने सामने रखा बियर का ग्लास उठाया और चियर्स करके एक ही घूंट में उसको खाली कर दिया| चम्पू ने भी अपना ग्लास उठाया और धीरे धीरे घूंट भरने लगा|
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(4). डॉ टी आर सुकुल जी 
"भंवरजाल"
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‘‘ मैं ने सदा ही आप लोगों की ही इच्छाओं के अनुकूल काम किया, आज जब मैं अपनी पसन्द की लड़की से विवाह करने की अनुमति चाहता हॅूं तो आपको क्यों आपत्ति है?‘‘ 
‘‘ इसलिए कि वह लड़की अपनी जाति की नहीं है, खानदान का भी तो ध्यान रखना होता है कि नहीं ?‘‘
‘‘ वह पांच साल तक मेरे साथ कालेज में पढ़ी है, हम एक दूसरे की रुचियों को अच्छी तरह समझते हैं और स्वभाव से पसंद करते हैं, तो क्या यह व्यर्थ है?‘‘
‘‘ अनेक लोगों की रुचियाॅं समान होती हैं, अनेक वर्षों से जान पहचान भी होती है तो क्या सभी से विवाह किया जा सकता है? क्या यह आजकल की चिथड़े जैसे कपड़ों वाली फैशन है ? ‘‘
‘‘ परन्तु यह कहाॅं तक उचित है कि आपने जिस परिवार की लड़की को पसंद किया है उसे एक घंटे में ही पसंद कर मैं अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय कर लॅूं?‘‘ 
‘‘ क्यों नहीं? हम तो उनके परिवार और खानदान को जन्म से जानते हैं, हमारे पुराने संबंध उस कुल से जुड़े हैं ।‘‘ पिता मूछों पर ताव देते बोले।
‘‘ आप बार बार कुल, खानदान के भंवरजाल में क्यों उलझा रहे हैं? सभी मनुष्य बंदरों के वंशज हैं यह प्रमाणित है ?..? .. माॅं ! मैं इसे नहीं मानता।‘‘
‘‘ अच्छा बेटा! जब तू अपने विचारों पर इतना दृढ़ है तो मेरी एक बात मान ले, योग्य ज्योतिषी से कुंडली का मिलान कराके देख ले यदि उत्तम मिलान होता होगा तो हम सहमत हो जाएंगे ‘‘ माॅं ने आंसू पोंछते हुए कहा।
‘‘ फिर दूसरा चक्कर? हम ज्योतिष को नहीं मानते, यह सब मूर्ख बनाने के धंधे हैं।‘‘
‘‘ अरे मूर्ख! यह तो सोच, जो लोग तेरी तारीफ खानदानी और संस्कारी पुत्र के रूप में करते नहीं थकते और उदाहरण देकर समाज में कहते हैं कि पुत्र हो तो देवकीनन्दन के पुत्र जैसा, वे क्या कहेंगे?‘‘ पिता क्रोध में आकर बोले।
‘‘ दूसरे क्या कहेंगे इसकी हम क्यों चिन्ता करें?‘‘
‘‘ हमारी सभ्यता और संस्कृति ?‘‘ 
‘‘ ये भी समय समय पर बदलती रही हैं, आप सबने अपने जमाने की संस्कृति और फैशन को अपनाया तो हमें अपने जमाने की फैशन और संस्कृति को अपनानें पर आपत्ति क्यों ??‘‘
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(5). श्री तसदीक़ अहमद खान जी 
रिश्ता

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ठाकुर हिम्मत सिंह ने नये ज़माने के हिसाब से बेटी पूजा को बेहतर तालीम तो दिलवा दी मगर वो खानदानी रीति रिवाज़ और पुराने रूढ़िवादी विचारों के भंवर से कभी बाहर नहीं आए | वो बरामदे में बैठे बेटी के बारे में सोच ही रहे थे कि नौकर ने आकर कहा:
''पड़ोस के गाँव से ठाकुर लक्ष्मण सिंह का आदमी यह पत्र लेकर आया है "
हिम्मत सिंह ने पत्र पढ़ कर फ़ौरन पत्नि को आवाज़ देकर कहा:
"लक्ष्मण सिंह ने पूजा की शादी का जवाब माँगा है "
पत्नि आवाज़ सुनते ही बरामदे में आकर कहने लगी:
"तुम हमेशा ठाकुर खानदान के गीत गाते रहते हो ,लड़के के बारे में जानकारी ली या नहीं ?"
हिम्मत सिंह मूछ पर ताव देते हुए बोले:
"लड़का ठाकुर ख़ानदान का है ,मेरे लिए इतना काफ़ी है "
यह सुनते ही पत्नि तैश में बोलने लगी:
"मैं ने सब पता करवा लिया है ,लड़का शराब का आदी है उसके कई लड़कियों से संबंध हैं "
इतना सुनते ही हिम्मत सिंह को जैसे साँप सूंघ गया ,उनके रूढ़ि वादी विचारों का भंवर हिचकोले खाने लगा ,उन्होंने फ़ौरन पत्र के जवाब में उस आदमी को यह लिख कर दे दिया
"मुझे यह रिश्ता मंज़ूर नहीं "
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(6). श्री महेंद्र कुमार जी 
इण्डियन टेररिस्ट

"मुझे गिरफ़्तार कर लीजिए। मैं आतंकवादी हूँ।" थाने में धड़धड़ाते हुए उस शख़्स ने कहा। सभी लोग चौंक गए।
"तुम आतंकवादी हो?" थानेदार को यकीन नहीं हुआ।
"हाँ, मैं मुस्लिम हूँ झूठ नहीं बोलता और न ही हिन्दुओं की तरह पीठ में खंजर घोंपता हूँ।" उसने गम्भीरता से जवाब दिया।
थानेदार ने उसे बैठाया और सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू कर दिया।
"तुम सरेंडर क्यों करना चाहते हो?"
अभी तक थानेदार के हर सवाल का जवाब दे रहा वह शख़्स चुप हो गया। थोड़ी देर बाद उसने पुनः बोलना शुरू किया, "मैं नहीं जानता मेरी माँ ने ऐसा क्यों किया। वह हमेशा मुझसे बता कर बाहर जाती थी। पर उस दिन... मैंने उस स्टेशन पर बम रखा जहाँ मेरी माँ भी मौजूद थी। अब वह नहीं रही।" उसका स्वर गीला हो रहा था।
"उस स्टेशन पर मरने वाली अन्य औरतें भी किसी न किसी की माँ रही होंगी। यह तुम्हारे ही कर्मों का फल है। इस देश का नागरिक होने के बावजूद तुमने अपने ही लोगों की जान ली।"
वह भड़क गया। "कौन से अपने लोग? वो जो जानवर के नाम पर हमारे भाइयों का सरे आम ख़ून बहा देते हैं? या वो जो हमारे घर के अन्दर घुस कर हमारी रसोई चेक करते हैं और फिर हमें मार डालते हैं? या कि फिर वो जो हमें हमारे ही देश से बाहर निकालना चाहते हैं? कौन से अपने लोगों की बात कर रहे हैं आप?" थाने में अजीब सी ख़ामोशी छा गयी।
"तुम्हारे साथ और कौन-कौन है? तुम किस संगठन से जुड़े हो?" थानेदार ने अपनी कुर्सी को थोड़ा सा पीछे सरकाते हुए पूछा।
"संगठन? हा हा हा हा हा..." उसने थानेदार की आँखों में घूर कर देखा और कहा, "मैं इन सबके लिए अकेला ही काफ़ी हूँ।"
थानेदार के अगले सवाल पर कि वह किन-किन आतंकवादी घटनाओं में शामिल रहा है, उसने दिन-तारीख़ सहित कब और कैसे कहाँ बम रखा था सब विस्तार से बता दिया।
उसका जवाब सुनकर सभी एक दूसरे का मुँह देखने लगे। "तुम पागल तो नहीं हो? जिन तीन शहरों का नाम तुमने लिया है उनमें से दो में कभी कोई आतंकवादी घटना हुई ही नहीं और एक में ऐसी किसी घटना को घटे हुए बीस साल से भी ज़्यादा का समय बीत चुका है।"
मगर वह मानने को तैयार ही नहीं था। उसने फिर से वही बातें दोहरानी शुरू कर दीं।
तभी वहाँ उस थाने का सबसे बुज़ुर्ग सिपाही राधेश्याम आया। उसने उस शख़्स को देखते ही कहा, "अरे साहब, ये यहाँ कैसे?"
"तुम इसे जानते हो?" थानेदार ने पूछा।
"अच्छे से साहब, ये जुनैद है। मेरे ही मोहल्ले में रहता है। पर ये यहाँ?" थानेदार ने सब कुछ बता दिया।
पूरी बात सुनने के बाद राधेश्याम ने कहा, "मैं इसे बचपन से जानता हूँ साहब। बड़ा सीधा लड़का है। जब पिछली बार शहर में दंगे हुए थे तो दंगाइयों ने बड़ी बेरहमी से इसकी माँ को मार डाला था। कहते हैं उस भीड़ में इसके दोस्त भी शामिल थे। बस, तभी से बेचारा पागल हो गया है।"
सभी लोग राधेश्याम की तरफ़ देखने लगे। वह गाँधी जी की उस तस्वीर के पास खड़ा था जिस पर ढेर सारी धूल जमा थी।
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(7). सुश्री कल्पना भट्ट जी 
कठपुतली

"हुंह कठपुतली..." मीना ने व्यंग्य और दुःख मिश्रित स्वर में कहा और अपने निजी सचिव के फोन में चल रहे विडियो को देखने लगी, उसमें मंच पर कठपुतली का तमाशा चल रहा था।
एक छोटी बच्ची जैसी कठपुतली आई और नाचते हुए कहने लगी, "बापू मैं और पढूंगी और नौकरी करूंगी..."
नेपथ्य से पुरुष की भारी आवाज़ आई, "अरी छोरी पढ़ लिखकर का करेगी, आख़िर तो चक्का चूल्हा ही तो देखना है। हमार खानदान की बेटियां तो इत्ता न पढ़ती, तू तो फिर भी दसवीं तक पढ़ ली, अब अपनी ताई और माँ का हाथ बंटा।"
और कुछ ही क्षणों में वह कठपुतली एक हाथ में बेलन और दूसरे में झाडू लेकर नाचने लगी।
कुछ क्षणों बाद नाचते हुए वह कठपुतली कहने लगी, "मैं अभी छोटी हूँ, मेरी शादी मत कराओ..."
तब नेपथ्य से एक प्रेम भरा पुरुष स्वर आया, "मैं खुद पढ़ालिखा व्यपारी हूँ और शादी के बाद मैं तुझे भी पढ़ाऊंगा।"
सुनते ही कठपुतली ख़ुशी से नाचते-नाचते ऊपर उठने लगी और पर्दे के पीछे चली गयी। अब पर्द के ऊपर से दूसरी कठपुतली आकर नाचने लगी। उस कठपुतली ने शादी का जोड़ा पहना हुआ था और उसके गले में एक तख्ती थी जिस पर लिखा था - 'पढ़ी-लिखी घरेलू'।
कुछ समय तक वह कठपुतली अलग-अलग अंदाज में नाचती रही, नेपथ्य खामोश था और फिर वह भी पर्दे के पीछे गायब हो गयी। अब एक कठपुतली प्रकट हुई जिसने सफ़ेद साड़ी पहनी हुई थी और बाल बिखरे हुए थे। वह जमीन पर सिर पटक रही थी। नेपथ्य से ज़ोर-ज़ोर से रोने का स्वर गूंजने लगा।
कुछ क्षणों बाद चुप्पी छा गयी, कठपुतली जमीन पर गिर गयी और दर्शक भी चुप हो गए थे। नेपथ्य से एक नारी स्वर गूंजा, "खुदको संभाल अब सबकुछ तुझे ही संभालना है। हर भंवर से निकलना है।" और तमाशा ख़त्म हो गया।
मीना की निजी सचिव ने अपना मोबाइल फ़ोन उठाया और कहा, "मैम, आपकी लिखी स्क्रिप्ट के अनुसार क्या यह ठीक है?"
मीना हाँ की मुद्रा में सिर हिलाते हुए सोफे से खड़ी हुई और वहीँ रखी उसके दिवंगत पति की आरामकुर्सी पर जाकर बैठ गयी।
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(8). योगराज प्रभाकर 
अँधेरी सुरंग
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सब कुछ इतनी तेज़ी से घटित हुआ कि वह भौचक्का रह गया थाI शाम के धुंधलके में वह दूर खड़ा अपने घर की छत पर जगमगाती झालरों को अपलक निहार रहा था कि तभी ब्रेक लगने की तेज़ आवाज़ से वह चौंक उठा थाI इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता, चार पाँच नकाबधारी उसे ज़बरदस्ती गाड़ी में डालकर अज्ञात स्थान की तरफ चल पड़े थेI  
"अरे कौन हो तुम लोग? मुझे कहाँ लिए जा रहे हो?" वह गला फाड़कर चिल्लाया था, उसने कई बार छूटने की कोशिश की किन्तु असफल रहा थाI आबादी से दूर जब उसको गले से पकड़ कर नीचे उतारा गया तो सामने एक लम्बे चौड़े आदमी को देखकर उसके मुँह से बरबस निकला:
"कमांडर साहिब! आप?"  
"इधर आ बे! तुझे कई बार संदेसा भिजवाया, तू आया क्यों नहीं?"
"मैंने आपको पहले ही बता दिया था कि मैं अब ये काम नहीं करूँगाI" 
"कमीने! जुबान लड़ाता है?" कमांडर की ऑंखें ज्वाला उगल रही थींI 
"नहीं कमांडर! मैंने आपका कोई हुकुम टाला आज तक? कितनी बार अपनी जान की बाज़ी लगाई आपके एक बोल परI" वह डर से काँप रहा थाI 
"तो कोई एहसान किया साले? उसके एवज़ हमने तुझे आलीशान मकान दिया, पैसा दिया, ऐशो आराम की हर चीज़ दीI तेरी माँ के इलाज पर लाखों रुपये खर्च किए, भूल गया सूअर?"
“नहीं कमांडर, लेकिन...” 
"तू चुपचाप हथियार उठा, आज रात बहुत बड़े मिशन पर जाना है हमेंI" कमांडर कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थाI 
"लेकिन आज तो मैं बिलकुल भी कहीं नहीं जा सकताI"
"क्यों? आज क्या तकलीफ़ है तुम्हें?" कमांडर ने आँखें तरेरते हुए पूछाI 
"आज रात मेरी बहन की शादी हैI" 
"शादी-वादी छोड़, सिर्फ अपने मकसद पर ध्यान देI" कमांडर ने उसकी बात अनसुनी करते हुए आदेशात्मक स्वर में कहाI 
"मगर मेरी एक ही तो बहन है, मेरा वहाँ रहना बेहद ज़रूरी हैI" उसने गिड़गिड़ाते हुए कहाII  
"सीधी तरह मिशन के लिए तैयार हो जा, कहीं ये न हो कि तेरी बहन की सुहागरात यहीं मना देंI" कमांडर की धमकी सुनकर वह सूखे पत्ते की तरह काँप उठाII  
"ले आएँ उठाकर उसे कमांडर?" एक बंदूकधारी ने मूँछ को ताव देते हुए कहा कुटिल स्वर में कहाI 
"नहीं नहीं! ऐसा गज़ब मत करना, मैं अभी तैयार होता हूँI” उसने कमांडर के पैरों में गिरते हुए कहाI “लेकिन कमांडर बस ये आखरी बार है, इसके बाद मैं यह काम हरगिज़ नहीं करूँगाI” उसने हिम्मत बटोरते हुए कहाI
“आखरी बार? हाहाहाहा!!” एक सामूहिक ठहाका गूँजाI
कमांडर ने उसे कंधे से पकड़ कर उठाया और बंदूक उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा:
“ध्यान से सुन! जो रास्ता हमने चुना है न, वहाँ अन्दर आने का दरवाज़ा तो है मगर बाहर जाने का नहीं हैI”  
उसने बंदूक पकड़ तो ली, लेकिन आज उसे बंदूक से भयानक घिन आ रही थीI
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(9). श्री अजय गुप्ता 'अजेय जी 
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जमीन के मालिक थे वो। सब के सब अपने आप मे जमींदार थे। अच्छी खासा रकबा हर किसी के हिस्से में था। खुद बोते। खुद उगाते। खुद काटते।
और फिर आ गए व्यापारी। तरक्की के सपने लेकर। फैक्टरी लगेगी, नौकरी मिलेगी, विकास होगा, सबके घरों में लाइट होगी, फ्रिज-टीवी-फोन-कूलर-मोटरसाईकल सब होगा। और गांव वालों ने सपने खरीद लिए। जमीन के बदले। कुछ पैसे भी मिल गए जो जल्द ही कहीं न कहीं खर्च हो गए। नशे-पत्ते की आदतें भी लग गई।
आज गांव में फैक्टरी है। गांववाले अपनी ही ज़मीन पर बनी फैक्टरी में लेबर कर रहे हैं। ज़रूरतें मुश्किल से पूरी होती हैं। तो ओवरटाइम करते हैं। खाने-पीने-आराम में कोताही हो जाती है तो बीमारी आ जाती है और ऊपर का खर्चा आ जाता है। कुछ काम घर पर भी आ जाता है जो घर की औरतें कर लेती हैं। मगर तंगी फिर भी खत्म नहीं हो रही। बच्चे बिगड़ रहे हैं। मां-बाप सोच रहे हैं काम सीख जाए तो फैक्टरी में ही काम दिला दें।
समय के भंवर में फंसे गांववालों की आज सबसे बड़ी ख्वाहिश है.....कुछ पैसे इकट्ठे हों तो एक टुकड़ा जमीन ले लें।
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(10). सुश्री प्रतिभा पांडे जी 
भंवर


 नीचे पांडाल से आ रहा भक्तों का शोर, अच्छा नहीं लग रहा था कुंदन महाराज को I खिड़की बंद करने के लिए उठना चाहा, तो घुटनों की टीस आँखों में आँसू ले आयी I  कल सदानंद के साथ आये ग्यारह बारह साल के उस पहाड़ी लड़के से मिलने के बाद से ही,  उनका मन भारी था I कहीं मन में गहरे दबा हुआ उनका अपना अतीत, बार बार आँखों के सामने आ रहा था I साठ साल पहले शराबी पिता की मार से तंग, जब वो पहाड़ के अपने गाँव से भागकर इस आश्रम में आये थे, तब लगभग इसी उम्र के थे I गुरूजी के साथ रहते हुए और उनकी मृत्य के बाद उनकी गद्दी तक पहुँचने की काँटों भरी यात्रा में, कई बार चाहा था उन्होंने  कि इस चोले को झटक अपने घर लौट जाएँ I पर निकल नहीं पाए I
‘’ गुरु जी, भंडारा हो गया है I अब दर्शन और आशीर्वाद  के कूपन कट रहे हैं I  आप आ जाईये गद्दी पर I’’ सदानंद सामने धमक गया था I
‘’ तन आज भी भारी है, विश्राम करना चाहता हूँ I पुराना दर्शन वाला वीडियो लगा दो भक्तों के आगे I’’ सदानंद से आँखें मिलाये बिना, बोल रहे थे वो I
‘’ दो दिन से ये ही तो  हो रहा है I  भक्तों की संख्या घट रही है गुरूजी  और आप ..I’’ चेहरे की कठोरता छिपाने के लिए सदानंद ने चेहरा दूसरी तरफ कर लिया I
‘’कल जो पहाड़ी बालक तुम्हारे साथ था, दिख नहीं रहा I कहाँ लगाया है उसे ?’’  उन्होंने झिझकते हुए धीरे से पूछा I
“उसे ढूँढते हुए उसके माँ बाप आ गए थे I चला गया I’’  सदानंद की रूखाई बरकरार थी I
‘’ओहो...अच्छा ..चलो ठीक हुआ I” उनकी आवाज में अचानक तिर आई तसल्ली, सदानंद से छिप नहीं पायी  I
‘’ तो गुरूजी ?’’  सदानंद उनके  चेहरे को पढने की कोशिश कर रहा था I
‘’ तो क्या ! भक्त प्रतीक्षा कर रहे हैं I चलें नीचे I ‘’
उठने में टीसता हुआ घुटना, इस बार आँसू नहीं लाया आँखों में I
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(11). श्री इंद्र विद्यावाचस्पति तिवारी जी 
भंवर

गंगा नदी अपने उफान पर थी। शाम का समय था। लोग नदी के तट पर पानी का वेग से जाना देख रहे थे। पानी में जगह-जगह भंवर चल रही थी। पानी दूर से आता था और लगातार वहां पर चक्कर काटता रहता था वह अपने पास के चारों तरफ के पानी का अपने में समेट कर नीचे की तरफ दबा देता था। लोगों को इसमंे रस मिल रहा था। तभी अचानक उस पार से गायों का समूह पानी में उतर गया और तैरने लगा। कुछ गाये जब उस भंवर के पास आईं तो उसमें पड़ गई और चक्कर काटने लगी। तट पर बैठे लोगों में हलचल मच गयी । क्योंकि गायें उसी गांव की थी। जिसे गांव के तट पर बैठे लोगों ने पहचान लिया था। भंवर इतना तेज था कि किसी की हिम्मत नहीं पड़ रह रही थी कि लोग पानी में उतरें और गायों की सहायता करें।
वहीं पर योगेन्द्र बैठे थे। उन गायों में उनकी भी गाय थी। वे तैरना जानते थे। अच्छे तैराक थे। वे पानी में उतर गये और भंवर के पास तक पहुंच गये। तट पर बैठे लोग सन्नाटा खाये उनको जाते देख रहे थे। वहां पर पानी बहुत खतरनाक ढंग से बह रहा था। काफी दूर से ही वह भंवर अपने पास पानी को खींच रहा था। इसलिए जान जाने का डर था। लेकिन योगेन्द्र डरे नहीं और साहस के साथ आगे बढते रहे। वे गायेां के पास पहुंचे और धैर्य के साथ धीरे-धीरे पानी के साथ बहते हुए गायों को भंवर के बहाव से बाहर निकालने की कोशिश करते रहे। चार-पांच बार चक्कर काटने के बाद वे गायों को भंवर से निकालने में सफल हुए। उसके बाद गायों को साथ लिए हुए किनारे पर आये। तट पर मौजूद लोगों ने सम्मान जनक निगाह से उन्हें देखा। और गांव में उनकी निडरता और अच्छी तैराकी की चर्चा रही।
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(12). सुश्री अर्पणा शर्मा जी 
भँवर - अलगाववाद का

भारी भीड़ वहाँ  सिर झुकाए ग़मगीन खड़ी थी । जनाजा सामने रखा था और उसके लिए अंतिम नमाज़ पढ़ी जारही थी। मातमी माहौल में अनकहे सवाल तैर रहे थे। प्रशासन द्वारा आतंकी हिंसा के शिकार के लिए राहत राशि स्वीकृत कर दी गई थी। परंतु वहाँ की आवाम के चेहरे स्याह और खौफ़जदा थे। उनके मन में अपने सुरक्षित, खुशहाल जीवन और भविष्य के लिए संदेहों के भँवर गहरा रहे थे।
टीवी पर नेताओं की नित नई बयानबाजी और अलगाववादी नेताओं के आरोपों के बीच एक और शख़्स का जनाजा सुपुर्दे ख़ाक हुआ , वही जो भारत की धर्म निरपेक्ष संस्कृति का पुरजोर पैरोकार था , उसकी बेवा चीख-चीखकर विलाप कर रही थी:
"हम भारतीय हैं......हम भारतीय हैं....."
उसके नाम में 'मोहम्मद ' और 'पंड़ित ' दोनों शब्द शामिल थे....!
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(13). सुश्री सीमा सिंह जी 

भवँर
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“निशा!” घर में प्रवेश करते ही विशाल ने पत्नी को पुकारा।
कोई उत्तर ना पाकर, उसे खोजता किचन तक पहुँच गया।
“निशा, कहाँ हो यार? सिरदर्द की कोई दवा दो मुझे, मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा है! आज लंच टाइम से ही दुःख रहा था सिर… पर अब तो लग रहा है जैसे दर्द सिर फाड़ कर बाहर निकल आएगा।” दोनों हाथों से सिर दबाए विशाल ने फिर से पत्नी को पुकारा।
तभी भीतर के कमरे से पिताजी की आवाज़ सुनाई दी, “मोनू! आ गया मेरा शेर! आज क्या पढ़ा कर आया स्कूल में अपनी टीचर को?”
“पापा, मैं हूँ। मोनू अभी आया नहीं क्या? और ये निशा कहाँ है?” दर्द से तड़पते हुए विशाल ने अपना सिर फिर झटका।
“आ ही रही होगी वो भी। सुबह बता कर गई तो थी, उसके ऑफिस में बोर्ड मीटिंग है।” पिता जी ने विशाल को याद दिलाते हुए कहा।
“ओह!अच्छा, कितने बजे तक लौटने का कह कर गई है?” विशाल ने पिता जी से पूछा तो वह झुंझला उठे।
“तुझे ही तो बता कर गई थी! मुझसे तो ऐसे पूछ रहा है जैसे कुछ पता ही नहीं है!”
“मुझे कब बता दिया? मेरे तो जगने से पहले ही निकल गई थी।” चाय का पानी चढ़ा किचन से ही पिता जी की बात का कुढ़ते हुए ज़वाब दिया।
“अच्छा! जाने से पहले जगा कर गई तो थी!” घर में अंदर आते हुए, विशाल की बात सुन,निशा ने उत्तर दिया।
पत्नी की आवाज़ सुनते ही विशाल अधबनी चाय गैस पर छोड़कर किचन से बाहर निकल आया। “निशा! आ गई हो तो कोई पेनकिलर दो, प्लीज़! मेरा सर बुरी तरह दुःख रहा है।”
निशा को भी अकेला आया देखकर,पिता जी ने तपाक से पूछा, “मोनू कहाँ है?”
“मोनू! मोनू आया नहीं क्या?” पिता जी के प्रश्न से चौंककर निशा ने पति को देखते हुए पूछा, “आप लाए नहीं?”
“मैं? रोज तो तुम लेकर आती हो!”
“पर आज सुबह बताया तो था मैं लेट हो जाऊँगी!”
“तो एक फोन कर देती मुझे, मैं ले आता!”
“मैं बिज़ी थी। फोन करने का मौका नहीं था… पर मैंने मैसेज किया था! अपना फोन चेक करो।” निशा के भीतर से माँ बिफर उठी।
“तुम बिज़ी थी तो मैं क्या ऑफिस में ख़ाली बैठा रहता हूँ? प्रमोशन ड्यू है मेरा, कितना वर्क लोड है। फोन ऑफ हो गया है।” अपना मोबाइल उठाकर ठसकते हुए विशाल का स्वर भी कड़वा हो चला था।
दोनों को उलझता देख पिताजी बड़बड़ाते हुए बोले, “तुम दोनों अपने-अपने कैरियर में इतने व्यस्त हो गए हो कि एक सात-आठ साल का बच्चा नहीं सम्भलता! आधा दिन स्कूल में और आधा दिन डे केयर में रहता है, उसपर भी माँ-बाप ऐसे कि बच्चे को लाना भूल गए!”
“कोई बताएगा, तब तो लेने जाता!” विशाल ने अपना बचाव किया।
“थोड़ी तो अपनी ज़िम्मेदारी समझनी चाहिए न इनको भी?” निशा ने पति पर कटाक्ष किया।
“अगर लड़ने से फुर्सत हो गई हो, तो बच्चे को भी ले आए कोई जाकर। बच्चे की कोई परवाह नहीं है, बहुत काम हैं तुम दोनों को।” पिता जी क्रोधित हो उठे थे।
पिता की फटकार से विचलित विशाल बुदबुदाया, “सब मेहनत करते तो उसके ही भविष्य के लिए हैं, पापा।”
“पूरी कोशिश तो यही रहती है कि उसे किसी चीज़ कमी न महसूस हो। खुद को मशीन उसके ही सुख के लिए ही तो बना लिया है हम दोनों ने!” निशा के स्वर में गहरी उदासी थी।
“माँ-बाप की संगति की भरपाई पैसे से नहीं की जा सकती, ये बात तुम लोग जितनी जल्दी समझ जाओ बेहतर होगा!” पिता जी ने ठंडे स्वर में कहा, और अपने कमरे की ओर बढ़ गए।
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(14). सुश्री नीता कसार 
गले की हड्डी

.
क्या बात है भाभी,अभी तो मिलकर आई हूँ आप सब से ?
और आप फिर फ़ौरन आने के लिये कह रही है ।क्या अम्मा !!!!
हाँ विधिजीजी अम्मा अभी अभी ....कहते कहते फ़ोन कट गया ।
घर के कामकाज से फ़ुरसत हो अभी थोड़ा आराम करने का सोच रही थी कि ,
भाभी के फ़ोन ने नींद उड़ा दी ।अम्मा की लंबी बीमारी के चलते दुनिया ,
उन्हीं तक सीमित हो गई ।मायका स्थानीय हो तो एक पाँव मायके में ,दूसरा गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों में घनचक्कर हो जाता है।
'रोहित अम्मा के घर जा रही हूँ वे नही रही '।पति के मोबाइल पर मैसेज भेज पीहर आ गई।रास्ते भर अम्मा का ख़्याल संवेदनशील करता रहा ।घर में पहुँचते ही महिलाऔ की खुसुरफुसुर ने दीवारों के कान बन दिमाग की घंटियाँ बजा दी ।
"तेरहवीं तक खाना घर पर नही बनेगा,बेटी के घर से आ सकता है क्योंकि वे पराये घर की होती है ।"
बुज़ुर्ग महिला ने विधि को देखते पास बैठा कर कहा ।
बुआ क्या कह रही हो ? माँ ने कभी पराया नही समझा मुझे विधि ने,धीरे से पर समझना किसे था उसके पाँव के नीचे जमीन खिसक रही हो जैसे । पूरे कुनबे का खाना,पति की तनख़्वाह बाप रे !!
रोहित की तनख़्वाह ,घर बच्चे और ये कैसी घटिया परंपरायें है ।सोचते सोचते,चक्कर आ गया।
लोगों को सरोकार आम खाने से होना चाहिये ,गुठलियाँ गिनने से नही चेहरे पर पानी के छींटे पड़ते ही होंश आया तो भाभी के कान में बुदबुदाते पाया।
विधि जीजी घबराये ना आपका घर ही नही मेरा पीहर भी तो यही है ना ।
घटिया परंपरा की नाक में नकेल हम ही डालेगी, निश्चित रहें ।
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(15). श्री तेजवीर सिंह जी 
 भँवर     


"शकूर मियाँ, रोज़ रोज़ थाने के चक्कर लगाने से कुछ हांसिल नहीं होगा। अपने आप को हालात के मुताबिक़ बदलो"।
"हुज़ूर आप ही बताइये अब इस उम्र में मुझे क्या बदलाव की ज़रूरत है"।
"यह बात तो आप उन लोगों से पूछो, जिनके खिलाफ़ आप शिकायतें लेकर आते हो"।
"माई बाप, जब से नयी सरकार बनी है, ज़ीना हराम कर रखा है। पूरे गाँव में हमारी क़ौम के केवल तीन घर हैं। सभी मज़दूर किस्म के लोग हैं। गाँव में कोई काम नहीं देता। इसलिये जवान लड़के शहर चले जाते हैं। घरों में बड़े बूढ़ेलोग,  स्त्रियाँ और बच्चे होते हैं। हर तीसरे चौथे दिन लोग झुंड बनाके घरों में घुस आते हैं, तलाशी लेने। कभी गाय के  गोश्त का इल्ज़ाम, कभी चोरी चकारी का आरोप, कभी कुछ और। असल मक़सद होता है घर की बहू बेटियों को घूरना, फ़ब्ती कसना , छेड़ना और परेशान करना"।
"शक़ूर मियाँ, हो सकता है आपकी बात सच हो, मगर क्या आप यह साबित कर पाओगे। कोई गवाह ला सकते हो जो आपकी क़ौम का ना हो"।
“ हुज़ूर ऐसा तो कोई कानून हमने नहीं सुना”|
"शक़ूर मियाँ, आजकल रोज़ नये क़ानून बन रहे हैं। मुक़द्दमा दर्ज़ कराना है तो जैसा हम कहें वैसा गवाह लेकर आओ"।
"हुज़ूर यह तो नामुमक़िन सी बात है"।
"शक़ूर मियाँ फिर तो हमारे भी हाथ बंधे हुए हैं"।
"हुज़ूर तो क्या हम लोग ऐसे ही बेइज़्ज़त होते रहें। रात बिरात को तो बच्चियों का घर से निकलना भी दुश्वार हो गया है"।
"आप एक काम क्यों नहीं करते। यहाँ का घर द्वार बेच कर कहीं बाहर निकल जाओ"।
"यह भी सोचा था मगर यहाँ के लोग कौड़ियों के दाम में खरीदना चाहते हैं और बाहरी आदमी को खरीदने नहीं देते"।
"शकूर मियाँ, ज़ान है तो ज़हाँन है। जो मिलता है लेलो और निकल जाओ इस झंझट से | आप कहें तो मैं बात करूं। एक दो ग्राहक मेरी नज़र में भी हैं"।
"आपकी बात तो ठीक है हुज़ूर, मगर नयी जगह पर भी ऐसे ही लोग और आप जैसे अफ़सर हुए तो"?
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(16). डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी 
तू खींच मेरी फोटो 
.
एक स्कूली लड़का पीठ पर बस्ता लादे मस्त गाता हुआ पानी से भरी शहर की सड़क पर चला जा रहा था. शहर में जब कभी देर तक मूसलाधार बारिश होती है तब यहाँ ड्रेनेज व्यवस्था की पोल पट्टी खुल जाती है . नगर महापालिका के सारे दावे झूठे साबित हो जाते हैं. पर सरकारे शायद हर जगह इसी तरह चलती है .
लड़का बारिश रुक जाने पर स्कूल से घर के लिए जा रहा था. सड़क पर आवागमन  कम था . कुछ फंसे हुए मजबूर लोग ही पानी में चल रहे थे . पानी से भरी सड़क पर चलना उस लड़के के लिए मुश्किल हो रहा था,  इस जलभराव में टेम्पो का चलना बंद हो चुका था. पानी भरी ऊबड़--खाबड़ सड़कों पर वाहन चलाकर कोई भी रिस्क क्यों ले. इसलिए पैदल जाना उसकी मजबूरी थी. हालाँकि घर बहुत दूर नहीं था.  लेकिन लगभग कमर तक भरे पानी में पाँव आसानी से बढ़ नहीं रहे थे. उसे यह भी चिंता थी की माँ घर पर इन्तजार कर रही होगी .
अचानक एक कार ठीक उसके बगल से गुजरी. लडके ने बचने की कोशिश की पर पूरी तरह भीग गया. पानी के बहाव में वह सड़क के मोड़ पर एक  किनारे की ओर  बढ़ आया, वहाँ उसे एक भंवर दिखाई दिया. वहाँ पानी गोल-गोल चक्कर काट रहा था और एक छेद से होकर पानी अन्दर जा रहा था , लड़के ने ऐसा दृश्य कभी न देखा था . वह भंवर के पास चला आया .
‘तू खींच मेरी फोटो -------‘ उसने फिर एक तान भरी और मोबाइल से उस भंवर की फोटो खींचने लगा . तभी एक भारी वाहन उसकी  बगल से गुजरा. लड़के ने फिर बचने की कोशिश की और बदकिस्मती से उसी भंवर में जा गिरा. लड़के का शरीर जूं --- से लहराया और चक्कर खा कर भंवर में समां गया.
सडक के किनारे एक बोर्ड लगा था – ‘कृपया सावधान ! मेनहोल खुला है.’ 
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(17). श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय जी 
स्तर


आज उस का बरसों पुराना सपना पूरा होने जा रहा था. उस ने कहानियां बहुत लिखी थी. वह चाहता था कि वह लघुकथा में महारत हासिल करें. इसी लिए वह इधरउधर से पैसे का इंतजाम कर के लघुकथा के पुस्तक विमोचन सह सम्मेलन में शामिल हो कर लघुकथा के गुर सीखने आया था.
कार्यक्रम बहुत भव्य था. इस की भव्यता और उच्चता की तारिफ किए बिना वह नहीं रह सका. लघुकथा के आदरणीय विशेषग्य से मिलते ही उस ने कहा, '' आप ने लघुकथा पर बहुत अच्छी, संक्षिप्त, सरल व सहज बातें बताई. इसे कोई याद रख लें तो वह सफल लघुकथा लेखक बन सकता है. आप के आने से लघुकथा का कार्यक्रम की भव्यता में चार चांद लग गए है. मेरा आप से मिलने का सपना भी पूरा हो गया.'' वह उन के चरणों में झुक गया.
आदरणीय गदगद होते हुए बोले,'' आप तो यूं तारिफ कर रहे हो. मैं तो आजीवन लघुकथा के लिए ही जीया हूं इसलिए मैं ने वही कहा जो मैं ने महसूस किया है.''
वह उन की विनम्रता देख कर चकित था, '' आप का लघुकथा के प्रति समर्पण देखते ही बनता है. मैं भी इस क्षेत्र में नाम कमाना चाहता हूं. आप कोई गुरूमंत्र देने की कृपा कीजिए ताकि मैं भी लघुकथा के क्षेत्र में सफल हो सकूं,'' उस ने जानना चाहा.
'' पहले आप सभी स्तरीय लघुकथाएं खूब पढ़िए. किसी एक क्षण या भाव का विश्लेषण करना सीखिए. लघुकथा का अंत ऐसा करना सीखिए कि मन को झटका लगे. इस के साथ एक बात ध्यान में रखिएगा, लघुकथा का अंत ऐसा करिएगा कि वह पाठकों को कुछनकुछ सोचने को विवश कर दें .'' यह कहते हुए आदरणीय गर्व से हंसे. फिर अपने हाथ में पकड़ी हुई पुस्तक उस के हाथ में थमा दी, '' इसे पढ़िएगा.''
'' आदरणीय ! यह तो आप को सादर भेट है. '' उस ने पुस्तक लौटाते हुए कहा, '' जिस का विमोचन अभीअभी आप ने ही इस समारोह में किया था.''
''अरे ! कोई बात नहीं . इसे आप ही रखिए.'' यह कहते हुए आदरणीय मुस्कराएं तो उस ने प्रश्नवाचाक दृष्टि उन के चेहरे पर गडा दी. ताकि वे जो कह रहे थे उस का अर्थ समझ सके.
वो बोले, ''यह मेरे स्तर की नहीं है. इसे आप रखिए. आप को बहुत कुछ सीखने को मिलेगा,'' कहते हुए आदरणीय आगे बढ़ गए.
और वह विचारों के भंवर में फंसा, लघुकथा की पुस्तक ले कर कभी उन के कहे शब्दों के वजन को मस्तिष्क में और कभी पुस्तक का वजन को हाथ से तौलने की कोशिश कर रहा था
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(18). श्री शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी 
'भंवरनामा"
.
"अब कहां जाने की तैयारी हो रही है, आराम नहीं करना क्या?"
"सर के नोट्स की फोटो-कॉपी करवाने जाना है।"
"लाओ, मैं करवा लाता हूं नज़दीक की दुकान से।"
"नहीं, मैं ख़ुद ही जाऊंगी, सर जो दुकान बताते हैं, वहीं से हम लोग फोटो-कॉपी करवाते हैं।"
"लेकिन वह तो काफी दूर है, ट्यूशन से लौटते वक़्त ही क्यों नहीं करवा ली?"
"दूसरे रास्ते से बाज़ार गई थी फाइल खरीदने।"
"किसलिए, कैसी फाइल?"
"नोट्स रखने के लिए, सर द्वारा बताई गई फाइल, सर की बताई हुई दुकान से खरीदनी होती है हमें।"
"क्यों? क्या सब तुम्हारे सर की ही दुकानें हैं?"
"नहीं, वहां हमें पैसों में कुछ छूट मिल जाती है, सभी बैचों के स्टूडेंट्स वहीं जाते हैं।"
"लेकिन पेट्रोल और टाइम तो तुम्हारा ख़र्च होता है, पड़ोस की सहपाठी सहेली के साथ गाड़ी साझा क्यों नहीं कर लेतीं?"
"वो 'बहिनजी' और मेरी 'सहेली'! क्या बात करते हैं आप भी!"
बाप-बेटी के वार्तालाप में विध्न डालते हुए रसोई से मां आईं और बेटी से बोलीं -"पापा को तो बस यही बातें करनी होती हैं! लो बेटा ज़ल्दी से ये नूडल्स खा लो और जाओ, तुम्हारी अगली ट्यूशन का भी टाइम हो रहा है!"
"ये नूडल्स खिलाती हो इसे, इससे तो 'केंचुआ खाद' भी न बनेगी! कुछ पौष्टिक चीज़ें खिलाया करो!" पिताजी लबालब भरे कटोरे को देखते हुए बोले।
दो-चार चम्मच नूडल्स मुंह में उड़ेलकर बिटिया स्कूटी की तरफ़ लपकी।
"वहीं से ट्यूशन जाओगी, ये कसे हुए पारदर्शी से कपड़े तो बदल लेतीं!"
"पापा, कब सुधरोगे आप! सभी लड़कियां ऐसे ही कम्फर्टेबल कपड़े पहन कर ट्यूशन जाती हैं आजकल!"
"लेकिन लड़के भी तो आते होंगे वहां! तुम्हारे बैच में कितने स्टूडेंट्स हैं?"
"वन ट्वेंटी, पापा!"
"बाप रे! ट्यूशन में कुछ पल्ले पड़ता भी है?"
बाप-बेटी के वार्तालाप में विध्न डालते हुए सौ का नोट बिटिया को देती हुई मां बोलीं- "बेटी पर यकीन नहीं है, तो उसकी मार्कशीटें एक बार फिर से देख लो!"
"कौन सी मार्कशीटें? पब्लिक स्कूल वाली, बोर्ड परीक्षा वाली या फिर प्रतियोगिता परीक्षाओं वाली?"
यह सुनकर मां-बेटी एक-दूसरे की शक्लें देखने लगीं।
विध्न डालते हुए वे बोले- "ये सौ का नोट किसलिए?"
"वो क्या है पापा, ट्यूशन से लौटते समय बर्गर खायेंगे, आज मेरा टर्न है न!" यह कहते हुए बिटिया ने स्कूटी स्टार्ट की और फुर्र हो गई।
"तुम नहीं सुधरोगी, न उसे सुधरने दोगी!" ग़ुस्से में दरवाज़े की कुण्डी लगाते हुए वे पत्नी से बोले।
"तुम तो बस अपने घिसे-पिटे उसूलों में फंसे रहो!" बड़बड़ाते हुए पत्नी ने कहा।
"तुम तो बस उल्लू बनती रहो और मुझे उल्लू बनाती रहो! कभी सोचा भी है कि तुम कहां फंस रही हो? होड़ और लाड़ में बिटिया को कैसा बना रही हो, उसे कहां फंसा रही हो?"
"कोई कहीं नहीं फंस रहा! ज़माना बदल रहा, सो बच्चों को हम बदल रहे हैं!" हर बार की तरह पति की ओर आंखें तरेर कर वे बोलीं- "फंसे तो हम हैं तुम जैसे पिछड़े लोगों में!"
--------------------------------------
(19). सुश्री बरखा शुक्ला जी 
मूक वादा


नेहा के पति की दुर्घटना में मौत हो गयी थी ।एक साल की बेटी के साथ जैसे तैसे वो इस सदमे से बाहर निकलने की कोशिश कर रही थी । दोपहर में बेटी के साथ लेटी थी कि उसने देखा ,बेटी की दूध की बॉटल ख़ाली है ,वो बेटी के लिए दूध लेने किचन में जाने लगी । तभी सास के कमरे से आवाज़ आयी , वो उसके देवर से बोल रही थी ",देख तू नेहा से शादी के लिए तैयार हो जा , तू अभी बेरोज़गार है ,तुझे तेरे भैया की जगह नौकरी मिल जायेगी ।"
"नौकरी के लिए शादी करना ज़रूरी है क्या । "देवर बोला ।
"वैसे नौकरी पर पहला हक़ उसी का है । तू उसकी और बेटी की ज़िम्मेदारी उठाने को तैयार हो जा ,मैं उसको मना लूँगी । और शादी के कुछ साल बाद छोड़ देना उसको । वैसे भी उस मनहूस को मैं ज़्यादा दिन नहीं झेल सकती । "इसके आगे नेहा सुन न सकी । दूध लेकर कमरे में आयी तो माँ का फ़ोन आ रहा था । माँ ने हाल चाल पूछने के बाद पूछा ,"दामाद जी के बीमे के रक़म कब मिल रही है  । तेरा छोटा भाई बिज़नेस करना चाहता है ।तू अभी रुपए दे देना , फिर वो वापस कर देगा । और हाँ दामाद जी ने एक फ़्लैट भी बुक किया था न इंदौर में ,तेरे बड़े भैया का वहाँ तबादला हो गया है , वो उसी फ़्लैट में रह लेंगे । "बेटी उठ कर रोने लगी थी , तो नेहा ने बाद में फ़ोन करने का बोल कर फ़ोन काट दिया ।
उसे दूध की बॉटल दे नेहा सोचने लगी , उसे इस हादसे से निकाल कर संभालने की जगह उसके अपने ही उसके लिए जाल बुन रहे है । पर नहीं वो अपने आपको इस भँवर में फँसने नहीं देगी ।  ये मूक वादा उसने अपनी बेटी से कर लिया है। 
-----------------------------------
(20). सुश्री  नयना(आरती)कानिटकर जी 

"दो कप"-

अंगडाई लेते हुए व भी किचन में चला आया था।  हुर्रे!! आज तो छुट्टी है. वह भी तो बडी मन ही मन खुश हो ली  थी।  फिर दोनो   इधर- उधर की बातें करने लगे थे।
" चलो! आज संग में एक-एक कप कॉफ़ी   हो जाए वर्ना रोज तो...."
"हा! हा! क्यों नहीं " उसने  भी तो ईठलाते  हुए  दूध उबालने रख कर दिया था कि तभी डोर बेल घनघनाई  थी।
"सर! है क्या घर में " ---इधर कॉफ़ी भी तैयार थी
"आइए -आइए एक-एक कप..."
"नहीं-नहीं!, ...अच्छा चलो आधा कप चाय चल जाएगी।"  आने वाले ने कहा था
उसने  दो कप चाय बनाकर भेज दी थी।  उन्होंने भी मेहमान के साथ चाय पी ली थी. .
आगंतुक के चले जाते ही उनका ध्यान भी " अरे! ये कप... ओह अभी तो उनके साथ..."
वो चुपचाप    उठकर  जाने लगी तो  तभी उसका हाथ पकड़ कर उन्होंने कहा   "तुम कितनी स्वीट हो, मेहनती भी "I love..."
वो अभी "हूँ" कहती ही  कि मोबाइल की घंटी बज उठी।  थोडा ही तो बचा था "you" तक पहुँचना और फिर" अभी आता हूँ" कहकर वह निकल गया था।
  माँ-बाबूजी, बच्चों को खाना देते  उसने अपने अंदर के काले बादलों को सिल्वर लाईन से ढँक दिया था।  क्या सच में आज छुट्टी थी. वैसे भी अब उसने उमंगना तो छोड ही दिया था।
आँख खुली उसकी उसने अपने आप को टेबल पर ही अपने हाथों की तह के बीच सोता पाया था।
"अरे! आप कब आए।  कब आँख लग गई पता ही नहीं चला।" वो अपराध बोढ से भर उठी थी।
"अरे  सुनो! जब में घर में आया , जी.एस. टी सेमीनर के तुम्हारे महत्वपूर्ण  पेपर्स पूरे घर मे नृत्य कर रहे थे। समेट कर रख दिए है उस थैली में। सच में बडी बेपरवाह हो तुम ।"
उसके एहसान का बोझ लेकर वह उठी  ही थी कि  उसकी नजर डाइनिंग टेबल पर अटक गई. 
काफी के दो कप "कोस्टर" ओढे मुँह बंद किए हुए अभी भी इंतजार में थे.

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बहुआयामी महत्वपूर्ण विषय पर बेहतरीन लघुकथाओं के साथ सफल गोष्ठी के संचालन और संकलन हेतु सादर हार्दिक बधाई और आभार आदरणीय मंच संचालक महोदय श्री योगराज प्रभाकर जी। सभी सहभागी रचनाकारों को हृदयतल से बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
क्रमांक 18 पर मेरी रचना में शीर्षक बदलना चाहता हूँ । आपके सुझाए बेहतरीन सटीक शीर्षक के साथ ही मैंने भी एक शीर्षक सोचा है, अवलोकन कर कृपया यथोचित शीर्षक प्रतिस्थापित कर दीजिएगा :

'भंवरनामा' (लघुकथा) :
'भंवर से बाख़बर या बेख़बर' (लघुकथा) :
'बाख़बर या बेख़बर' (लघुकथा) :

इसके अलावा, यदि आप उचित समझें तो इस संवाद में तनिक यह बदलाव कर दीजिएगा:

"वहीं से ट्यूशन जाओगी, ये कसे हुए पारदर्शी से कपड़े तो बदल लेतीं!"
"पापा, कब सुधरोगे आप! सभी लड़कियां ऐसे ही कम्फर्टेबल कपड़े पहन कर ट्यूशन जाती हैं आजकल!"
मुहतरम जनाब योगराज साहिब,ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्टी अंक 27 के त्वरित संकलन तथा कामयाब संचालन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें

हार्दिक आभार आ० तसदीक़ अहमद खान साहिब.

यथा निवेदित तथा संशोधित. 

त्वरित संशोधन के लिए सादर हार्दिक धन्यवाद आदरणीय मंच संचालक महोदय श्री योगराज प्रभाकर जी।
आदरणीय भाई साहब इस बार लघुकथा बहुत अच्छी आई. आप की लघुकथा सब से उम्दा रही है. हर बार की तरह आयोजन अच्छा रहा. आप का मार्गदर्शन हर बार की तरह उम्दा रहा हैं . जिस तीव्रता से आप गोष्ठी की समाप्ति पर संकलन निकालते हैं वह लाजवाब हैं. इस की जितनी तारीफ की जाए, उतनी कम हैं. इस हेतु आप को हम सब की ओर से हार्दिक बधाई .

रचना की पुन: प्रशंसा एवं संकल पोस्ट करने पर हौसला अफजाई का दिल से शुक्रिया आ० ओमप्रकाश भाई जी. 

ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक - २७ के सफ़ल संचालन, त्वरित संपादन और प्रकाशन हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी।

उत्साहवर्धन के लिए दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ आ० तेजवीर सिंह भाई जी. 

आदरणीय योगराज प्रभाकर जी आदाब, लघुकथा गोष्ठी अंक-27 के सफल आयोजन,कुशल संपादन,निरपेक्ष भाव की टिप्पणियों के लिए हार्दिक बधाई और शुभ-कामनाएँ । निश्चित रूप से इस अंक में बेहतरीन और अनछुए विषयों पर सशक्त लघुकथाएँ आईं । यह आयोजन पूरी तरह से सफल आयोजन रहा इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है । पुनश्च बधाई ।

आपकी बधाई सर-आँखों पर. आपने बिलकुल सही फरमाया आ० मोहम्मद आरिफ साहिब कि यह आयोजन कई मायनों में अनूठा रहा. कई अनछुए विषयों पर साथिओं द्वारा कलम आजमाई करना एक शुभ संकेत हैI  


सारी लघुकथाओ का आलेखन बढीया तरीके से हुआ है.. मैं यहां नया ही जोईंट हुआ हुं. ज्यादातर कथाए मैने गुजराती में लिखी है. हिंदी में अभी ट्राय करुंगा. 

सुश्री कल्पना भट्ट जी की कठपुतली मुझे बेहद पसंद आयी.

धन्यवाद.

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