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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-35 में स्वीकृत रचनाएँ

(1). आ० सुनील वर्मा जी.
विलयन

सेवानिवृत्त देवदत्त बाबू। उम्र के उस ढलान बिंदु पर खड़ा हुआ आदमी जहाँ गाड़ी चलती नही लुढ़कती है। अक्सर अपने कमाये ज्ञान को कंधे पर लिए ऐसे घूमते रहते कि जैसे नये लहसुन की गठरी लिए कोई देहाती शहर की गलियों में उसे बेचने निकला हो। उस पर ठप्पा यह कि 'भइई, हम तो सीधा मुँह पर कहने वाले आदमी हैं। किसी को बुरा लगे तो लगे।'
घर में किचकिच बढ़ने लगी तो परेशान परिवार ने समझदारी दिखायी और एक फोन दिलाकर उनका वास्तविक दुनिया से अलग आभासी दुनिया में नामांकन करवा दिया।
देवदत्त बाबू के सामने अब अथाह सागर था जिसे उन्हे अपने ज्ञान से भरना था। बड़े उत्साह से वे अपना ज्ञान उस सागर में उंडेलने लगे। मगर भूल गये सामने भी सागर था। जिसका स्वभाव है कि वह अपने भीतर कुछ नही रखता बल्कि जब लौटाता है तो लहरों के संग अपने भीतर का अपशिष्ट भी दे जाता है।
हुआ भी वही, उनके ज्ञान कलश का जल यहाँ भी अघुलनशील ही रहा। थक गये तो गीले तलवे लेकर घर वापस आ गये।
नींद आँखों से कोसों दूर थी। फोन को बंद किया और कंधे पर रखे ज्ञान को उतार कर अपने सिरहाने रखा। चिंतावश सोचने लगे "जबान का कड़वा हूँ तो क्या हुआ? कहता तो सही ही हूँ न! क्या ऐसा कोई नही है जिससे मेरी सोच मिले ?"
सहसा कमरे में बहू दूध का गिलास लेकर दाखिल हुई। नियत समय से देर हो रहे कार्य को देखकर देवदत्त बाबू उबले। फिर आदतन ज्ञान उंडेलने के लिए अपने सिरहाने की तरफ हाथ बढ़ाया कि ध्यान बहू के हाथ में पकड़े दूध के गिलास की तरफ गया। किनारे तक भरे गिलास में चम्मच के साथ घुल रही चीनी उन्हें कुछ समझाती हुई सी लगी।
कड़वाहट निगलकर इस बार उन्होंने मधुर शब्द उगले "तुम थक गयी होगी बहू। रहने दो। मैं कर लूँगा।"
प्रत्युत्तर में वह भी मुस्कुराहट के साथ इतना ही कह पायी "जी बाबूजी।"
नींद की देहरी तक जा पहुँचा देवदत्त बाबू का दिमाग अध्यापन क्षेत्र में बिताये उनके सेवारत दिनों में जा पहुँचा। कक्षा में पढ़ाये उनके सब़क अब द्विवास्वप्न की तरह उनके सामने चल रहे थे "बच्चों, विलेय और विलायक दोनों के समांगी मिश्रण से ही एक संतृप्त विलयन बनता है।"
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(2). आ० तसदीक़ अहमद  खान जी 
आखरी सज़ा
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सेठ धर्मी चन्द की गिरफ्तारी की खबर सुनते ही क़स्बे के कुछ पत्रकार और नगरवासी थाने में पहुँच गये | वहाँ मौजूद पुलिस ने उन्हें अंदर जाने से रोक दिया | सब एक आवाज़ में बोल पड़े "हमें इनस्पेक्टर साहिब से गिरफ्तारी के बाबत पूछना है "
इनस्पेक्टर का इशारा मिलते ही कुछ लोग अंदर पहुँच जाते हैं | पहले एक पत्रकार पूछता है ,"सेठ जी यहाँ के प्रतिष्ठित आदमी हैं,इनकी पहुँच ऊपर तक है ,इन्हें किस जुर्म में गिरफ्तार किया है ?"
इनस्पेक्टर ने जवाब में कहा " क़स्बे में जुआ ,सट्टा ,नक़ली दवाओं का काम ,सरकारी राशन में हेरा फेरी आदि गैर क़ानूनी काम इनके इशारे पर हो रहे हैं "
दूसरे पत्रकार पूछने लगा ,"आपके पास इसके सुबूत हैं ?"
इनस्पेक्टर ने फ़ौरन जवाब दिया "इनके खिलाफ गवाह, फोन रेकॉर्डिंग ,हेरा फेरी के दस्तावेज मेरे पास हैं"
बीच में एक और आदमी कहने लगा " आगे आप क्या करेंगे ?"
जवाब में इनस्पेक्टर ने कहा ,"कल अदालत में पेश करके इन्हें रिमांड पर  लेंगे ?"
पीछे एक बुज़ुर्ग आह भरते हुए बोलने लगे ,"इनस्पेक्टर साहिब ऊपर वाले के यहाँ देर है अंधेर नहीं , सेठ जी ने कई साल पहले जब मुझे इनके काले कारनामों का पता चला तो मुझे चोरी का झूठा  इल्ज़ाम लगा कर सज़ा करवा दी थी और नौकरी से निकाल दिया था "
तब से ही मैं निराशा भरे जीवन में यही  स्वप्न  देख रहा हूँ कि कब मेरे अपमान का बदला पूरा होगा "
इनस्पेक्टर ने बुज़ुर्ग से कहा ," लेकिन आपका इस में क्या फ़ायदा हुआ ?"
बुज़ुर्ग ने लंबी साँस लेते हुए जवाब में कहा:
"आपने इन्हें गिरफ्तार करके मेरे द्वारा निराशा भरे जीवन में देखे गये स्वप्न को ताबीर बख़्श दी "
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(3). आ० महेंद्र कुमार जी
गुनाहों का हिसाब

जिस दिन का वह क़ब्र में पड़े-पड़े बरसों से इन्तज़ार कर रहा था आखि़र वो आ ही गया। मुर्दे जी उठे। लोगों से ठसाठस भरे मैदान में पाॅल ने अपनी नज़रें दौड़ायीं। हर तरफ़ बस एक ही सवाल तैर रहा था, ‘‘किसे जन्नत नसीब होगी और किसे दोज़ख़?’’ हालांकि यह सवाल पाॅल के लिए, जिसने जीवन में एक मच्छर भी नहीं मारा, उतना कठिन नहीं था।
धोख़ेबाज़ विक्टर पुल के पास खड़े हो कर सिगरेट के कश लगा रहा था। विक्टर ने अनगिनत अपराध किये थे उन्हीं में से एक पाॅल की सम्पत्ति और उसकी प्रेमिका जेसिका को धोख़े से हथियाना भी था। ‘‘तुम्हें मैंने अपने भाई की तरह माना विक्टर और तुम्हीं ने मुझसे...’’ हमेशा की तरह अपनी कुटिल मुस्कान बिखेर कर विक्टर ख़ामोश था। ‘‘मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था जेसिका कि तुम मेरे साथ ऐसा करोगी।’’ पाॅल को जेसिका से, जिसने विक्टर की तरह ही पॉल को धोख़ा दिया था, बेपनाह मुहब्बत थी।
धीरे-धीरे लोगों ने न्याय के पुल पर चढ़ना शुरु किया। इससे पहले कि विक्टर की सिगरेट ख़त्म होती जेसिका उसके पास थी। उसने विक्टर के होठों से सिगरेट को ले कर अपने होठों से लगाया और फिर पाॅल की तरफ़ देखा। अब तक विक्टर के हाथों में जेसिका का हाथ आ चुका था। दोनों न्याय के पुल की तरफ़ चल दिये। आजीवन सबकुछ चुपचाप सहने वाला पाॅल आशान्वित था, ‘आज तो इनके गुनाहों का हिसाब होगा ही।’
मगर विक्टर और जेसिका, जिन्हें पुल के बीच में ही गिर कर नर्क पहुँच जाना था, पुल पार कर चुके थे। पाॅल हैरान था। ‘ये पापी स्वर्ग कैसे पहुँच सकते हैं?’
थोड़ी ही देर में देश के प्रसिद्द लुटेरे, बलात्कारी, बड़े-बड़े भ्रष्टाचारी और सामूहिक हत्यारे, सभी के सभी पुल के पार थे। ‘‘असम्भव! ये कैसे हो सकता है?’’ पाॅल ने अपना पसीना पोछते हुए कहा।
मैदान में खड़े बाकी लोग भी हतप्रभ थे। वे डर के मारे पुल से दूर भागने लगे। तभी कुछ अजीब से लोग वहाँ आये और लोगों को पकड़-पकड़ कर पुल पर ले जाने लगे। पसीने से तर-ब-तर पाॅल सोच रहा था कि जब उसने कोई गलत काम किया ही नहीं तो वो दोज़ख़ में कैसे जाएगा।
फरिश्तों ने पाॅल को उठाया और पुल के बीच ले जा कर छोड़ दिया। पाॅल ने जैसे ही पहला कदम बढ़ाया वो पुल के नीचे था। इससे पहले कि नर्क की आग उसे पूरी तरह झुलसाती वह ज़ोर से चीख़ा, ‘‘ये दुनिया ईश्वर ने नहीं बल्कि शैतान ने बनायी है।’’
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(4). आ० प्रतिभा पाण्डेय जी
गुब्बारे में सुई
 
‘’पूरी तैयारी है सर जी I चिंता मत करिए सब संभाल लूँगा I  बस आप भी इस बार इस सेवक का ध्यान रखना I प्रणाम I’’ फोन बंद करते हुए जगदीश भैया के चेहरे पर चमक थी I
‘’आपके नेतृत्व में आज का ये मामला अच्छे से गर्म हो ले बस I फिर तो देख लेना  भैया जी,कोई नहीं रोक सकता आपका टिकट इस बार I’’ एक चमचा टाइप कार्यकर्ता पीछे खड़ा खींसें निपोर रहा था I  उसको नज़रंदाज़ कर भैया जी ने आँखों पर काला चश्मा चढ़ा लियाI
 धरने की तैयारी पूरी थी I बस इंतज़ार था उस कार्यकर्ता का जो पीड़ित परिवार के कुछ लोगों को लेकर आने वाला था I
‘’कितनी देर कर दी राघव ! और बाकी लोग कहाँ हैं ?’’कार्यकर्ता को अकेले  आया देख भैया जी बेसब्र हो गए  I
‘’भैया जी गल्ती हो गई I जैसा आप सब सोच रहे हैं वैसा कुछ नहीं है I’’राघव अटक अटक कर बोल रहा था I
“मतलब ?’’                                                  
“ मतलब वो किसान नहीं था I छोटी सी परचून की दुकान चलाता था और .. I’’
‘’ और  क्या ?’’ भैया जी का  चेहरा लाल होने लगा  था I
‘’जात भी ठीक थी I उसके दादा जी कभी मंदिर के पुजारी हुआ करते थे I’’ राघव ने हकलाते हुए थूक गटकाI
“और आत्महत्या ?’’ भैया जी हाँफते हुए कुर्सी पर बैठ गयेI
“नहीं कुछ नहीं I बीमारी से मरा  है I पर भैया जी एक बात पक्की है I’’ राघव डरता डरता उनके पैरों के पास बैठ गया I
‘’अब क्या पक्का बचा है ? सब कुछ तो तहस नहस हो गया I’’ भैया जी दांत पीसने लगे I
“ बहुत गरीब था वो I घर में खाने के लाले थे I दवाई कहाँ से आती I क्रिया कर्म के लिए भी आस पास वाले चंदा कर रहे थे I”
 राघव की भर आई आँखों को घूर कर देखते हुए भैया जी झटके से खड़े हुए और राघव का गरेबान पकड़ लिया I
 ‘’बहुत गरीब था के बच्चे I  हमारे किस काम की उसकी गरीबी ! चाटें क्या उसकी गरीबी को ! बोल ..बोल I’’ राघव को झंकझोरते हुए भैया जी चीख रहे थे I आँखों में थोड़ी देर पहले देखे सपनों के टूटने का गुस्सा लाल डोरे बना रहा था I
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(5). आ० मोहम्मद आरिफ जी
संन्यास
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मेरे प्यारे मम्मी-पापा ,
नमस्कार !
उम्मीद करती हूँ आप खुश होंगे । आपकी लंबी उम्र की हृदय से कामना करती हूँ ।
बहुत दिनों से बेचैनी की आग में जल रही हूँ ।
इस आग ने दिल ही नहीं आत्मा को भी झुलसा कर रख दिया है। उस घटना को लाख भुलाने की कोशिश की मगर भूला नहीं सकी । अंदर से इस जीवन से धिक्कार की हूक-सी उठती है । आपने मेरे लालन-पालन में कोई कौर-कसर नहीं छोड़ी । बेटी होने पर भी मुझ पर दुगुना अभिमान किया ।
लाखों रुपये खर्च कर एमबीबीएस करवाने का फैसला लिया ।मैंने भी आपको तरह-तरह के सपनें दिखाएँ और कहा था कि बहुत बड़ी डॉक्टर बनूँगी और लोगों की सेवा करूँगी । दौलत-शोहरत बटोरूँगी ।
मुझे क्षमा करना । यह सब नहीं हो सकेगा । जिस दरिंदे ने मेरे साथ गलत किया था तब से मेरा मन कहीं नहीं लगता है । मेरी अंतर्रात्मा कहीं ओर चलने का कहती है । अब मैं अपना जो निर्णय बताने जा रहीं हूँ शायद उसको सुनकर आपके पैरों तले की ज़मीन खिसक जाए । मैं सांसारिक जीवन से संयमित जीवन में प्रवेश करना चाहती हूँ अर्थात् संन्यास लेने जा रही हूँ । आचार्य निश्छल सागर से दीक्षा ले रही हूँ । उन्होने मुझे नाम भी दे दिया है ' साध्वी कनकप्रिया।'
क्षमा के साथ ।
आपकी लाडली बेटी
सुरभि
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(6). आ० डॉ संगीता गांधी जी
मृग मरीचिका
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“ उफ्फ ,कितनी गर्मी है ।”
यही सोचते हुए अविका किसी काम से बाहर निकली ।
सड़क पर जमघट लगा था |
अविका ने  भी रुक कर देखा:
एक महिला और पुरुष तमाशा दिखा रहे थे। साथ थी 8 या 9 साल की बच्ची ।
इतनी गर्मी में नंगे पाँव !
कभी रस्सी और और कभी गोल चक्कर पर करतब दिखा रही थी |लोग  तालियाँ बजा रहे थे |तमाशा ख़त्म हुआ।
सिक्के फेंके गए !महिला और पुरुष ने सिक्के इकट्ठे किये ।
भीड़ छंट गयी |
अविका भी चलने लगी ।उसे पास से गुजरती बच्ची की आवाज़ सुनाई दी ।
“माँ-बाबा पाँव जल रहे हैं।”
स्त्री-पुरुष दोनों ने झिड़क दिया :
“चुप जितना दर्द दिखेगा, उतने पैसे ज्यादा मिलेंगें।”
अविका को शिक्षा के अधिकार ,सुकन्या योजना ,लाडली योजना, नवरात्रों पर कन्या पूजन,बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ -ये सभी दिवास्वप्न से प्रतीत हो रहे थे।
अपनी सारी हिम्मत बटोर कर अविका ने आवाज़ उठायी:
“तुम लोग एक बच्ची का इस प्रकार शोषण नहीं कर सकते।”
वो तमाशे वाले स्त्री - पुरुष का रास्ता रोक कर खड़ी हो गयी।
“ तो ! क्या करेंगी आप ?”
स्त्री ने आँखें तरेर कर कहा ।
“ओ मैडम जी , ज्यादा सुधारक न बनो। इतनी फिक्र है बच्ची की तो अपने घर ले जाओ ।हमारे पाँच बच्चे हैं ।किसी ओर से तमाशा करवा लेंगे!”
अविका चुप सी रह गयी । अपनी दो बेटियों को ही बड़ी मुश्किल से ससुराल वालों से बचा पायी थी।
वो इस बच्ची को कहाँ रखने देंगें !
मन में आया ” पुलिस बुलाऊँ ?”
फिर ख्याल आया: पुलिस बच्ची को किसी अनाथ आश्रम या सुधार गृह में भेज देगी ।उससे क्या होगा ?
संस्था वाली उसकी सहेली ने बताया तो था : ” इन जगहों पर बालिकाओं  का कैसा घ्रणित शोषण होता है !”
अविका ने नज़र भर कर बच्ची को देखा। अपने रास्ते चल पड़ी। बच्ची जलती ज़मीन  पर गर्मी से पिघलते पाँव सहलाते हुए फिर तमाशा करने को आगे बढ़ गयी |
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(7). आ० मनन कुमार सिंह जी
फिर से
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-फिर क्या हुआ?
-‎होता क्या?उसने दूसरी बीबी रख ली।
-‎बस ऐसे ही?
-‎और क्या?फिर मैं मायके आ गयी।
-.....पर सच कहना पाप तो नहीं है,काली।
-‎सच है बाली।पर सच कटु होता है न, बरदाश्त के बाहर....है कि नहीं?
-‎सो तो है।
-‎पराई नारी-प्रसंग का बखान,वह भी सगी पत्नी के मुँह से,कितने मर्द बरदास्त करेंगे?...बोली तो।
-‎सो तो है।
-‎छोड़ी भी यह सब।अपनी कहो।
-‎उसके दिल में शायद कोई दूसरा देवता बस था।किंचित अभी शादी करना भी नहीं चाहती थी।
-‎और घरवालों ने जल्दी कर दी।यही न?
-‎सही समझ तूने काली।
-‎फिर?
-‎बच्ची हो जाने और कहाँ वह कुछ स्थिर होती,और ही चंचल-मन होने लगी।दिमाग से पैदल हो गयी।
-‎फिर?
-‎फिर क्या ?तब तो हद ही हो गयी,जब बच्ची को लेकर वह घर से निकल गयी।
-‎-और अब?
-‎बगल में फुआ के घर पर थी।घर लायी गयी।फिर इसके मायकेवाले ले गए।सारी दवाएँ भी अब उन लोगों ने छुड़वा दी हैं।हमें मिलने भी नहीं देते।
-‎बच्ची?
-‎माँ के पास दिल्ली में है।दादी को ही माँ मानती है।
-‎हमारे नियम भी एकतरफा हैं।लड़कीवालों के पक्ष में ज्यादा मजबूत हैं वे सब।और लंबे इतने कि जिंदगी लग जाये,इंसाफ की आस में।
-‎पर क्या करेंगे?नियम नियम हैं।बस पालन करना है हमें।
-तोड़ तो सकते  हैं न?
-‎वह सब मजबूत लोग करते हैं।
-‎हम हैं।
-‎क्या?
-‎मजबूत।
काली ने बाली के गले में बाजूहार पहना दिया।
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(8). आ० विनय कुमार जी
मनोरंजन
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जंगल से गुजरते हुए उसकी निगाह सड़क के चारो तरफ घूम रही थी. प्रकृति के बीच रहना उसे बहुत अच्छा लगता था और जैसे ही मौका मिलता वह निकल पड़ता. अचानक उसकी निगाह सड़क के किनारे बैठे एक स्थानीय आदिवासी युवक पर पड़ी जो गुलाबी पगड़ी पहने बैठा हुआ था. उसके सामने पांच छह मुर्गे थे और एक बड़ा सा झोला भी था. बढ़िया फोटो आएगी, उसने सोचा और ड्राइवर को रुकने के लिए कहा. युवक ने उसकी तरफ प्रश्नवाचक निगाह डाली और कुछ पूछता उसके पहले ही उसने पूछ लिया "ये मुर्गे क्यों लेकर बैठे हो यहाँ?
"आगे हाट में लेकर जाना है बेचने के लिए", युवक ने आशाभरी निगाहों से उसकी तरफ देखते हुए कहा.
"तो तुम्हारा घर यहीं कहीं होगा!, उसने पूछा तो युवक ने बताया कि कोई ५ किमी दूर है.
"फिर यहाँ क्यों बैठे हो और कैसे आये यहाँ?, उसकी उत्सुकता थोड़ी बढ़ गयी थी.
"किसी गाड़ी वाले ने यहाँ तक पहुंचा दिया, अब हाट तक के लिए भी कोई और गाड़ी ही मिल जाएगी", युवक ने बताया.
उस स्थानीय आदिवासी युवक के साथ उसने झट से चार छह फोटो, एकाध सेल्फी भी ली और फिर चलने को हुआ.
तभी उस युवक ने विनती के स्वर में पूछा "साहब हाट की तरफ जा रहे हो तो हमको भी लेते चलो".
उसके कदम ठिठके, थोड़ा गुस्सा भी लगा. फिर उसकी निगाह अपने ड्राइवर की तरफ पड़ी, वह भी मना करता लग रहा था.
"नहीं भाई, उधर नहीं जा रहा हूँ", कहते हुए वह गाड़ी में बैठा और गाड़ी आगे बढ़ गयी.
"थोड़ा प्यार से बात करलो तो कुछ भी सोच लेते हैं लोग" बुदबुदाते हुए साइड मिरर से उसने देखा, पीछे उड़ती धूल में वह युवक खो गया था.
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(9). आ० सीमा सिंह जी
बस इतना सा ख्वाब है...
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"सर हम सब फ्रैंड्स ने मूवी का प्लान बनाया है,प्लीज़ अगर आज हाफ डे की लीव मिल जाती तो..."
मिताली ने सकुचाते हुए बॉस के चैम्बर में प्रवेश कर हाथ पीछे बांध कर पूछा,उंगलियाँ किसी अप्रिय उत्तर का काट करने के लिए क्रॉस की हुई थीं।
"क्यों नहीं मिस मिताली! मैं समझ सकता हूँ आखिर आप मेरी बेटी की उम्र की हैं। कभी तो मन करता होगा अपनी उम्र के अनुसार जीवन जीने का! ज़रूर जाइये।"
"बॉस को बेकार ही खड़ूस कहती रहती हूँ ये बेचारे तो कितने अच्छे हैं।" मन ही मन बुदबुदाती हुई मिताली ने अपनी मित्रों को थम्प्स-अप का इशारा किया।
काँच के केबिन के पार से देखती हुई सभी नज़रों में खुशी की लहर दौड़ गई।
लड़कियाँ चहकती हुई ऑफिस से निकल बस की ओर लपकी, उनकी बाकी की साथी बस स्टैंड पर ही मिल गईं। दस लड़कियाँ एक साथ बस में चढ़ी दो चार सीट खाली थी, बची हुई लड़कियाँ भी जगह बनाकर बैठने सफल हो गई!
हँसते-मुस्कुराते आराम से मॉल तक का सफर तय किया। मॉल में भीड़- भाड़ देख एक बोल उठी,"बाप रे इतनी भीड़,यार ये फिल्म नही मिल पाएगी!"
"यहाँ तक आएं हैं तो एक बार कोशिश करने में क्या हर्ज है?" बोलती हुई मिताली टिकटघर की ओर बढ़ गईं,लाइन बहुत लम्बी थी। मगर इतनी लड़कियों को एक साथ देखकर खिड़की के आस पास की भीड़ काई की तरह छँट गई,
"प्लीज़, पहले आप टिकट ले लीजिए!" टिकटघर की खिड़की पर लगे लड़के ने मुस्कुराकर मिताली को जगह दी तो उसने अचकचा कर उस लड़के के ठीक पीछे खड़े,अधेड़ उम्र व्यक्ति की ओर देखा, उस व्यक्ति ने भी सिर हिलाकर अनुमति दे दी, फिर तो मिताली की तो जैसे बांछे खिल गई।
टिकट लेकर हवा में हिलाकर दिखाती,मित्रों के बीच खड़ी मिताली अपने आप को ही सुपर स्टार से कम महसूस नही रही थी।
थियेटर में घुप्प अँधेरा था, ऊपर की साँस ऊपर नीचे की नीचे थी कि अचानक किसी ने मोबाइल की रौशनी दिखाकर उनलोगों को उनकी सीट तक पहुँचा दिया।
फिल्म शुरू हुई थी कि बगल की सीट पर बैठे दो युवकों पर एक नज़र डाल बारी बारी से घूरा तो बेचारे खुद ही उठ कर दो सीट छोड़कर बैठ गए!
मिताली का मूड बहुत अच्छा हो गया था फिल्म देखने से पहले ही, फिल्म में हँसी के दृश्य बहुत खुल कर एन्जॉय कर थी कि अचानक आसपास के सभी लोग ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे, मिताली ने घूर कर देखा पर्दे पर तो गम्भीर दृश्य चल रहा है, ठहाका फिर से गूँजा, उसने सिर घुमा कर देखा तो स्वयं को ऑफिस की सीट पर पाया। पूरा स्टॉफ उसी को घूर रहा था।
चपरासी ने ज़ोर से फाइल टेबल पर पटकते हुए कहा,
"क्या मैडम खुली आँखों से सो रही हैं क्या? सर ने बोला है,ये फाइल आज ही रेडी करनी है आपको!आज भी ओवर टाइम रुकना ही होगा।"
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(10).  आ० जानकी वाही जी
प्रतिदान
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" दीपक ,संभल कर चलाओ ,एक तो कच्ची टूटी-फूटी सड़क ऊपर से तुम्हारी स्पीड ?मेरी कमर का तो कचूमर हो गया।अब कितनी दूर है तुम्हारे ननिहाल का गाँव?" सुरभि की आवाज़ में दर्द के साथ थोड़ी चिड़चिड़ाहट झलक रही थी।बड़े शहर में पली-बढ़ी थोड़ी भी परेशानी विश्वव्यापी समस्या बन जाती थी उसके लिए।
" बस थोड़ी दूर और फिर गाँव की अमराई की ठंडी छांव में वहाँ के पनघट का मीठा और ठण्डा पानी पियोगी तो सारी थकान भूल जाओगी।" फिर सुरभि की उफ...आह को नज़रअंदाज़ कर गुनगुनाने लगा।
"सास मोर मारई ननद ललकारई
मैं बैठी रोऊँ बलम लेई कनिया
मैं फैशन वाली बलम मोर बनिया..."
" दीप, प्लीज बन्द भी करो अपना ये बेसुरा गाना।मेरी तो ये समझ मे भी नहीं आ रहा क्या रखा है इस गाँव में जिसके लिए तुम्हारे दो दोस्त विदेश से भी आ रहे हैं?"
" हम अपने पुराने शिक्षक से मिलने जा रहे हैं वर्षों हो गए उन्हें देखे।"
" शिक्षक से मिलने? ऐसा क्या है उनमें? यही था तुम्हारा स्टुपिड सरप्राइज़?" " सुरभि ने दीप को ऐसे घूरा मानों उसके सिर पर सींग उग आए हों।
" जो समझो।वे ऐसे आदमी थे जिन्होनें खुद को और एक निहायत ही पिछड़े गॉंव के मिट्टी में लौटने वाले बच्चों को खुली आँखों से दिवास्वप्न देखना सिखाया। आकाश में अपने पंखों को परवाज़ देना सिखाया।" बोलते-बोलते दीप की आवाज़ भर्रा उठी।
" समझ गई जनाब तो आप तीनों ही वे दोस्त हैं ? और उनसे मिलकर उन्हें धन्यवाद कहने जा रहे हैं।" अब सुरभि को बातों में रस आने लगा।
" नहीं ,हम उनका आभार भला क्या कर सकते हैं सुना है वे आज भी गाँव के बच्चों को धुंधली होती आँखों और झुर्रियों भरे हाथों से अपने सीमित संसाधनों के बल पर सपने देखने की आज़ादी देते हैं। पर आज हम दूसरी वज़ह से जा रहे हैं।
" वो क्या?"
" हम तीनों उस गाँव को गोद ले रहे हैं अब मास्टर जी के सपनों के साथ हमारे सपने भी मिलकर गाँव और बच्चों को ऊँची परवाज़ देंगे। यही हमारा प्रतिदान होगा।"
" मतलब उनके हाथों की मशाल को अपने हाथों में ले रहे हो ? ये जलती रहनी चाहिए। मोरे नटखट पिया। "
अब जिन नज़रों से सुरभि ने दीप को देखा उसमें प्यार की गज़ब ऊँचाइयाँ थी।
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(11). आ० सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी
कड़वी हकीकत
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अस्पताल में बेटियों से घिरे रवि को शुभा ने मोबाइल थमाया। वीडियो कॉलिंग के द्वारा उनका बेटा उनसे मुखातिब होते ही बोल पड़ा
"पापा आप अपना ध्यान रखिएगा। छुट्टी नहीं मिल पाने के कारण मैं नहीं आ पा रहा हूँ। डॉ. साहब से बात हो गयी है। चिंता की कोई बात नहीं है।"
रवि की हालत ज्यादा बात करने लायक न थी, इसीलिए उसने तुरंत मोबाइल शुभा को वापस कर दिया लेकिन उसकी आँखों के सामने पूरा फ्लैश बैक चल रहा था।
चार लड़कियों के पैदा होने के बाद डॉ. ने जब कह दिया था कि शुभा अगर अब माँ बनी तो उसकी जान नहीं बचेगी तो भी एक अदद पुत्र की चाहत में उसने शुभा की जान को खतरे में डाल दिया था। खैर! ईश्वर का शुक्रिया.....।
बेटे को पढ़ाने लिखाने में उसने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। यहाँ तक कि लड़कियों को ज्यादा नहीं पढ़ाया और कम उम्र में ही शादी कर दी, ताकि कम खर्च में सब निपट जाएँ और बेटे के पढ़ाई में पैसे की कोई कमीं न आ पाए। बेटा भी पढ़ने में बहुत अव्वल दर्जे का था। यहीं कारण था कि उम्मीदों को भी पर लग गए थे।
वह अपनी अधूरी इच्छाओं को बेटे के माध्यम से पूरी करना चाहता था। रवि को हमेशा लगता कि उसका बेटा एक दिन जरूर बड़ी कामयाबी हासिल करेगा और हुआ भी ऐसा। बेटे को एम बी ए करने के दौरान ही एक मल्टीनेशनल कंपनी में विदेश में जॉब मिल गयी थी।
जिस दिन बेटे की नौकरी की खबर मिली, उस दिन वह फूले नहीं समा रहा था। पूरे मोहल्ले में जो भी उससे मिलता, बड़े गर्व से अपने बेटे की सफलता की कहानी बताता। मन मे ऐसा लगने लगा कि अब बुढापा बड़ी आसानी से कट जाएगा। बेटे को पढ़ाने में जितनी एड़ियां घिसी हैं, बेटा कामयाब होकर अवश्य उसपर मरहम लगाएगा।
पर हुआ यूँ कि बेटा नौकरी के सिलसिले में जो एक बार विदेश गया, वहीं का हो कर रह गया। अब तो केवल वीडियो कॉलिंग के जरिये ही सप्ताहांत बात हो पाती है। शायद ऊंची उड़ान बेटे को रवि से बहुत दूर उड़ा ले गयी थी।
रवि धीरे धीरे फ्लैश बैक से बाहर आ रहा था और आँखों से आँसुयों की धार भी। इत्तेफाक यह कि उन आँसुयों को पोंछने के लिये बेटे का रुमाल नहीं, बेटियों का आँचल रवि के गालों पर था।
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(12). आ० राहिला जी
ज्यादा सियाना
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निःसंतान और संगनीहीन डुकर , भतीजे और उसकी बहू को ढ़ेरों आशीष देते हुए , परलोक सिधारे थे।
आज उनकी अटारी में गुस्से से फुंकारता उनका का भतीजा अपना आपा खो रहा था।
"तू ! जा और दामोदर चाचा को फौरन बुला कर ला।" बेटा , बाप का आदेश मिलते ही नंगे पैर दौड़ता गया।
"पसीना तो पोंछ लो...,ये बताओ तुमने ठीक से तो सुना था ना?" पत्नी ने संशयपूर्ण भाव से पूछा
" अच्छे से सुना था...खूब अच्छे से सुना था । तभी तो डुकर को दूसरे भाईयों के घर की हवा नहीं लगने दी। पूरे पांच साल तक बुढ़ऊ को पूरी - पकवान में तौला है ।" तभी-
"क्या बात है गौरीशंकर ! क्यूँ बुलाया?" लठिया टेकते हुए दामोदर चाचा ने बखरी में घुसते ही पूछा।
" ये क्या है चाचा ? " उसने चार -चार फुट गहरे खुदे गड्ढों की ओर इशारा करते हुए पूछा ।
"कहाँ क्या है?" उन्होंने ऐनक जरा नीचे खिसका कर ग़ौर से देखते हुए , कंधे उचका कर प्रतिप्रश्न किया।
"बनो मत चाचा! मैनें खुद उस दिन छिप कर आपकी और चाचा की बात सुनी थी । जब आप चाचा से कह रहे थे कि अपने भतीजों को बता क्यों नहीं देते कि अटारी के तल्ले में पुश्तैनी सोना-चांदी गढ़ा है। हो सकता है इसी मोह में वे तेरी सेवाश्रुति कर दें। बोलो , कहा था या नहीं ?" उसने झटके से पसीना झटक कर , आंखे तरेरते हुए पूछा । उसका गुस्सा देख कर बूढ़ा मुस्कुराया और एक हाथ पीछे कमर पर रख, लाठी टेकता हुआ मुड़ कर जाने लगा।
"जाते कहाँ हो ? पहले मेरी बात का जबाब दो।
"बेटा अटारी की खिड़की से बाहर का दरवाजा दिखता था । "
--------------
(13).  आ० तेजवीर सिंह जी
हड़ताल
.
बाबूलाल जानवरों के  बाड़े में गाय और भेंस को चोकर की सानी लगा कर जैसे ही बाहर निकला, भेंस ने नांद में पड़े चारे को अनदेखा करते हुए, धीरे से फ़ुसफ़ुसाते हुए पास के खूँटे में बंधी गाय को पुकारा,
"तुमने कुछ सुना जीजी, गज़ब हो गया"?
"क्या हुआ, हमने तो कुछ भी नहीं सुना"?
"अरे वह सफ़ेद वाली मुर्गी आई थी मेरे पास। मालिक ने चार दिन पहले उसके मुर्गे को पका कर मेहमानों को खिला दिया"।
"तो इसमें क्या नयी बात है"?
"अरे आप पूरी बात तो सुनो"?
"बोलो आगे बोलो"?
"उस मुर्गी ने इस कारण उस दिन से ही हड़ताल कर रखी है"।
"कैसी हड़ताल"?
"उसने अंडे देना बंद कर दिया है"?
"उससे क्या होने वाला है"?
"वह हमसे मदद माँग रही थी कि हम लोग भी उसका साथ दें और दूध देना बंद कर दें तो मालिक की अकल ठिकाने लग जायेगी"?
"पगला गयी है।उसको समझाओ बहिना।यह शेखचिल्ली वाले सपने देखना बंद करे"।
"तो क्या सच में हम उसकी मदद नहीं कर सकते"?
"अरे मेरी भोली बहिन, तुम किस दुनियाँ में जी रही हो। मालिक एक इंसान की औलाद है।उसकी नस नस में इंसानी फ़ितरत भरी पड़ी है।वह हमारे जैसा नहीं है।इन हथकंडों से वह रत्ती भर भी पिघलने वाला नहीं है"।
"क्या हमारी मदद भी उसके काम नहीं आयेगी"?
"अरे बहिना, इस लफ़ड़े में मत पड़ो वरना हम भी कसाई को बेच दिये जायेंगे"।
"तो अब आगे क्या होगा"?
"होगा वही जो मालिक चाहेगा"?
-------------------
(14). आ० बरखा शुक्ला जी
‘झूठा सच ‘
.
बाज़ार से लौटी नीरा अपनी माँ से बोली “, माँ आपकी दवाईयाँ व फल ले आयी हूँ ।”
“बेटा क्यों इतना ख़र्चा करती हो ,एक तो बेटी के घर रह कर वैसे ही पाप की भागी बन रही हूँ।”माँ बोली ।
“ऐसा क्यों बोल रही हो माँ ।आजकल बेटा बेटी दोनो बराबर है ।”नीरा बोली ।
“बेटे के घर में माँ के लिए जगह ही नहीं है ,और बेटी दामाद है कि माँ से रुपए ही नहीं लेते है ।तुम्हारे पिताजी की पेंशन की रक़म भी बैंक में मेरे नाम से जमा कर रहे हो ।”माँ बोली
“अब माँ भैया आपका ख़र्चा भेजते तो है ।”नीरा बोली ।
“बेटा तेरी माँ ने धूप में बाल सफ़ेद नहीं किए है , जो बेटा अपनी माँ को अपने पास रख नहीं सकता ,वो क्या रुपए भेजेगा ।”माँ बोली ।
“वो भाभी के स्वभाव की वजह से आपको पास नहीं रखते ।नहीं तो भैया आपको अपने घर पर ही रखना चाहते है ।”नीरा बोली ।
“बेटे के पास रहने के दिवा स्वप्न मैं नहीं देखती , पर तू उसकी झूठी तरफ़दारी मत ले ।”माँ बोली ।
अरे माँ , नीरा ने कुछ कहना चाहा ,तो माँ उसे बीच में रोक कर बोली ,”पिछले जन्म में ज़रूर कुछ अच्छे कर्म किए होगे जो ऐसा दामाद मिला है , कम से कम बुढ़ापा सर उठा के जी तो रहा है ।”माँ भरे गले से बोली ।
नीरा ने माँ की हथेली थाम ली।
------------------
(15).  आ० विरेंद्र वीर मेहता जी
'जतन'
.
विद्यालय में पढना तो बन्नू के लिए संभव नहीं था पर उसके बाहर 'चीनी के जादुई बाल' बेचकर वह अपने परिवार की मदद जरूर कर लेता था। आज किसी कारण विधालय बंद होने से उसकी कोई खास बिक्री नहीं हुयी। गलियों में आवाज लगा-लगा कर थकने के बाद आखिर थकान दूर करने के लिए वह फुटपाथ पर बैठा तो उसकी आँख लग गयी।........
"माँ आज भी कछु न बिको।" घर पहुँच टूटा दरवाजा ठेलते हुए उसने उदास स्वर में कहा।
"काहे मन खराब करे है? आ बैठ, आराम करले बिटवा। ये सब तो 'भाग' की बात है। माँ मुस्करा कर बोली।
"नहीं रे माँ, हर बात को 'भाग' पर काहे डाल देत हो। देखना शाम को मैं 'छोटे मॉल' के बाहर जाऊंगा और जरूर दिन भर की कमी पूरी करके लाऊंगा।"
"अरे वाह!" माँ खिलखिलाने लगी। "बहुत समझदारी की बात करने लगा है हमार बिटवा। बस छोड़, रहने दे आज की कमाई। चल आज हम खुद ही मॉल के अंदर घूमकर आते है।" कहते हुये माँ ने उसे कस कर गले लगा लिया।
"ओ माँ, क्या करती हो दर्द होता है।" कहते हुये सहज ही उसके हाथ अपनी बाजू पर चले गए।
"...... अरे बन्नू! यहां बैठकर कौन से सपने देख रहा है भाई?" सामने खड़ा उसका हमउम्र, हमपेशा दोस्त उसे बाजू पकड़ हिला रहा था।
बोझिल आँखें अलसाये भाव से खुल गयी, बाजू के दर्द का अहसास अभी भी था।
"कुछ नहीँ कालि! बस थोड़ा थक गया था यार।" मुस्कराने की कोशिश करता हुआ वह उठ खड़ा हुआ।
"अच्छा, चल घर चलते है। बस हो गया आज का धंधा-पानी।"
"नहीं यार तू चल। मुझे अभी आगे जाना है।"
"अच्छा तेरी मर्जी।" कहता हुआ कालि चल पड़ा।
"दोस्त, तुम तो जानते हो खाली हाथ घर पहुँचने पर माँ का गुस्सा। अब ये भूखा मन सपने देख कर खुश तो हो सकता है लेकिन उन्हें पूरे करने के लिये तो कुछ जतन करने ही होंगे न।" सोचते हुये बन्नू छोटे मॉल की ओर बढ़ चला।
------------------
(16).  योगराज प्रभाकर
घड़ी की सुईयां
.
दादा और पोता, टीवी स्क्रीन पर आँखें गड़ाए बैठे थे जहाँ कश्मीर के मुद्दे पर गरमा गर्म  बहस चल रही थीI वक्ताओं का पूरा पैनल बहुत ही जोश में थाI हर कोई एक दूसरे से बढ़ चढ़ कर भारत के विरुद्ध विष वमन कर रहा थाI
"हिन्दुस्तानी फ़ौज हमारे कश्मीरी भाईओं पर दिन रात जुल्म कर रही हैI" एक वक्ता ने लगभग चिल्लाते हुए कहाI
"हिंदुस्तान की सरकार बेगुनाह कश्मीरियों का कत्ल कर रही हैI" दूसरे वक्ता ने ऊँचे स्वर में कहाI
"दिन दिहाड़े हमारी माँ बहनों की इज्ज़त लूटी जा रही हैI" लम्बी दाढ़ी वाले वक्ता का स्वर उभराI
"हमारी फ़ौज इंडिया की ईंट से ईंट बजा देंगेI" यह एक सेवानिवृत्त सेना अधिकारी का स्वर थाI  
"हम तन मन और धन से अपने जिहादी भाईओं की मदद करेंगेI" लम्बी दाढ़ी वाले मौलाना ने अपना बाजू हवा में लहराते हुए कहाI
"इंशाअल्लाह! बहुत जल्द कश्मीर में हमारा झंडा लहरा रहा होगाI" जलती आग में घी डालती हुई यह आवाज़ एक जिहादी नेता की थीI
"जिस कश्मीर को ये हिन्दुस्तानी अपना सिर कहते हैं, हम इस सिर को धड़ से अलग किये बगैर हम चैन से नहीं बैठेंगेI" दोनों बाहें उठाते हुए यह फतवा लम्बी दाढ़ी वाले मौलाना की तरफ से उछाला गयाI
इसी बीच दादा और पोते ने एक दूसरे की तरफ देखाI जहाँ नौजवान पोते की मुट्ठियाँ तनी हुईं और माथे पर क्रोध की रेखाएं थीं वहीँ बूढ़े दादा जी के चहरे पर निराशा और ऊब के मिश्रित चिन्ह उभर आए थेI अचानक टीवी के सामने से उठते हुए दादा जी ने कहा:
"मैं अब सोने जा रहा हूँ बेटाI"
उन्हें यूँ अचानक उठते हुए देख पोते ने पूछा: "इस मुद्दे पर आपकी क्या राय है दादा जी?"
दादा जी के चहरे पर एक फीकी सी मुस्कान फैलीI अपनी छड़ी से दीवार पर टंगे मानचित्र की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने उत्तर दिया:  "बेअक्ल लोग हैं ये सबI 1971 में बांग्लादेश गंवा दिया था....लगता है अब बलोचिस्तान की बारी हैI"
पोते के चेहरे पर चढ़ी क्रोध की लाली सहसा पीलेपन में परिवर्तित होने लगी, किन्तु टीवी पर बहस अभी भी जारी थीI
----------------
(17). आ० शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी
'हवाओं के वश में'

बहुत दिनों बाद बेटे का फोन आया, तो बूढ़े पिता की ख़ुशी का ठिकाना न था। आज जी भर के बेटे से बात करने के इरादे के साथ बात करते हुए मोबाइल फोन लिए उनका हाथ कांप रहा था और ज़ुबां भी लड़खड़ा रही थी। बेटा कुछ ज़ल्दी में था।
" हां कहिए, क्या कहना चाहते हैं?"
" वो बेटा ... "
" हां, ज़ल्दी कहिए! टाइम नहीं है! अजीब से मैसिज क्यों भेजते हैं आप?"
"वो बेटा क्या है कि.... "
"डॉट.. डॉट...डॉट.. ब्लैंक मैसिज! तो कभी केवल क्वेश्चन मार्क वाला .. और कभी-कभी केवल एक्सक्लेमेशन (आश्चर्यबोधक) मार्क वाला मैसिज! क्या है पापा यह सब?"
"तुम कभी फोन नहीं उठाते... तो टीवी पर तुम्हारे राशिफल सुन कर कुछ कन्फर्म करने के लिए ..! बेटा आंखें कमज़ोर हैं, मोबाइल पर टाइपिंग नहीं कर पाता, सो इतना ही मैसिज कर देता था, शायद तुम हमारा इशारा समझ लो!" अबकी बार वे एक सांस में इतना कह गये थे। तभी बेटे के तेज़ स्वर सुनाई दिए :
"आप को पता है न मेरी नौकरी और बिज़ी लाइफ के बारे में! इस तरह के मैसिजिज़ से मैं कितने टेंशन में आ जाता हूं, कभी सोचा है आपने?"
"मैं और तुम्हारी बीमार मां तुमसे ज़्यादा टेंशन में रहते हैं! फुरसत हैं न!"
"आप लोग अपना ख़्याल रखें! मेरी फिक्र न करें! अगली बार कुछ ज़्यादा पैसे भेज दूंगा!" इतना कहकर बेटे ने फोन काट दिया।
"मां-बाप को तुम्हारे पैसों के मोहताज़ नहीं हैं! " बड़बड़ाते हुए उन्होंने अपना सादा मोबाइल टेबल पर रखा और पत्नि के सिर पर हाथ फेरते हुए बोले -"बेटा मज़े में है! तुम उसकी और उसकी शादी की फ़िक्र मत करो! नई हवाओं का असर है!"
------------------
(18). आ०  डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी
दिवास्वप्न

होली के पहले नयी सरकार का गठन हो चुका था. ग्राम पंचायत में लोगो का जमावड़ा लगा. प्रधान ने कहा, ‘भाइयों, आपके सहयोग से इस बार हमें हमारी पसंद की सरकार मिली है. अब हमारे सपने जरूर पूरे होंगे. सब लोग रंग खेलो. नाचो गाँव, खुशी मनाव’
‘अब तो विदेशन से काला धन वापस आई न भैया. नेतवा कहत रहां, विदेशी बैंक खंघारे जैहे. पाई-पाई का हिसाब होई , वहि धन मासे ईमानदार गरीबन का भी हिस्सा मिली और जउनु बची वह देश के विकास माँ लागी’
‘हां विचारू बढ़िया है पर जो सचमुच होय तो‘ -जुम्मन शेख ने निर्विकार भाव से कहा.
‘होई जुम्मन जरूर होई, धीरज धरो. नई सरकार है तनिक टैम यहू का देव.’
‘उम्मीद पर तो दुनिया कायम है’- जुम्मन शेख ने लम्बी सास भरी .’पिछली सरकार तो देश की बड़ी नदियन का याक माँ जोड़य कै योजना बनावत-बनावत चली गयी वरना पानी और सिंचाई का बडा सुभीता होय जात ‘
‘उम्मीद न छाडौ जुम्मन, नयी सरकार भी यह काम करी. यहिमा पूरे देश का हित है ’
‘हाँ, चाचा, आजादी मिले साठ बरस ह्वयिगे मुदा पानी की समस्या दूर नाही ह्वै पाई.’
‘दादा, हम तो एक बार बुलट पर जरूर चढ़ब चाहे कर्जा काढै का परै ’- एक जवान ने अपनी ख्वाहिश जाहिर की .
‘भकुहा सारे, बुलट तो गोली होय रे, यह लरिकवा का कहत है, बिरजू‘
‘अरे चाचा, जापानी रेल का भी बुलट कहत है, आंधी से भी ज्यादा तेज चलत है. ‘
‘अच्छा !‘ गाँव वालों की आँखे आश्चर्य से फ़ैल गयीं.
‘परधान भैया, सुना है बनारस का संस्कारू होई ‘ –एक ग्रामीण ने उठकर कहा.
‘हां सांस्कृतिक राजधानी बनायेगी. मगर उससे देश का भला न होगा. यह सरकार भ्रष्टाचार मिटावेगी, तकनीक से काम होगा .सरकार का दावा है, वह मंहगाई कम करेगी. किसानों का फसल का वाजिब मूल्य मिलेगा, गाँव–गाँव में शौचालय बनेंगे’
‘और राम मंदिर----‘ अचानक जुम्मन ने एक चुभता हुआ प्रश्न किया. प्रधान सकपका गए. कुछ देर बाद धीमे से उनके मुख से निकला – ‘वह भी बनेगा एक दिन ‘
पंचायत में यह सब बाते हो रही थें कि हाथ में लाठी लिए अलगू चौधरी भागते-भागते आये –‘तुम सब हिया पंचायत बटोरे हो. राम मंदिर बनवाय रहे हो हो. मुदा यह जानि लेव कि यहि देश का कुछ भी भला होने वाला नाही है. हियाँ तो भगवान को ही बनवास दियो जात है. खूब होली खेलो, हुडदंग मचाव. दिन माँ सपना देखो. उधर ठाकुर के आदमी चमरटोलिया से हरखू की बिटिया को उठाय लै गये है .’
‘हरखू ने पुलिस में रिपोर्ट नही की ?’ – प्रधान ने तड़प कर कहा .
‘की----, मगर दरोगा कहता है, कौन आफत आ गयी है. दो-चार घंटे में वापस आ जायेगी, ससुरी.
---------------------
(19).  अजय गुप्ता
चमत्कार
.

 "मुकुल के बापू" बंसरी की आवाज़ आई। रामभज जैसे नींद से जागा। बंसरी फिर बोली, "क्या करें? इतने बड़े अस्पताल में कैसे ईलाज करवाएंगे उसका।" आंखों में आंसू भर कर पल्लू मुंह मे दबा लिया।
मायूस रामभज कुछ न बोल सका। पर उसकी स्मृति उसे दस साल पीछे ले गई।
"मुझे अपने मुकुल को उसी स्कूल में पढ़ाना है।"
"भूल जा, रामभज। हमारे बस से बाहर है उस स्कूल के खर्चों को निभाना।"
"नहीं काका। पढ़ाना है और पढ़ाऊंगा। बंसरी जिस घर में काम करती है ना। उस बीबी जी ने बताया है किसी सरकारी स्कीम के बारे में। और बोली कि पूरी मदद करेंगी फार्म भरवाने में।"
"पागल मत बन रामभज। फीस के अलावा भी हज़ारों ख़र्च है वहां के।"
"कोई बात नहीं काका। हमारे बच्चे पढ़ सकेंगें वहाँ पर। पढ़ाऊंगा। जितनी मेहनत कर सकता हूँ, उससे ज्यादा करूँगा। दारू छोड़ दूंगा। गुटखा न खाऊंगा। पर पढ़ाऊंगा।"
वर्तमान में लौटते हुए रामभज एकदम उठा, "बंसरी, वो परमात्मा है ना। वो चमत्कार करता है। देख अपना मुकुल अच्छे स्कूल में पढ़ा है ना!"
और बोलते बोलते चल दिया।
उसे पता था कि अस्पताल से पहले कहाँ जाना था। और यकीन था चमत्कार को साकार करने में कोई न कोई स्कीम अब भी मदद करेगी।
------------------------

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गोष्ठी के सफल आयोजन के लिए आदरणीय योगराज सर जी को बहुत २ बधाई ,संकलन में मेरी लघुकथा को स्थान देने के लिए बहुत २ धन्यवाद ,आभार ,सादर 

आद0 योगराज भाई जी सादर अभिवादन। लघुकथा गोष्ठी के सफल संचालन और त्वरित संकलन के लिए बधाई। मेरी लघुकथा को संकलन में स्थान देने के लिए दिल से शुक्रिया। सादर

ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक- 35 के बेहतरीन संचालन,सफ़ल संपादन और त्वरित संकलन एवम प्रकाशन हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी।दिनांक 27 व 28 फ़रवरी,2018 को दोनों दिन रेल यात्रा में होने से इंटरनेट ठीक से नहीं मिल पाने से जैसे तैसे लघुकथा लिखी और पोस्ट कर दी।क्षमा चाहता हूँ कि कुछ विशिष्ट गुणी जनों की टिप्पणियों पर आभार प्रकट नहीं कर पाया।साथ ही कुछ साथी लघुकथाकारों की लघुकथाओं पर अपनी राय नहीं दे सका, उनसे भी क्षमाप्रार्थी।

मुहतरम जनाब योगराज साहिब , ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्टी अंक --३५ के त्वरित संकलन
और बेहद कामयाब निज़ामत के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं

इस बार का विषय जितना सरल था, उतना ही कठिन भी; सार्थक लघुकथा संदर्भ में। बहुत सी बेहतरीन लघुकथाओं के साथ बेहतरीन संकलन के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद और आभार आदरणीय मंच और मंच संचालक महोदय जी। मेरी रचना को स्थान देने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया। 

लघुकथा गोष्ठी के सफल आयोजन हेतु व संकलन हेतु बधाईयां व शुभकामनायें ।अन्य लघुकथाकारों को बधाईयां व शुभकामनायें ।हर बार की इस बार भी आयोजन अच्छा रहा ।पुन: बधाईयां ।

आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई साहब जी आप को लघुकथा संगोष्ठी के सफल आयोजन और त्वरित संकलन के लिए बधाई. आप जिस त्वरित रूप से यह कार्य करते हैं वह काबिलेतारीफ है. 

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