आदरणीय साथिओ,
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बेहतरीन...
अच्छी लघुकथा कही है आदरणीय विनय सर, लग रहा है आँखों देखा हाल कह रहे हो आप| :) हार्दिक बधाई |
बस इतना सा ख्वाब है...
"सर हम सब फ्रैंड्स ने मूवी का प्लान बनाया है,प्लीज़ अगर आज हाफ डे की लीव मिल जाती तो..."
मिताली ने सकुचाते हुए बॉस के चैम्बर में प्रवेश कर हाथ पीछे बांध कर पूछा,उंगलियाँ किसी अप्रिय उत्तर का काट करने के लिए क्रॉस की हुई थीं।
"क्यों नहीं मिस मिताली! मैं समझ सकता हूँ आखिर आप मेरी बेटी की उम्र की हैं। कभी तो मन करता होगा अपनी उम्र के अनुसार जीवन जीने का! ज़रूर जाइये।"
"बॉस को बेकार ही खड़ूस कहती रहती हूँ ये बेचारे तो कितने अच्छे हैं।" मन ही मन बुदबुदाती हुई मिताली ने अपनी मित्रों को थम्प्स-अप का इशारा किया।
काँच के केबिन के पार से देखती हुई सभी नज़रों में खुशी की लहर दौड़ गई।
लड़कियाँ चहकती हुई ऑफिस से निकल बस की ओर लपकी, उनकी बाकी की साथी बस स्टैंड पर ही मिल गईं। दस लड़कियाँ एक साथ बस में चढ़ी दो चार सीट खाली थी, बची हुई लड़कियाँ भी जगह बनाकर बैठने सफल हो गई!
हँसते-मुस्कुराते आराम से मॉल तक का सफर तय किया। मॉल में भीड़- भाड़ देख एक बोल उठी,"बाप रे इतनी भीड़,यार ये फिल्म नही मिल पाएगी!"
"यहाँ तक आएं हैं तो एक बार कोशिश करने में क्या हर्ज है?" बोलती हुई मिताली टिकटघर की ओर बढ़ गईं,लाइन बहुत लम्बी थी। मगर इतनी लड़कियों को एक साथ देखकर खिड़की के आस पास की भीड़ काई की तरह छँट गई,
"प्लीज़, पहले आप टिकट ले लीजिए!" टिकटघर की खिड़की पर लगे लड़के ने मुस्कुराकर मिताली को जगह दी तो उसने अचकचा कर उस लड़के के ठीक पीछे खड़े,अधेड़ उम्र व्यक्ति की ओर देखा, उस व्यक्ति ने भी सिर हिलाकर अनुमति दे दी, फिर तो मिताली की तो जैसे बांछे खिल गई।
टिकट लेकर हवा में हिलाकर दिखाती,मित्रों के बीच खड़ी मिताली अपने आप को ही सुपर स्टार से कम महसूस नही रही थी।
थियेटर में घुप्प अँधेरा था, ऊपर की साँस ऊपर नीचे की नीचे थी कि अचानक किसी ने मोबाइल की रौशनी दिखाकर उनलोगों को उनकी सीट तक पहुँचा दिया।
फिल्म शुरू हुई थी कि बगल की सीट पर बैठे दो युवकों पर एक नज़र डाल बारी बारी से घूरा तो बेचारे खुद ही उठ कर दो सीट छोड़कर बैठ गए!
मिताली का मूड बहुत अच्छा हो गया था फिल्म देखने से पहले ही, फिल्म में हँसी के दृश्य बहुत खुल कर एन्जॉय कर थी कि अचानक आसपास के सभी लोग ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे, मिताली ने घूर कर देखा पर्दे पर तो गम्भीर दृश्य चल रहा है, ठहाका फिर से गूँजा, उसने सिर घुमा कर देखा तो स्वयं को ऑफिस की सीट पर पाया। पूरा स्टॉफ उसी को घूर रहा था।
चपरासी ने ज़ोर से फाइल टेबल पर पटकते हुए कहा,
"क्या मैडम खुली आँखों से सो रही हैं क्या? सर ने बोला है,ये फाइल आज ही रेडी करनी है आपको!आज भी ओवर टाइम रुकना ही होगा।"
मौलिक एवं अप्रकाशित
आद0 सीमा जी सादर अभिवादन। किस तरह ऑफिस में काम का दबाव होता है और उन दबाव के बीच मे किस तरह कल्पनाएं चलती हैं, और किस तरह ख़्वाब सिर्फ ख़्वाब ही बनकर रह जाते हैं, का अच्छा चित्रण किया आपने। प्रदत्त विषय को सार्थक करती उम्दा लघुकथा पर आपको बधाई। सादर
आभार आ०सुरेंद्र जी कथा पसन्द आई ह्रदय से धन्यवाद।
मोहतरमा सीमा सिंह जी आदाब,प्रदत्त विषय को सार्थक करती अच्छी लघुकथा लिखी है आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
शुक्रिया आ० कबीर साहब!
नौकरी पेशा लोगों के दर्द बहुत बढ़िया तरीके से उभर कर सामने आया है. ऐसी स्थिति निजी क्षेत्र में आम बात है. ऐसा भी होता है कि आदमी ने महीनों पहले छुट्टी लेकर रिजर्वेशन आदि भी करवा ली और सफ़र में निकलने से कुछ ही घंटे बाद पता चला कि किसी काम के सिलसिले में छुट्टी रद्द हो गई. बहरहाल, प्रदत्त विषय से न्याय करती इस लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई प्रेषित है सीमा सिंह जी.
ह्रदय से धन्यवाद सर, कथा नायिका नौकरी पेशा तो है ही साथ ही युवती भी है जो मन ही मन इन सब स्थानों पर पुरुष वर्ग से उस सहृदय व्यवहार का दिवास्वप्न भी पाल रही है।
दिवास्वप्न की पराकाष्ठा बताती रचना। हार्दिक बधाई आदरणीया सीमा सिंह जी। रचना का संदेश यही कहा जा सकता है कि हमें कार्यस्थल पर पहले अपने काम पर ध्यान केंद्रित कर उसे समय पर पूरा करना चाहिए, दिवास्वप्न में विचरण नहीं करना चाहिए। ऐसा कोई भाव क्या अंत में किसी संवाद में संभव है, अनकहे में छोड़ने के बजाय?
हार्दिक धन्यवाद शहज़ाद भाई ! आपकी अमूल्य राय पर विचार करती हूँ।
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