आदरणीय साथिओ,
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ऐसी रकम ऐसों को दी भी जाती है भावुकता, संवेदनशीलता व धर्मभीरू होने के कारण। ई़द पर फुटकर पैसे/नोट न होने पर भिखारियों को तीन बार सौ-सौ रुपये के नोट भेंट चढ़ा चुका हूं। एक बार तो रेलवे स्टेशन पर भिखारी का पीछा भी किया। वह नशे के अड्डों पर ही पहुंचा।
करारा कटाक्ष अंधविश्वासियों के प्रति,जानते समझते हुए भी हम इन ढोंगी बाबाओं के फेर में आकर नुकसान कर बैठते हैं.बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजियेगा आदरणीय सरजी।
हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ टी आर सुकुल जी। बेहतरीन लघुकथा ।ढोंग ढकोसलों पर करारा प्रहार करती लघुकथा।
विनम्र आभार आदरणीय तेजवीर सिंह जी।
विनम्र आभार आदरणीया बबीता जी।
ये धूर्त बाबा एेसे लोगों की कमज़ोर नस बख़ूबी जानते पहचानते है ।अलग ही स्टाइल में लिखी कथा के लिये बधाई आद० टी० आर० शुक्ल जी ।
विनम्र आभार आदरणीया नीता जी।
बहुत बढ़िया वाह ..हार्दिक बधाई आदरणीय पर एकदम से ग्यारह सौ कुछ अधिक हो गए
विनम्र आभार आदरणीया प्रतिभा जी। आपकी बात से सहमत। अविश्वसनीय लगने वाली इतनी राशि का उल्लेख यह दर्शाने के लिए किया गया है कि एक ओर तो विवेकहीन आस्था ,पाखण्डियों के वाग्जाल से सम्मोहित होकर किस प्रकार ठगी जाती है और दूसरी ओर भुट्टेवाले को उसके पराक्रम से अर्जित उचित मूल्य को देते समय यही विवेक, निराधार तर्क की पराकाष्ठा को छूने लगता है। सादर।
राह चलते को इतनी बड़ी राशि कोई नहीं देता है। यहाँ सौ-पचास की बात होती तो बात बेहतर लगती।
बढ़िया लघुकथा है आदरणीय डॉ. टी. आर. सुकुल जी। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। वैसे मेरे ख़्याल से झगड़ू के आगे अहीर लगाने की आवश्यकता नहीं थी। सादर।
विनम्र आभार , आदरणीय महेंद्र कुमार जी सहमत। परन्तु ग्रामीण क्षेत्रों में सम्बोधन करने की यही रीती है। सादर।
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