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आदरणीय सुधीजनो,


दिनांक -14 जून’14 को सम्पन्न हुए ओबीओ लाइव महा-उत्सव के अंक-44  की समस्त स्वीकृत रचनाएँ संकलित कर ली गयी हैं. सद्यः समाप्त हुए इस आयोजन हेतु आमंत्रित रचनाओं के लिए शीर्षक “समाज व बेटियाँ” था.

महोत्सव में 29  रचनाकारों नें  दोहा, आल्हा,  गीत-नवगीत,  ग़ज़ल व अतुकान्त आदि विधाओं में अपनी उत्कृष्ट रचनाओं की प्रस्तुति द्वारा महोत्सव को सफल बनाया.

 

यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस पूर्णतः सफल आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश यदि किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह ,गयी हो, वह अवश्य सूचित करें.

सादर
डॉ. प्राची सिंह

मंच संचालिका

ओबीओ लाइव महा-उत्सव

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क्रम संख्या

रचनाकार का नाम

विषय आधारित रचना

 

 

 

1.

आ० सौरभ पाण्डेय जी

समाज और बेटियाँ 
==========
अपनी उँगलियों से 
जुही की पँखुड़ियों-सी तुम्हारी उँगलियों को छूते हुए 
खुद ही सहम गया था वो -- 
कहीं कुछ हो ना.. 
दाग न लग जाये कहीं.. !

उसे पता था 
उसकी उँगलियों की सचेष्ट सहेजी लरजन भी 
हार हाल में ममत्व के अदबदाये आलोड़न से 
कहीं कठोर होती है.

तुम्हारे पाँव की थप-थप 
और उसकी आँखों की नमी 
साथ-साथ बढ़तीं रहीं.. 

बेलौस बोलती.. भागती.. चीखती.. 
बेसाख़्ता खिलखिलाती..  तुम 
अपनी मुग्ध मुस्कान को 
तुममें आकार लेता देखता हुआ.. वो ! 

मुलायम नज़रों देखता वो तुम्हें /
नागार्जुन के कहे उन वाक्यों की ओट से.. / 
नन्हीं चूड़ियाँ किसे नहीं लुभातीं.. ! 

कि, देखते ही देखते 
आने लगीं तुम्हारी कलाइयों में 
काँच की खनकदार चूड़ियाँ.. सवा दो इंच की ! 

अनजाने ही सूखने लगीं उसकी मुलायम नज़रें 
व्यापने लगा उसकी आँखों की कोटरों में 
अहर्निश भय ! 
बुढ़ाती आँखों की नमी नेह की मासूम कथायें ही नहीं बुनती 
एक-एक कर लगातार सबकुछ छूटते चले जाने का 
और कुछ बदहवास घटने का 
खौफ़नाक कथानक बुनती है. 

लगातार सूखते जाते ऐसे माहौल में 
सपनों के गदबदाये ललछौंह फूलों के संग 
उगते हैं काँटें..  अवश्यंभावी परिवर्तन की तरह बेपरवाह.. 
उग आते हैं तमाम.. 
         निकट-दूर 
         बाहर-भीतर 
         आस-पास.. 
         हर ओर काँटे.
 
ऐसा क्यों होता है, 
तुम्हें समझ में ये न आना था, मगर आया.
तुम बिंधती रहीं अनजान बनी.. 

वो 
सबकुछ जानता-बूझता भी 
तुम्हें खुल के कुछ भी नहीं बता पाया..

कुछ भी नहीं... . .. . 

बाप है न वो.. ! 

 

 

 

 

2

आ० सत्यनारायण सिंह जी

बेटियाँ गंगा नदी सी, पाप सारे धो रहीं।   

झेलतीं संताप अनगिन, अस्मिता को खो रहीं ।।   

वेद मन्त्रों की ऋचाएँ, बेटियाँ ही भक्ति हैं।

चेतना सामर्थ्य दात्री, बेटियाँ ही शक्ति हैं।१।

नारियों को पूजते थे, देवियों के रूप में।

देवता भी देखते थे, स्वर्ग के प्रारुप में।।

घूमते निर्द्वंद्व  हो के, आततायी देश में।

माँगती है न्याय बेटी, निर्भया के वेश में।२।

 

कामियों के आज हाथों, लाज बेटी खो रही ।   

भ्रूण हत्या कोख में  ही, बेटियों की हो रही ।।  

यातना का दर्द सारा, नर्क का परिवेश हैं।

लुप्त होती बेटियाँ औ, सुप्त सारा देश है।३।

 

 

 

 

3

आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी

आने दो  प्यारी  बिटिया को, घर की  रौनक  बढ़ती है।

भरा-भरा घर आँगन लगता, जब चिड़ियों सी चहकती है॥                                                                     

 

न  माँगे, भगवान  से  बेटी, बेटे  की  सब  चाह  रखें।    

पुत्र एक  परिवार  में है पर, एक और की  आस  रखें॥                     

और  कोई  न चाहे  बेटी , माँ  की  चाहत  रहती  है।                         

माँ- बेटी  का प्यारा  रिश्ता, माँ- बेटी  ही समझती हैं॥                

आने दो  प्यारी  बिटिया को, घर की  रौनक  बढ़ती है।

भरा-भरा घर आँगन लगता, जब चिड़ियों सी चहकती है॥

 

जिस घर  में बेटी  होती है, घर ज़्यादा  प्यारा  लगता।             

जिसकी  बहन न बेटी कोई, किस्मत का  मारा लगता॥                        

बचपन में  गुड्डे  गुड़ियों से, बिटिया  खेला  करती  है।

धीरे - धीरे   ज़िम्मेदारी , स्वयं   समझने  लगती  है॥                    

आने दो  प्यारी  बिटिया को, घर की  रौनक  बढ़ती है।

भरा-भरा घर आँगन लगता, जब चिड़ियों सी चहकती है॥  

 

फर्क  नहीं  बेटी - बेटे  में, बात  बड़ी  हम सब  करते।

किन्तु  उपेक्षित  है समाज में, उसे  पराया  धन कहते॥              

सुखी  रहे,  मायका  ससुराल , रोज  प्रार्थना  करती हैं।  

जीवन भर  माँ  और  बेटियाँ, सखियाँ  जैसी  रहती हैं॥   

आने दो  प्यारी  बिटिया को, घर की  रौनक  बढ़ती है।

भरा-भरा घर आँगन लगता, जब चिड़ियों सी चहकती है॥  

 

बेटे को  अधिकार  सभी है, सब से ज़्यादा  प्यार मिले।          

कुछ न माँगतीं कभी बेटियाँ, जीवन में बस प्यार मिले॥         

बेटियाँ  परिवार  का हर  पल, ध्यान  बराबर  रखती हैं।

नन्ही  बिटिया  रोज पिता की, राह  शाम से तकती है॥                   

आने दो  प्यारी  बिटिया को, घर की  रौनक  बढ़ती है।

भरा-भरा घर आँगन लगता, जब चिड़ियों सी चहकती है॥  

 

जब  होती है  बेटी बिदा, घर  आँगन  सूना  लगता है।

बेटी  जीवन  भर सुखी  रहे , परिवार  दुवा  करता है॥             

हे  समाज  के  ठेकेदारों , बेटी   हम  पर  भार  नहीं।

माँ, बहन, बीबी के  रूप में, दिल से  करती, प्यार वही॥                                                                                                        

सब रिश्तों को निभाने वाली, बिटिया सब कुछ सहती हैं।

प्यार मिले  घर में, समाज में, इसलिए  जीती मरती हैं॥       

आने दो  प्यारी  बिटिया को, घर की  रौनक  बढ़ती है।

भरा-भरा घर आँगन लगता, जब चिड़ियों सी चहकती है॥ .

 

 

 

 

4

आ० डॉ० विजय प्रकाश शर्मा जी

बेटी !
अच्छा हुआ 
तुम इस देश में जन्मी ,
पली ,बढ़ी, पापा के घर,
परवान चढ़ी माई के सर .
राखी बांधी भाई के कर,
व्याही, गई पिया के घर.
रिश्ते जोड़े सास -ससुर से,
लघु देवर, बड़े भैसुर से.
ननद, गोतिनी करें बड़ाई 
तुम्हें सबने सर-आँख चढ़ाई.
दो वंशों को जोड़ा तुमने 
करती रही सबकी भलाई.
बेटी गौरव रही देश की,
सीता जैसी सबल वेश की ,
श्यामाँ,रुक्मिणी,औ सत्यभामा, 
बनी रही पुरुष की वामा,
अर्धांगिनी सी अधिकारी,
तुम्ही संसार चलावनहारी.
जिसने किया उपहास तुम्हारा,
रहा न उसका रोवनहारा. 
रावण,दुशासन संघारा,
ऐसा है परताप तुम्हारा.
धन्य- धन्य यह भारत देश,
जहाँ जन्मी तुम बेटी वेश.

 

 

 

 

5

आ० गिरिराज भंडारी जी

आइये निराश हो जायें , पूर्ण निराश  

**************************************

समस्या ज्वलंत है ,

दुख की बात ये कि सदियों से समस्या ज्वलंत है

और आगे भी ज़्वलंत ही रहने की पूरी सम्भावनायें जीवित हैं

बात निराशाजनक है , लेकिन

सत्य अगर निराश करे तो निराश हो जाना शुभ होता है

निराशाओं की पूर्णता के बाद ही नई, असली आशाओं का जन्म होता है

जैसे सुबह के पहले और गहरा जाना अँधेरे का   

 

एक ही कारण नही होता किसी भी बीमारी का , समस्या का

कारण बहुत होते हैं , हर कारण महत्वपूर्ण होता है , कम या अधिक

हर कारण को स्वीकार करना जरूरी होता है , पूर्ण समाधान के लिये

क्यों कि, स्वीकार ही सुधार की पहली सीढ़ी है

अगर आप सच में निदान चाहते हैं तो

 

हर कारण समाज के किसी वर्ग विशेष से जुड़ जाता है, अंत में

समस्या के कई कारण हैं, तो कई वर्गों मे बंट जाता है निदान भी

लेकिन , हर वर्ग का अपना अहंकार है

जो समस्या को स्वीकार कर समझदार , जागरूक तो साबित होना चाहता है

पर स्वयँ को समस्या का जनक , कारण नहीं मानना चाहता ,

अहंकार पर चोट लगती है , खुद को भी समस्या का कारण मानने में

जब की वास्तविकता यही है

हम सभी कारण है , समाज का हर वर्ग दोषी है , पुरुष प्रधान समाज भी

मै भी , आप भी , ये भी,  वो भी , सभ्यता भी , संस्कार भी , पुलिस भी , प्रशासन भी , जनता भी , नेता भी , खलनायक भी अभिनेता भी , यहाँ तक कि ,

स्वयँ महिला वर्ग भी , बेटी भी किसी हद तक

वो बेटी जो किसी तरह जन्म ले पाती है , बड़ी होकर माँ बनती है , और उसी शोषक वर्ग में शामिल हो जाती है , वो बेटी , तब एक ही रास्ता है

आइये निराश हो जायें , पूर्ण निराश  

पूर्ण और वास्तविक निराशा के उस पार ही आशा का गाँव है , मेरा विश्वास है

 

 

 

 

6

आ० कल्पना रामानी जी

खुद थामो पतवार,

बेटियों, नाव बचानी है।

मझधारे से तार,  

तीर तक लेकर जानी है।   

 

यह समाज बैठा है तत्पर।

गहराई तक घात लगाकर।

तुम्हें घेरकर चट कर लेगा,

मगरमच्छ ये पूर्ण निगलकर।

 

हो जाए लाचार,

इस तरह, जुगत भिड़ानी है।

 

यह सैय्याद कुटिलतम कातिल।

वसन श्वेत, रखता काला दिल।

उग्र रूप वो धरो बेटियों,

झुके तुम्हारे कदमों बुज़दिल।

 

पत्थर की इस बार,

मिटे जो, रेख पुरानी है।

 

हों वज़ीर के ध्वस्त इरादे।

कुटिल चाल चल सकें न प्यादे।

इस बिसात का हर चौख़ाना,

एक सुरक्षित कोट बना दे।

 

निकट न फटके हार,

हरिक यूँ गोट जमानी है। 

 

 

 

 

7

आ० गुमनाम पिथोड़ागड़ी जी

समाज ने बनाये नियम 
बेटियों को मिले केवल गम

टटोलते हो तुम गर्भ जब 
लगते हो कोई सर्प तब 
तजो खानदान का दर्प अब 
करोगे वरना तुम नरक सब

बेटी सहे कब तक ये जुलम 
बेटियों को मिले केवल गम

तानों की गुलेल चलती है 
नारी किसी राह बढ़ती है 
दुनिया को अखरती है 
कितनी नज़रों से बचती है

परम्पराओं ने निकला दम 
बेटियों को मिले केवल गम

 

 

 

 

8

आ० लक्ष्मण धामी जी

बेटियाँ - गजल

***************
खल रही हैं घर-समाजों को सदा से बेटियाँ
जबकि सबको ही बचाती बद्दुआ से बेटियाँ

***
कोसते हम हों भले ही हर करम पर यों उसे
पर  भरी  रहती  हमेशा  ही  दया  से बेटियाँ

***
जुल्म हिस्से में लिखे हैं हमने उसके हर कहीं
चीखती फिर भी बताओ कब अना से बेटियाँ

***
हम घुटन देते हैं  उसको  जिंदगी भर दोस्तों
हर घुटन से मुक्त करती भर सबा से बेटियाँ

***
जानकी हो , माधवी हो, या कि  गांधारी रहे
युग कोई हो पर बचाती हर कजा से बेटियाँ

***
बन के माता वो किसी को संस्कारित जब करे
रौशनी  फैला   बचाती  है  अमा   से  बेटियाँ

***
मान देकर है रखा सच जिन समाजों ने उन्हें
उन समाजों  को  सजाती  हर कला से बेटियाँ

 

 

 

 

9

आ० डॉ० विजय शंकर जी

प्रथम प्रस्तुति:-

समाज का ऐश्वर्य सम्मान होतीं हैं बेटियां

स्तुत्य , आराध्य , आरती , पूज्य होतीं हैं बेटियां
सुन्दर , सौंदर्य की अभिव्यक्त्ति होतीं हैं बेटियां
धरती पर ईश्वर की सौगात होतीं हैं बेटियां
सृष्टि से हैं , स्वयं सृष्टि भी होतीं हैं बेटियां |

समाज की क्या सूरत होती जो न होतीं बेटियां
कुछ नासमझों को बोझ नजर आती हैं बेटियां
सृजन के लिए सृजन का भार उठाती हैं बेटियां
मातृत्व और ममता को साकार करती हैं बेटियां |

सुबह घास पर पड़ी ओस सी निश्छल होतीं हैं बेटियां
गुलाब पर बून्द ओस की तरह मुस्कुराती हैं बेटियां
पिता-घर पानी पर लहरों सी चंचल होतीं हैं बेटियां
हवा में तितलियों सी लहराती खेलती हैं बेटियां |

बड़े नाज़ों से , अलग अंदाज़ों से पलती हैं बेटियां
फूलों में गुलाब , गुलशन, गुलिस्तां होती हैं बेटियां
चमन , बहार , घर की बगिया होती हैं बेटियां
बगिया की, और अपनी हिफाज़त चाहती हैं बेटियां |

समाज क्या देगा उन्हें जो समाज को देती हैं बेटियां
समाज का स्वरुप ,आभूषण , श्रृंगार होतीं हैं बेटियां
हर बुरी बला ,नज़र से बचाओ इनकों,लाज हैं बेटियां
आभूषण हैं , आभूषणों जैसी सुरक्षा चाहती हैं बेटियां |

संतरी से मंत्री तक किसके नहीं होती हैं बेटियां
जतन से पालो से इन्हें , अमानत होतीं हैं बेटियां
समाज के बिगड़ों, देखने से पहले दूसरों की बेटियां
अपनी बेटियों की सोंचों फिर देखो औरों की बेटियां |

 

द्वितीय प्रस्तुति :-

इस राह पर चल कर वो कहाँ जायेगें

जब राह वो ऐसी दिखायेगें
हिफाज़त का वादा करेंगें
और बखूबी निभाएंगे ।
तो भटके हुए तो और
और भटकते जायेंगें
मेरी समझ में नहीं आता
वो कैसे खुद रहेंगे
और कहाँ रहेंगें ?
और इन इशारों पर
चलने वाले खुद
कहाँ को जायेंगें ?
ऐसा न हो कि वो
आस पास मोहल्ले में ,
गली कूचों में लगे रहें ,
व्यस्त रहें , और
उनकें अपने घर से ,
अपने खेत से ,
खलिहान से कुछ ....
जाने दीजिये .........
वो किसकी कहानी है ,
इशमत चुगताई की शायद ,
मियां दूसरों को सिखाते रहे
हुनर , और उनका खेत
एक छोटी सी चिड़िया चुग गयी ॥
वो चिड़िया , उनकी खास चिड़िया ,
उनकी शागिर्द चिड़िया। .......
कहानी है , कहानियाँ होती हैं ,
पर हुनर वाले तो उनसे ऊपर होते हैं ,
बस वहीँ नहीं हुए , अफ़सोस .
जाने दीजिये , डराना मकसद नहीं है ,
आप जाग जाएँ , आप जैसे सब जाग जाएँ
ठोकर लगे , उससे पहले जाग जाएँ ,
यहीं मकसद है ,

 

 

 

10

आ० राजेश कुमारी जी

ग़ज़ल 

---------

2212   2212   1212   2212

रोती रही  हैं बेटियाँ समाज बस हँसता रहा

कुतरी गई  हैं बेटियाँ वो कैंचियाँ लगवा रहा

 

क्यूँ शब, सहर, धरती, फ़लक नहीं बने उसके लिए

ये सोचती हैं बेटियाँ कसूर क्या उनका रहा

 

अपने निजी साए पे भी नहीं भरोसा है उन्हें  

जगती  रही हैं  बेटियाँ जहाँ भले सोता रहा

 

लगते हैं दावे खोखले ये भ्रूण हत्या रोकते 

कितनी बची हैं बेटियाँ हर आँकड़ा बतला रहा

 

सब नारियों को मानते समाज का सम्मान हैं

कितनी पुजी हैं बेटियाँ दरख़्त हर दिखला रहा

 

 

जलती रही चिंगारियाँ  कुरीतियाँ फलती गई 

मिटती  रही  हैं बेटियाँ समाज तो जिन्दा रहा

 

अस्तित्व रखना है अगर समाज का कायम यहाँ

बेटे  यही हैं बेटियाँ ये वक़्त भी समझा रहा 

 

 

 

 

11

आ० अखंड गहमरी जी

हाथो में बेटी की लाश लिये
था बेटी का बाप खड़ा
चीर फाड़ के पैसो के खातिर
वर्दी वाला था आज  अड़ा
लड़ी थी जिससे लाज बचाने बेटी
तभी वो अचानक आन पड़ा
खाली सूनी आँखो में देख मेरी
पुलिस वालो से वह लड़ा 
समझ उसकी आँखो की भाषा 
वह पुलिस वाला भी हस पड़ा 
खड़ा देख तमाशा यह सब

बेटी का बाप जाग पड़ा
कालर पकड़  उस हत्‍यारे को 
वह बेटी का बाप मार पड़ा 
बस इतने से ही संतोष रहेगा
कानून तो इनकी जेब में पड़ा
चक्‍कर पे चक्‍कर लगेगें पर 
पा जायेगेंं  अभयदान सभी
अरमान सजा कर पाला जिसको 
कर न सकूगाँ कन्‍यादान कभी 
सो गई जो चिर निद्रा मेें बेटी
कर दूँ क्‍या उसका शवदान अभी
सोच यही आगे की बाते
खुद अपने से बेटी का बाप लड़ा
हाथो में बेटी की लाश लिये
था बेटी का बाप खड़ा
अच्‍छा हुआ चली गई बेटी 
वरना जी नहीं पाती वो 
कंलकित किया किसी ने उसको 
बोझ कलंक का ढोती वो 
ताने देना समाज चुन चुन 
बैठे घर में रोती वो 
बेकसूर थी अबला पर 
काँटो पर हरदम सोती वो 
सुन कर बेटी के बाप की बाते
फूल भी देखो रो  पड़ा 
हाथाे में लाश लिये बेटी की 
था बेटी का बाप खड़ा 
था बेटी का बाप खड़ा

 

 

 

 

12

आ० अविनाश बागडे जी

प्रथम प्रस्तुति :-

 

अनुत्तरित से प्रश्न है , कितने सम्मुख आज 
रूढ़िवादी बंधन में ,  बेटी और समाज !!!!!

सारे नियम समाज के , निष्ठुर पुरुष प्रधान !
बेटी इसकी बलि चढ़े  , कौन करेगा ध्यान ?

आते ही जो कोख में , प्रश्नचिन्ह लगवाय। 
बेटी और समाज का  , उत्तर नजर न आय।.

बलपूर्वक हर बात की ,हो जिससे उम्मीद। 
बेटी ही हर बार हुई , साधो यहाँ शहीद  !!

सुखद हवा का झोंका सा , सरगम सुर ओ साज। 
बेटी को बदलाव का , दृश्य चाहिए आज। 

 

द्वितीय प्रस्तुति :-

 

कभी 
जीवन की 
कोख से 
निकाल  कर 
लटका दी 
अव्यवस्था के
पेड़ पर 
तो कभी 
व्यवस्था के 
पेड़ से 
अधकच्ची ही 
तोड़ कर 
फेंक दी 
अँधेरे भविष्य की 
कोख में 
और 
दे दिया
समाज ने 
एक नाम 
" बेटी "

 

 

 

13

आ० अरुण श्रीवास्तव जी

कविताई के अवचेतन पलों पर टांक देता हूँ मैं -

धरती चीरते अंकुए , पहाड़ उतरती नदी

आंगन खेलती बेटी !

और पन्ना पलट लिखने लगता हूँ चाँद-तारे,ब्रह्माण्ड !

 

लेकिन -

जब खोज रहा होता हूँ चाँद के धब्बों का रहस्य ,

आँखों में नींद बटोरे ,बालों में पुआल लपेटे बेटियां -

तय कर लेतीं है बेटी से लड़की होने तक का सफर !

 

भाई की किताब से झरते शब्द अंजुरी में रोप -

चुप-चाप बटोर लेती है प्रेम-पत्र पढ़ने जितने शब्द !

दूध का जूठा ग्लास धोती लड़की -

बिना दूध पिए बड़ी हो जाती है समय से पहले ,

सकुचाते हुए प्रेम को जरूरी मानती है -

दुपट्टे जितना ,झाड़ू जितना ,चूल्हे जितना जरूरी !

 

प्रेम पोसती लड़की पालती है जंजीरें भी !

बियहुती साड़ी के खूंटे गठियाया किसी प्रेयस का प्रेम -

पिता के सम्मान का विलोम नहीं रह जाता !

प्रेम और सम्मान को साथ रखने की जिद में -

थोड़ा-थोड़ा रोज कम होती है लड़की !

और एक दिन रीत जाता है उसका लड़कीपन भी !

 

बेपरवाह सा डायरी पलटते मैं देख लेता हूँ आखिर-

पीले पड़े पत्ते, सूखती हुई नदी, बड़ी हो चुकी बेटी !

 

तब उसकी गोद में एक बेटा लिख देता हूँ मैं !

बेटा अपनी किस्मत में बिदेस लिख लेता है ,

अपनी माँ की किस्मत में -

चुहानी के धुँआए सांकल से लटकती अकेली मौत !

 

अब मैं जब भी लिखूंगा ‘बेटी’तो नहीं देखूंगा आकाश ,

लिखूंगा -

   कि वो छीन लेती है अपने हिस्से की किताबें !

   दूध देख नाक सिकोड़ती लड़की -

   प्रेम को मानती है नमक जितना जरूरी !

   प्रेयस के लिए चौराहे की दुकान से खरीदती है -

   “जस्ट फॉर यू” लिखा कॉफ़ी मग ,

   पिता के लिए नया चश्मा कि देख सकें -

   सम्मान के नए शिखर ,

   बेटी के मजबूत होते पंख !

फिर सौंप दूँगा उसे अपनी अधूरी डायरी -

कि वो खुद तय करे अपनी कहानी का उपसंहार !

 

 

 

 

 

14

आ० मीना पाठक जी

*आक्रोश* 

मेरी लाडो !
होना ना भयभीत तुम 
उन नरपिशाचों से 
भूखे हैं जो तुम्हारे मांस के लोथडों के 
जो नोच कर पी लेना चाहते हैं रक्त 
ना हो तुम उनके लिए बेटी, बहन, इंसान
हो बस् पिपासा शांत करने का सामान 
उठो अब !! 
धार दो अपने शस्त्रों को
जो ईश्वर ने दिया है तुम्हें सौगात 
दाँत, तुम्हारे नाखून कब आएंगे काम 
नहीं है ये सिर्फ सौंदर्य का सामान 
प्रयोग करो इनका, बना कर हथियार 
कहलाओ ना फूल सी
करो मजबूत अपना जिस्म कोमल 
पी लो तुम भी रक्त उनका नृसिंह सी 
किया है जिन्होंने जीना मुहाल 
घर हो या बाहर, 
घात लगा, बैठे हैं तैयार, 
सजग रहो, करो पलटवार  
कोमलांगी नही वज्रांगी बनो
बाँध लो अपनी कमर में कटार  
मरना ही है तो लड़ कर मरो
मरने से पहले मत मरो
मरने से पहले मत मरो  ||  

 

 

 

15

आ० सुशील सरना जी

बेटियां - सभ्य समाज का आईना ....

देश को अभिमान होता है 
जब कल्पना चावला जैसी बेटियां 
नभ को छूती है 
अपनी योग्यता के परचम 
उन्नति के हर पथ पर फहराती हैं

समाज शर्मसार होता है 
जब हैवानियत की हदें पार कर 
किसी बेटी की अस्मत 
को कोई दागदार करता है

जब अख़बार का कोई पन्ना 
नदी में तैरते मादा भ्रूणों की तस्वीर दिखाता है 
तो हर शख़्स को ये प्रश्न कचोटता है 
क्या मादा होना इस भ्रूण का गुनाह है ?

जब झाड़ियों,मंदिर के अहातों और कचरे के ढेर में 
नवजात मादा का जिस्म 
कोई हैवान छोड़ जाता है 
इंसान होकर भी जो 
इंसानियत को शर्मसार करता है

बेटी के जन्म लेते ही 
क्यों जन्मदाता के भाल पर 
चिंता की रेखायें उभर आती हैं

क्यों गर्भ में

मादा भ्रूण की हत्या करवा दी जाती है

समाज में ये वर्तमान सभ्यता कैसा दंश है 
जिस पावन कोख से इस सृष्टि ने सांस ली 
उसी की सांसें कोख में ही छीन ली जाती हैं

विवाह की पावन अग्नि के समक्ष सात फेरों में 
जीवन भर साथ निभाने का वचन देने वाली बेटी को 
कभी दहेज़ तो कभी संदिग्ध चरित्र के कारण 
प्रताड़ित किया जाता है,
अग्नि के हवाले कर 
नभ को काला कर दिया जाता है

बेटियां तो समाज का आईना होती हैं 
एक सभ्य समाज की नींव होती हैं 
बेटियां सृष्टि के लिए विधाता की अनमोल देंन हैं 
आश्चर्य है वो बेटी जिसमें एक पत्नि और माँ का रूप है 
जिससे उसका उद्भव हुआ 
उसे इंसान बोझ समझता है

एक सभ्य और उन्नत समाज के लिए 
बेटियों के प्रति अपनी 
विकृत मानसिकता को बदलना होगा 
उस पर होने वाले अत्याचारों पर 
अपनी मूक नीति को त्यागना होगा 
बेटियोँ की महता को कम आंकना 
भविष्य में भयानक परिणामों को न्योता देना होगा


उसके माथे की बिंदिया को 
समाज का गौरव बनाना होगा 
नारी के बिना तो 
पुरुष का अस्तित्व ही अकल्पनीय है 
इस सत्य से स्वयं को रूबरू करवाना होगा

जब तक बेटियों के प्रति 
हमारी विकृत मानसिकता परिवर्तित नहीं होगी 
वहशी दानवता का अंत नहीं होगा 
उसके अलता लगे पावों को सम्मान नहीं मिलेगा 
तब तक ये समाज एक सभ्य और उन्नत समाज से 
कदापि अलंकृत न हो पायेगा

 

 

 

 

16

आ० अन्नपूर्ण बाजपेयी जी

बेटी घर की रौनके , इनसे घर का गान ।

सजाती सँवारती ये , घर मे डाले जान ॥

घर मे डाले जान , कोना कोना महकाये ।

बेटी बनी चिराग , सप्त स्वर ये गुंजाये ॥

कहती हरदम ‘अंजु’ , बागडोर थाम लेती ।

रौशन कर दें नाम,  सभ्य सुसंस्कृत बेटी ॥ 

 

 

 

 

17

आ० नादिर खान जी

बदल रहा है समाज

आगे बढ़ रही हैं बेटियाँ

हाँ ! कभी कभी

घटनायें कलंकित कर देती हैं

समाज को

डरने लगते हैं माँ-बाप

मगर बेटियाँ ...

न जाने किस मिट्टी की बनी है

न टूटती हैं न डरती हैं

दुगने हौसले के साथ

नई उमंग लिए

उठ खड़ी होती हैं

और देती हैं

ज़ोर का तमाचा उन गालों पर

जो कमजोर कर रहे हैं

खोख़ला बना रहे है

समाज को

दिखा रहे हैं खोखली मर्दानगी

अपने वहशीपन से

 

बेटियाँ रुक नहीं रहीं  

न डर रही हैं  

हिम्मत के साथ

आगे बढ़ रहीं है

तकलीफ़ों और विषमताओं के बावजूद

छोड़ रही हैं अपनी छाप

दिखा रही हैं अपना दमखम

मजबूत कर रही है

समाज में अपनी जगह

अपनी पहचान

बता रही हैं सबको

बेटियाँ जड़ हैं समाज की

बेटियों से समाज है

 

 

 

 

18

आ० कुंती मुखर्जी जी

कितनी बार दोहराओगे बाबू!

बेटी-‘’कितनी बार दोहराओगे बाबू!

भोतरे ज़बान से

जंग लगे रीति रिवाज़.

बदल गयी हवा गाँव-गाँव

शहर दस्तक दे रहा

घूँघट अब सही न जाती

अब रेंप पर चोली घाघरा का फ़ैशन.’’

बाबू-

‘’कट गया जंगल

भर गये भेड़िये शहर-शहर

मत जा बिटिया बाहर

घर-खेत-खलिहान

इसी में तेरा जीवन.’’

बेटी-

‘’ऐसा वशीकरण मंत्र दे बाबू

भेड़िया सुपात्र हो जाए

बदले उनकी मानसिकता

जंगल-जंगल ही रहे.

कभी न बने शहर गाँव

इतिहास गवाह है

जब भी अपमानित हुई नारी

राष्ट्र का विनाश हुआ अश्वमभावी.

मैं घर भी लिपूँगी

उपले भी पाथूँगी

एक मोटरकार ले दे मुझे

तुझे देश की सैर कराऊँगी.

बेटा नहीं तेरे पास तो क्या हुआ

समझ मुझे ही श्रवणकुमार बाबू.’’

बाबू-

‘’तू जुग जुग जी

सौ बेटा तुझ पर वारूँ

पर क्या करूँ बिटिया

मन मेरा थर थर काँपे

तू जब भी चलती घूँघट उठाये

हाड़ मांस का बना हूँ तन मेरा लोहा नहीं

कैसे तुझे बचाऊँ गिद्ध कौवों से.’’

बेटी-

‘’मैं लाश नहीं बाबू न मात्र देह

औरत ममतावश बलिदान है देती

कब तक बेटी धरा पर जाएगी कुचली?

चलती फिरती अग्नि हूँ

एक बार छोड़ देख मुझे......

कितनी ज्वाला कितने आक्रोश

कब तक सहेगी धरती

सोच....बाबू....सोच.’’

 

 

 

 

19

आ० सूबे सिंह सुजान जी

मुक्तक-

    

समाज बनता है बेटियों से

दिया भी जलता है बेटियों से।

जो बेटियाँ मारते रहोगे,

समाज घटता है बेटियों से।।

 

 

 

 

20

आ० सीमा अग्रवाल जी

क्या लिखू? कैसे लिखू?
आत्मा का रुदन
संभव है?
लेखनी से लिखना
कलियुग की कलुषता
कहर बन छाई
लील गयी जीवन
जिस कृत्य की कल्पना से
होती घ्रणा
धिक्कारती आत्मा
दंश उसका
संभव है ?
भूलना
देख गुडिया की दशा
अब नहीं लिखती पाती अजन्मी बेटिया
पूछती है
क्या है उसका कसूर ?
क्या उसकी निश्छल हंसी ,किलकारी
क्या यह भी अब कारन है ?
उसकी तो उम्र ही फ्राक पहनने की है
तो फिर ?
नहीं ,नहीं माँ मुझे डर लगता है
नहीं आना चाहती
ऐसे संस्कार विहीन समाज में
जहा
'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते' विचारो में रखते है
अस्मिता का हरण व्यवहार में करते है
करते है कन्या दान , दहेज के लिए जलाते है
करते है भ्रूणहत्या , कन्या जीमाते है
आदमी का जब विवेक चुक जाता है
संस्कार जो अच्छे बुरे का ज्ञान कराता है
राम -सीता ,कृष्ण -राधा नहीं आदर्श अब
आदर्श अब मुन्नी ,शीला
देख के इन आदर्शो को
उठती मानवता की अर्थी
पीते नहीं गरल शिव सा
लेते भैरू का प्रसाद
समाज जब तलक है रीढ़ (संस्कार ) विहीन
नारी सर्वदा रहेगी यु ही हीन ........................

 

 

 

21

डॉ० प्राची सिंह जी

भारी हृदय है गहरा ज़खम है

बोझिल कलम औ’ दृगकोर नम है 

 

लाडो दुलारी, जाँ थी हमारी

गिद्धों नें नोचा, उफ़! बारी-बारी

गुड़िया हिफाज़त को गिड़गिड़ाई

रक्षक ही भक्षक, अह! आतताई

 

किस दिश निहारें? हर ओर तम है 

बोझिल कलम औ’ दृगकोर नम है 

 

चीखी चिंघाड़ी रोई बिलख कर

दानव न ठहरे - ठिठके निरख कर

लूटा-घसीटा पटका- सताया

नन्ही परी को सूली चढ़ाया

 

हैवानियत का कैसा चरम है

बोझिल कलम औ’ दृगकोर नम है 

 

मंज़र को ताकें भौचक निगाहें,

अंतर को चीरें चीखें-कराहें

कातिल दरिन्दे फाँसी चढ़ा दें  

पुरुषत्व छीनें गरदन उढ़ा दें  

 

इन दानवों को हर दंड कम है

बोझिल कलम औ’ दृगकोर नम है 

 

शासन प्रशासन को अब झँझोड़ें  

हर सुप्त उर की तन्द्रा को तोड़ें  

अब त्रासदी से बिटिया उबारें

नैतिक रसातल से राष्ट्र तारें

 

स्वर्णिम भविष का रखना कदम है

बोझिल कलम औ’ दृग्कोर नम है

 

 

 

 

22

आ० अशोक कुमार रक्ताले जी

२१२१     २१२१     २१२१   २१२

राह अब समाज को दिखा रही हैं बेटियाँ,

सत्य झूठ का सफा पढ़ा रही हैं बेटियाँ,

 

बेटियाँ विकास की मिसाल हैं समाज में,

मान आज देश का बढ़ा रही हैं बेटियाँ,

 

फौजियों के वेश में लड़ा रही है जान जो,

देश में समाज में बला रही हैं बेटियाँ ,

 

दानवों की सोच में अधिक नहीं है देह से,

जान आज देश में गँवा रही हैं बेटियाँ,

 

लोभ कूप में गिरे कई-कई हैं आदमी,

मूल्य लोभ का मगर चुका रही हैं बेटियाँ,

 

कायरों की भीड़ और शोर व्यर्थ के सभी,

रोज ही गुनाह जब छुपा रही हैं बेटियाँ,

 

शेरनी का रूप आज हिरनियाँ ठगी गयी,

जाल में बहेलिये के जा रही हैं बेटियाँ,

 

शायरों की शायरी हरेक गीत छंद में,

दर्द है कहाँ कहाँ लिखा रही हैं बेटियाँ,

 

बोलना ‘अशोक’ का रास भी न आए तो,

बुजदिली का दौर है बता रही हैं बेटियाँ |

 

 

 

 

23

आ० माहेश्वरी कनेरी जी

मुक्त कर दो

मूक आसमान देखता रहा

धरती भी शर्मसार हुई

लुटी अस्मिता जब जब बेटी की

माँ का आँचल, तार तार हुआ

सुप्त समाज में जब भी सेंध लगी

हर बार बहु बेटी ही ढेर हुई

युग बीता,वक्त बदलता गया

पर जन मन की नियत बदली नहीं

सीता, द्रोपदी कुंतियाँ

और कितनी बार

 छली जाएंगी ?

कब तक आँसुओ से उनके

जुल्म का इतिहास लिखा जाएगा

बहुत हुआ ! अब तोड़ दो

घिनौने समाज के इस ढा़चे को

जहाँ चीख दबी हुई है बेटियों की

कर दो आजा़द उन्हें..

और मुक्त कर दो

सहमी सी आँखों के उस डर को

बसने दो वहाँ पर सपने

आँगन की चिरैया सी

 उड़ने दो उन्हें अलमस्त

तब न होगी  धरती कभी शर्मसार

न होगा किसी माँ का आँचल तार तार

 

 

 

 

24

आ० अरुण कुमार निगम जी

समाज और बेटियाँ ......

मार दिया है मुझे गर्भ में , फिर भी मैं मानूँ उपकार

ऐसी दुनियाँ में क्या जीना , जहाँ सिर्फ है अत्याचार

 

भला हुआ जो मरी भ्रूण में , ताने  अब मारेगा कौन

कौन  सुनेगा  सन्नाटे को , कौन  बाँच पायेगा मौन

 

माँ   तुझको   सब   कहे   कुमाता , यह  कैसे कर लूँ मंजूर

कैसे   मेरा   मान   बढ़ेगा   ,   अगर   पिता   मेरे   हों क्रूर

 

बस   बेटे  को  चाहा  सबने  ,  बेटी   समझी  बोझ  समान

धन की खातिर बिके चिकित्सक , समझे जाते जो भगवान

 

अग्नि - परीक्षा  भी  करवाई  ,  कभी  कराया है विष - पान

चुनी   गई   मैं   दीवारों में , मुझे   मिला   है कब सम्मान

 

लूटा   नोंचा   हत्या  कर   दी , और   दिया  वृक्षों  पर टांग

न्याय दिलाया है कब किसने , सबके सब बस करते स्वांग

 

ओ   समाज के  ठेकेदारों , दोगे  कब  तक  ऐसे  दंश

बिटिया  ही  जब  नहीं रहेगी , कौन बढ़ाएगा फिर वंश

 

सोच बदल लो अभी वक्त है , कोख नहीं हो जाए बाँझ

भूला  भूला  नहीं  कहाए , अगर  लौट घर आये साँझ

 

 

 

 

25

आ० बृजेश नीरज जी

निहितार्थ समझने होंगे

 

समय-चक्र के साथ   

पा तो लिया रूप-रंग

चिकनी चमड़ी   

लेकिन मानव हुआ कब  

आदम ही हैं इन्द्रियाँ

 

सोच में वीभत्स चेहरे  

विचारों में खीसें निपोरते

बंदरों से झपट्टा मारते

सूँघते ही मादा गंध

फडकने लगते हैं नथुने

 

अब यहाँ बादल नहीं छाते

फुहारें नहीं पडतीं

नर्म ठंडी हवा नहीं है

नदी सूख गई

 

रासायनिक बदलाव हो रहे हैं

दरक गई धरती

फ़ैल रहा है जहर

वातावरण में

जड़ों से होता पूरे शरीर में

जंगल में

फ़ैल रही है देह-पिपासा

 

बेटी

मौसम के इस परिवर्तन को जानो

समझो रासायनिक परिवर्तनों को

मुँह से टपकती लार

आँखों में छिपी डोरियों को पहचानो

तुम्हें जीने के लिए

भाषा-भावों के निहितार्थ समझने होंगे

 

 

 

 

26

आ० मंजरी पाण्डेय जी

बेटी हाड़ मांस का पुतला नहीं
समग्र संसार होती है .!
घर का गहना,रूपा सोना
आँगन की बहार होती है ,!
वह रिश्तों का पुलिन्दा नहीं
तमाम रिश्तों की रूह होती है ,!
दिल ,दिमाग और जान से
हर रिश्तों में मशरूफ होती है !
बेटी कभी अकेली नहीं है
वह पूरा समाज होती है !
वंश पनपते इससे छाजन सी वह होती
दरअसल समाज की धुरी होती है ,!
हाँ समाज का मूल्य घटा है
संस्कार हमने छोड़ा है !
अंधानुकरण में अंधे होकर
परम्पराओं से मुँह मोडा है !
कभी संस्कारों से रची बसी
बेटी पावन रूप थी होती ,!
त्याग तपस्या से वह अपने
लक्ष्मी सरस्वती स्वरुप थी होती ,!
घर घर बेटी पूजी जाती
गाँव महाल की इज़्ज़त होती !
मान मर्यादा ढ़ो - ढ़ो कर वह
आन बान सम्मान थी होती !
आज भी रुके नहीं वो पग
उन्नति -पथ में वह बढी जा रही !
चंद अपमानी घटनाओं से वह डी
और बुलंद हो बढ़ी जा रही ł.
आग में घी ने काम किया जो
वही ज्वालासी वह बढी जा रही !
जीवन के हर हद में देखो
निर्भय होकर बढ़ी जा रही ,
परिवर्तन की आंधी आई
जोत जगत में बढी जा रही फ
सावधान माँ बाप औ मञ्जरी ,
ज़िम्मेदारी बढी जा रही ,!

 

 

 

27

आ० गीतिका ‘वेदिका’ जी

अब तक तो है साध अधूरी

कब होगी ये कविता पूरी!

जब भी मेरी बिटिया ने

छत पर गेंहूँ फैलाया है

तब तब देखो कुदरत

बादल ने पानी बरसाया है

क्या दूँ मै उसकी मजदूरी

जब कर ले वह कविता पूरी!

मन भी है उड़ने को आतुर

खुला गगन भी रहा सामने

हवा संग बह रहीं उड़ानें

बाँह करें हौसला थामने

पंख नहीं तो क्या  मजबूरी

होनी होगी कविता पूरी!

 

 

 

 

28

आ० नादिर खान जी

विषय - समाज और बेटियाँ

 

बेटियाँ जानना चाहती हैं

क्यों तंग हो जाते हैं रास्ते

क्यों तन जाती हैं भौहें

उनके लिए

 

बेटियाँ जानना चाहती हैं

लोगों की नियत मे खोट है

तो ढेरों पाबंदियाँ उनपर क्यों  

 

बेटियाँ जानना चाहती हैं

आधी आबादी के

पीछे रह जाने का

पूरा सच

 

बेटियाँ

चाहती हैं पूरा इंसाफ

आधी आबादी के लिए

 

बेटियाँ बदलना चाहती हैं

बेतुकी,असंवेदनशील मान्यताओं को

जो थोपी गई है उनपर

बेवजह,बेसबब

 

बेटियाँ बदलना चाहती हैं

सिस्टम को

जो नहीं दे पा रहा उन्हें सुरक्षा

नहीं दे पा रहा भय मुक्त माहौल

बेटियाँ बदलना चाहती हैं

समाज की मानसिकता ....

 

 

 

 

29

आ० बोधिसत्व कस्तूरिया जी

क्यूँ आज भी समाज़ मे घुट-घुट के जी रही हैं बेटियाँ?
पाँवों मे पायल नही, बेडी पहन कर जी रही है बेटियाँ !
धिकार है समाज को जहाँ,बैश्या बन जी रही है बेटियाँ,
हमने कभी उन्हे देवी कहा, दासीबन जी रही हैं बेटियाँ !!
समाज़ के रछक भछक बने फ़िरभी जी रही हैं बेटियाँ,
भाई-बाप ही आनर किलिंग करे,कहाँ जी रही है बेटियाँ?
अभिषाप रुकेगा नही ,क्योंकि होठों को सी रही है बेटियाँ,
घर बाहर बोलने की दो इज़ाज़त,अबलानही रही है बेटिया!!
समाज के जिस अभिषाप का पुरुष उत्तरदायी है हमेशा,
परिवार के सममान को क्यूं गले लगा जी रही है बेटिया!!

 

 

 

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Replies to This Discussion

आदरणीय अशोक रक्ताले जी आपकी ऊर्जस्वी उपस्थिति के लिए आभारी हूँ 

सादर.

डॉ . प्राची सिंह जी!
इस महा-उत्सव अंक-४४ की समस्त रचनाओं को संकलित करने के लिए बहुत-बहुत आभार. यह संकलन एक नयी सोंच को जन्म देता है,समसामयिक दुराचारों को उजागर करता है,दुराचारियों को ललकारता है,सुधि जनों में सदैव ही आशा का नया संचार करता रहेगा . ऐसे आयोजन भविष्य में भी करतें रहें ताकि सामाजिक बुराइओं पर निरंतर चोट होता रहे जबतक वे समाप्त नहीं हो जाते. यह अंक अत्यंत उपयोगी है.
सादर.

आदरणीय विजय प्रकाश शर्मा जी 

इस आयोजन और संकलन की सार्थकता पर आपका मुखर अनुमोदन हमारे प्रयासों की सदिशता को मिला अनुमोदन है...

मंच ऐसे ही सामाजिक और जन जन के भावना से जुड़े मुद्दों को काव्य-साहित्य की परिधि में लाते हुए सामाजिक विषमताओं को चीर मार्ग दर्शाते हुए सार्थक रचनाकर्म हेतु कृत संकल्पित है.

आपकी सदाशयता के लिए सादर धन्यवाद.

आदरणीया प्राची जी , आपके मंच संचालन में एक और सफल-सार्थक् आयोजन के लिये आपको  ढेरों बधाइयाँ ॥ बहुत सारी रचनाओं के माध्यम से समाज की , समाज मे रहने वालों की बहुत सी कमियाँ उजागर हुईं हैं । मै समझता हूँ कारणों को केवल जानने के लिये ही नही जानना चाहिये , अपने स्तर पर निदान की इमानदार कोशिश भी होनी चहिये । यही मै अपने आप से  और सभी से आपेक्षा करता हूँ । जागरूकता विचारों से शुरू होकर कर्म तक पहुंचे यही मेरी ईश्वर से प्रार्थना है ॥

बिलकुल सही कहा आदरणीय गिरिराज भंडारी जी // कारणों को केवल जानने के लिये ही नही जानना चाहिये , अपने स्तर पर निदान की इमानदार कोशिश भी होनी चहिये//................. सही विचारों का कर्म रूप में आचरण रूप में परिणत होना ही किसी विचार की सार्थकता है...अन्यथा ऐसे विचारों और मुंगेरी लाल के सपनों में क्या फर्क?

जागरूकता विचारों से शुरू होकर कर्म तक पहुंचे यही मेरी ईश्वर से प्रार्थना है...................आपके शब्दों के साथ ही मैं भी यही प्रार्थना करती हूँ 

सादर धन्यवाद 

आदरणीया डॉ प्राची जी इस  सफल आयोजन एवं शीघ्र संकलन के लिए मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें.

धन्यवाद आदरणीय अखंड गहमरी जी 

आदरणीया डॉ प्राची जी इस  सफल आयोजन  मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें.  सभी रचनाओं का  संकलन देख कर बहुत ख़ुशी हुई  तथा समस्त रचनाएँ एक साथ पढ़कर सचमुच बहुत अच्छा लगा । आपको एवं सभी  को हार्दिक बधाई | 

धन्यवाद आदरणीया माहेश्वरी कनेरी जी 

आ. मंच संचालिका जी सादर,क्या अब  प्रस्तुति में संशोधन किया जा सकता है?  यदि संभव हो तो मूल रचना निम्नवत संशोधित रचना के स्वरुप में परिवर्तित  कर दी जाय, 

बेटियाँ गंगा नदी सी, पाप सारे धो रही।   

झेलती संताप बेटी, अस्मिता को खो रही।।   

वेद मन्त्रों की ऋचाएँ, बेटियाँ ही भक्ति हैं।

चेतना सामर्थ्य दात्री, बेटियाँ ही शक्ति हैं।१।

 

नारियों को पूजते थे, देवियों के रूप में।

देवता भी देखते थे, स्वर्ग के प्रारुप में।।

घूमते निर्द्वंद्व  हो के, आततायी देश में।

माँगती है न्याय बेटी, निर्भया के वेश में।२।

 

कामियों के आज हाथों, लाज बेटी खो रही ।   

भ्रूण हत्या कोख में  ही, बेटियों की हो रही ।।  

यातना का दर्द सारा, नर्क का परिवेश हैं।

लुप्त होती बेटियाँ औ, सुप्त सारा देश है।३।

 

              -मौलिक व अप्रकाशित 

सादर धन्यवाद 

यह एक सार्थक तथा सराहनीय प्रयासकर्म है, आदरणीय सत्यनारायणजी. मैं आपकी इस संलग्नता और सतत प्रयास को सादर सम्मान की दृष्टि से देखता हूँ.

सादर

आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी 

आपके इस सतत और सजग रचना कर्मिता के प्रति नत हूँ.....  

रचनाकार एक बार अपनी प्रस्तुति दे कर उत्सव के दौरान भी जहां सुधीजनों द्वारा सुझाए गए सुधारों पर बिना चिंतन मनन किये अगली प्रविष्टियाँ देने के मोह में फंस जाते हैं...वहीं आपको संकलन आने के इतने दिनों बाद भी अपनी रचना पर सुधार प्रेषित करते देखना बहुत संतोष प्रदान कर रहा है... 

आपकी मूल रचना को इस नयी रचना से प्रतिस्थापित कर देती हूँ.... लेकिन उससे पहले एक और सुझाव है..

बेटियाँ गंगा नदी सी, पाप सारे धो रही।   ...............यहाँ रही की जगह रहीं होना चाहिए क्योंकि बेटियाँ बहुवचन है 

झेलती संताप बेटी, अस्मिता को खो रही।।...............झेलतीं संताप अनगिन, अस्मिता भी खो रहीं ....क्या ऐसा करना उचित होगा ?

आप देख लीजिये और बताइये..मैं फिर परिवर्तन स्वीकृत कर लेती हूँ 

सादर.

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