आदरणीय साथिओ,
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आदरणीया प्रतिभा जी, इस प्रयास पर आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया मुग्धकारी है। सराहना हेतु हार्दिक आभार। बहुत बहुत धन्यवाद आपका। सादर।
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी, आपने समाधान के अंतिम पंक्ति में बिलकुल स्तब्ध कर दिया. ऐसे भी हो सकता है और हो भी रहा है.
प्रदत्त विषय पर संतुलित वार्तालाप के साथ लघुकथा का समापन प्रवाह को बनाये रखता है. बहुत बहुत बधाई!
आदरणीय जवाहर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। बहुत बहुत धन्यवाद। सादर।
समय बदल रहा है, सोच बदल रही है, फिर भी कुछ समस्याएँ जस-की-तस आज भी हैं| बहुत समय बाद आपकी लघुकथा पढने को मिली है, बढ़िया कथ्य चुना है आपने| एक इंसान के हालात उसको किस तरह मजबूर कर देते हैं| हार्दिक बधाई आपको इस बेहतरीन लघुकथा के लिए, आदरणीय मिथिलेश जी|
मेरे प्रयास की सराहना हेतु हार्दिक आभार आपका। बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया कल्पना जी।
बेहद उम्दा लघुकथा है आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी. बहुत-बहुत बधाई इस शानदार प्रस्तुति से गोष्ठी का आग़ाज़ करने हेतु. सादर.
आदरणीय महेन्द्र जी, मेरे प्रयास की सराहना हेतु हार्दिक आभार आपका। बहुत बहुत धन्यवाद।सादर।
एल.ओ.सी
प्रिय डायरी
सुनो न! आज मैंने एक चित्र देखा। उसमें एक आँख थी, उसमें खिड़की की सलाखें बनी हुईं थी, उन सलाखों के पीछे एक हाथ था। तुम भी सोच रही होगी मैं पागल हूँ, इस चित्र का उल्लेख क्यों कर रहा हूँ। तो सुनो! आज मैं तुमसे कुछ साझा करना चाहता हूँ। यह बात मैं किसी और से नहीं कर सकता। तुम तो मेरी पुरानी साथी हो, मेरी हमराज़ रही हो बचपन से... उस चित्र को देखकर मैं बहुत विचलित हुआ हूँ, पहली नज़र में तो ये चित्र मुझे समझ में नहीं आया। पर यह मेरे ज़हन से जा भी नहीं रहा था। मेरे मोबाइल की गैलरी में इसको बार-बार देख रहा था। ये चित्र मुझसे कुछ कह रहा था। आज मैं इसकी बात को कुछ हद तक समझ पाया हूँ। मैं एक अमीर घर से हूँ, यह तो तुमको पता ही है, बचपन से नौकर-चाकरों के बीच रहा। घर में बाकि सब तो अपने-अपने काम में व्यस्त रहते थे। पिताजी अपने बिजिनेस में, अक्सर टूर पर रहते थे, दादी अपने पूजा-पाठ में रहती, कभी कभी अपने संगी साथियों के साथ घूमने निकल जाती, माँ को क्लब और किटी पार्टीज से फुर्सत न मिलती। सब को आज़ादी थी, पर मुझे घर से बाहर जाने की आज़ादी नहीं थी, गर जाना होता तो ड्राईवर के साथ मेरी केअर टेकर मेरे साथ होती। मैं अपने दोस्तों को देखता था, किस तरह से आज़ादी से वे सब मिलझूल कर खेलते थे। मुझसे कहा था," बेटा! अपने स्टेट्स का ख्याल रखा करो। चाहो तो क्लब चले जाया करो, वहाँ अपने स्टेट्स के बच्चों से दोस्ती करो...। मुझे खुले आसमान के नीचे, मिट्टी में खेलने की इच्छा होती थी, पर सब... तुम समझ रही हो न मैं क्या कहना चाहता हूँ, अपने ही घर में क़ैद हो गया था, इस आँख में मैंने खुद को अपने ही घर में कैदी पाया, जो इन सब से मुक्त हो पंख लगाकर उड़ना चाहता था। पर यह उस वक़्त सम्भव नही लग रहा था। कुछ महीनों बाद पिताजी का स्वर्गवास हो गया, दादी भी इस गम में चल बसीं,अब घर में सिर्फ माँ और मैं...नहीं नहीं और सब नौकर... पर अब इतने नौकरों की क्या जरूरत थी? धीरे-धीरे माँ ने सब को नौकरी से मुक्ति दे दी। अब सिर्फ केअर टेकर, एक बाई जो घर की सफाई करती , और एक कूक! आज मैं बड़ा हो गया हूँ, तो बचपन के इस क़ैद को सोच कर परेशान हो जाता हूँ, क्या बड़े घरों के बच्चों की समस्यायों का कोई समाधान नहीं होता! अब मैं स्वतन्त्र हूँ, पर अब मैं खुद अपनी ही आँखों में क़ैद हो चूका हूँ... यही मेरी ज़िन्दगी है... बिज़िनेस और घर, और वही टूर्स... अपने पापा की तरह.... मेरा बेटा भी क्या खुद को.... पता नही। पर कहीं तो होगा न इसका समाधान। अमीरी और गरीबी के बीच की लकीर... यह कोई एल.ओ.सी तो नहीं.... डायरी! गर तुम्हारे पास कोई समाधान हो तो मुझे अवश्य बताना...इंतज़ार करूँगा।
तुम्हारा लेखक अविनाश
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
आदाब। लाइन ऑफ कंट्रोल को अमीरी-गरीबी और सादगी और आधुनिक जीवन शैली की नियंत्रण रेखा रूप में डायरी को बयां करती दास्तां। बहुत बढ़िया उम्दा। हार्दिक बधाई आदरणीया कल्पना भट्ट साहिबा।
धन्यवाद आदरणीय शहजाद उस्मानी जी|
आदरणीय कल्पना भट्ट रौनक़ जी आदाब बहुत सुन्दर प्रस्तुति पर बहुत बधाई स्वीकार करें सादर
धन्यवाद् आदरणीय आसिफ जैदी जी|
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