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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-47 में स्वीकृत लघुकथाएँ

(1). आ० मिथिलेश वामनकर जी.
समाधान

कॉलबेल का स्वीच आँखों के आगे और केवल एक उंगली की दूरी पर था लेकिन शम्भू उसे दबाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। उलझनों की गठरी लिए, कितना कुछ सोच लिया उसने। पहली बीवी बेटी का बोझ मढ़कर परलोक सिधार गई और दूसरी आई तो उसने बैंक का कर्ज़दार बना दिया। इस उम्र में दूसरे काम भी पकड़ लूँ लेकिन ये शरीर भी साथ नहीं देता। यह सोचकर उसका दिमाग और भन्ना गया। एक झटके से उसने, उस दरवाजे की कॉलबेल का स्वीच दबा दिया जिस पर आर.डी. की नेमप्लेट लगी थी। आर.डी. यानी राम दयाल उसका स्कूली सहपाठी।
दरवाजा खुला। दाख़िल होते ही देखा कि आर.डी. इंडस्ट्रीज का मालिक सोफे पर पसरकर सिगरेट के छल्ले बना रहा है।
"अरे आओ शम्भू बैठो।"
शम्भू सोफे के एक कोने में दुबक गया।
"और कहो भई, सब कैसा चल रहा है?" शम्भू की झेंप भांपते हुए आर. डी. ने पूछा।
"हुंह"
"कहो कैसे आना हुआ?"
"कुछ सहयोग चाहिए था।"
"सहयोग कैसा सहयोग? भई खुल के कहो।"
" दो साल पहले ही मैंने मकान के लिए कर्ज लिया था। अब इस उम्र की लाचारी ने नौकरी भी छीन ली। महीने की क़िस्त और घर की किल्लत से परेशान हो गया हूँ। ऊपर से घर में जवान बेटी है सो अलग।"
"भई परेशानी तो सब जगह है। तुम धन के लिये परेशान हो तो मैं अपनी विरासत के लिए।"
"मतलब?" शम्भू के लिए सिगरेट के छल्ले बनाते आर.डी. की परेशानी समझ से परे थी।
"भई मतलब ये कि तुम्हारी भाभी बिना औलाद दिए ही दुनिया से कूच कर गई। तुम तो किस्मत वाले हो कि तुम्हारी विरासत के लिए बेटी ही सही, पर है तो।"
"...."
शम्भू के होंठ फड़फड़ाये, जैसे कहना चाहते हों  कि विरासत है कहाँ? लेकिन वह चुप रहा।
"बस एक वारिस के लिए फिर से ब्याह करना चाहता हूँ। पिछले दिनों कुछ रिश्ते आये थे मगर कोई विधवा थी तो कोई अधेड़। "
नौकर चाय बिस्किट रखकर गया तो आर.डी. ने बात आगे बढ़ाई- "अब ऐसे ब्याह से वारिस तो कठिन है भई।" और आर. डी. ने एक जोरदार ठहाका मारा।
इस ठहाके ने शम्भू को सहज कर दिया।
"ये तो सही कहा आपने। दूसरी शादी बड़ी सावधानी से करनी चाहिए। अब देखिए मुझे मन मुताबिक लड़की के लिए कितना खर्च करना पड़ा। ऊपर से पहली रात को ही उसने अपना बड़ा मकान खरीदने की ज़िद पकड़ ली। अब तक उसकी मुराद पूरी करने की सजा पा रहा हूँ।"
"अरे हाँ तुम सहयोग की बात कर रहे थे। मैं अपनी ही लेकर बैठ गया।"
ये सुनकर शम्भू को जैसे पूरा प्लेटफार्म ही मिल गया। उसने पूरी रूदाद सुना डाली। आर. डी. ने बस "हुँह" कहा। शम्भू ने आगे कहा-
"बैंक का कर्ज और घर में कुँवारी लड़की, बस इसीलिए कुछ सहयोग चाहता था।"
कुँवारी लड़की सुनकर आर. डी. का दिमाग चौकन्ना हो गया। इसके बाद कमरे में ठहाकों का दौर चला। दोनों ने एक दूसरे का मुँह मीठा किया।
आर. डी. को विरासत की चिंता से मुक्त कर शम्भू नोटों से भरा बैग लेकर चला तो जैसे खुशी से झूम रहा था क्योंकि उसने बेटी का रिश्ता भी तो तय कर दिया था।
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(2).  आ० कल्पना भट्ट ('रौनक़') जी 
एल.ओ.सी

प्रिय डायरी

सुनो न! आज मैंने एक चित्र देखा। उसमें एक आँख थी, उसमें खिड़की की सलाखें बनी हुईं थी, उन सलाखों के पीछे एक हाथ था। तुम भी सोच रही होगी मैं पागल हूँ, इस चित्र का उल्लेख क्यों कर रहा हूँ। तो सुनो! आज मैं तुमसे कुछ साझा करना चाहता हूँ। यह बात मैं किसी और से नहीं कर सकता। तुम तो मेरी पुरानी साथी हो, मेरी हमराज़ रही हो बचपन से... उस चित्र को देखकर मैं बहुत विचलित हुआ हूँ, पहली नज़र में तो ये चित्र मुझे समझ में नहीं आया। पर यह मेरे ज़हन से जा भी नहीं रहा था। मेरे मोबाइल की गैलरी में इसको बार-बार देख रहा था। ये चित्र मुझसे कुछ कह रहा था। आज मैं इसकी बात को कुछ हद तक समझ पाया हूँ। मैं एक अमीर घर से हूँ, यह तो तुमको पता ही है, बचपन से नौकर-चाकरों के बीच रहा। घर में बाकि सब तो अपने-अपने काम में व्यस्त रहते थे। पिताजी अपने बिजिनेस में, अक्सर टूर पर रहते थे, दादी अपने पूजा-पाठ में रहती, कभी कभी अपने संगी साथियों के साथ घूमने निकल जाती, माँ को क्लब और किटी पार्टीज से फुर्सत न मिलती। सब को आज़ादी थी, पर मुझे घर से बाहर जाने की आज़ादी नहीं थी, गर जाना होता तो ड्राईवर के साथ मेरी केअर टेकर मेरे साथ होती। मैं अपने दोस्तों को देखता था, किस तरह से आज़ादी से वे सब मिलझूल कर खेलते थे। मुझसे कहा था," बेटा! अपने स्टेट्स का ख्याल रखा करो। चाहो तो क्लब चले जाया करो, वहाँ अपने स्टेट्स के बच्चों से दोस्ती करो...। मुझे खुले आसमान के नीचे, मिट्टी में खेलने की इच्छा होती थी, पर सब... तुम समझ रही हो न मैं क्या कहना चाहता हूँ, अपने ही घर में क़ैद हो गया था, इस आँख में मैंने खुद को अपने ही घर में कैदी पाया, जो इन सब से मुक्त हो पंख लगाकर उड़ना चाहता था। पर यह उस वक़्त सम्भव नही लग रहा था। कुछ महीनों बाद पिताजी का स्वर्गवास हो गया, दादी भी इस गम में चल बसीं,अब घर में सिर्फ माँ और मैं...नहीं नहीं और सब नौकर... पर अब इतने नौकरों की क्या जरूरत थी? धीरे-धीरे माँ ने सब को नौकरी से मुक्ति दे दी। अब सिर्फ केअर टेकर, एक बाई जो घर की सफाई करती , और एक कूक! आज मैं बड़ा हो गया हूँ, तो बचपन के इस क़ैद को सोच कर परेशान हो जाता हूँ, क्या बड़े घरों के बच्चों की समस्यायों का कोई समाधान नहीं होता! अब मैं स्वतन्त्र हूँ, पर अब मैं खुद अपनी ही आँखों में क़ैद हो चूका हूँ... यही मेरी ज़िन्दगी है... बिज़िनेस और घर, और वही टूर्स... अपने पापा की तरह.... मेरा बेटा भी क्या खुद को.... पता नही। पर कहीं तो होगा न इसका समाधान। अमीरी और गरीबी के बीच की लकीर... यह कोई एल.ओ.सी तो नहीं.... डायरी! गर तुम्हारे पास कोई समाधान हो तो मुझे अवश्य बताना...इंतज़ार करूँगा।

तुम्हारा लेखक अविनाश
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(3). आ० कनक हरलालका जी 
दिल की आवाज
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"सुनो, अम्मा बहुत नाराज हैं।"
"हां हमने भी तो स्वार्थवश उन्हें बहुत दुःख पंहुचाया है। यह तो भला हुआ कि मेरे बहुत अनुरोध करने पर वे वृद्धाश्रम से तुम्हारी जचगी के लिए घर आने पर तैयार हो गईं।"
"हाँ..., पर नाराज तो वे हैं ही न। माना कि हमसे गलती हो गई पर वे तो कुछ बोलती भी नहीं हैं। बस चुपचाप जितनी जरूरत हो उतना काम कर देती हैं।"
"मुनुवा को तो खिलाती हैं न।"
"नहीं, मुनुवा की तरफ तो नजर उठा कर भी नहीं देखतीं। कल पड़ोस वाली आंटी से बात कर रही थीं तो मैंने सुना कह रहीं थीं कि मैं तो बस कामवाली हूँ, मेरा उनका कोई नाता नहीं है।"
"अरे माँ हैं, गुस्सा हैं, देखना एक दिन मान ही जाएंगी...।"
तभी बच्चे ने रोना शुरू कर दिया।
"अरे.. लड़का कितनी देर से रो रहा है...। कहाँ है उसके माँ बाप...? मुझे क्या..? जब माँ को ही परवाह नहीं है तो मुझे क्या मतलब...।
ओह....।। कितनी देर से कितनी बुरी तरह रो रहा है। पता नहीं उसकी माँ कहां गई होगी..।।"
अब वे अधिक नहीं रुक सकीं। आगे बढ़ कर बच्चे को गोद मे उठा ही लिया,
"अरे रे रे..चुप...चुप.. रोते नहीं...। वैसे तू भी अपने बाप की तरह ही रोता है...चुप हो जा...। वो भी छोटा था तो ऐसे ही रोता था...।बड़े हो कर भी अपने बाप की तरह ही निकलना... उन्हें भी वृद्धाश्रम में छोड़ आना...। चुप..चुप..।।"
उधर परदे के पीछे बेटे बहू चुपचाप शर्मिंदा से मुस्कुरा उठे।
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(4). आ० मनन कुमार सिंह जी 
लकीरें
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खुदा ने कुछ लकीरें खींची।आदमी हुए,औरतें हुईं। सृष्टि-क्रम चल निकला।फिर लकीरें खींची जाने लगीं।आदमी खुदा होने लगा।लकीरों की सघनता परस्पर विक्षोभ का सबब हुई।पसरे पैर सिकोड़ने की नौबत आ गई,पर यह असंभव लगा,इज्जत के खिलाफ भी।सिकुड़ी धरती विनय करती,पर कोई सुनता नहीं।दंभी खुदाई का दौर जारी रहा। आदमी आदमी से क्या,खुद दे भी जुदा हो चला।दिल-दिमाग का मेल खत्म होने लगा।फिर पैर से पैर टकराए,अब सिर से सिर टकराते हैं।नर धर हुआ चल रहा है।कहीं भी,कोई भी,किसी से भी टकरा सकता है।ग्रह-तारे गवाह हैं कि जब आपस में टकराए तो लुढ़क गये,उल्का-पिंड बनकर।वे हँस रहे हैं,कि विवेक अपनी टेक भूल गया।हम मिटते हुए भी उजाला बिखेरते गये।आदमी तो प्रकाशित पुंज होते हुए भी अँधेरे गर्त में जा रहा है।हाथ में कलम लिए बैठे लेखक से एक टूटता तारा पूछता है-
-क्या कर रहे हो?
-समाधान ढूँढ़ रहा हूँ।
-कैसा समाधान?
-तेरे नहीं बिखरने का।
-यह नियति है।हम टूटकर धरती पर आते हैं।जितना हो सके, उजाला फैलाते हैं।
-मैं वही रौशनी ढूँढ़ रहा हूँ,जो भटके हुए को रास्ता दिखाये।
-शाबाश!देखो,मैं वह ज्योति-पुंज हूँ।भूले को राह दिखाता हूँ,खुद को मिटाकर,औरों को नहीं।
-मैं भी खुद को अपने शब्दों में मिटा रहा हूँ।रौशनी होगी क्या?
-अवश्य होगी मेरे अदबकार,अवश्य होगी।मन-मस्तिष्क के मेल का खेल जारी रखो।
-जरूर।मैं समाधान मिलने तक इस हेतु अपने शब्द-बीज बोता रहूँगा मेरे भाई!
-आमीन',टूटा तारा बोला और अनंत में विलीन हो गया।
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(5). आ० तस्दीक अहमद खान साहिब 
सियासत
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अनवर अंसारी ने विधान सभा चुनाव का पर्चा दाखिल करने के बाद अपने कार्य कर्ताओं को घर पर मीटिंग लेते हुए अपनी परेशानी ज़ाहिर करते हुए कहा, "इस बार का चुनाव पिछले चुनाव के मुक़ाबले मुश्किल हो गया है इसलिए मशवरे के लिए आप सबको यहाँ पर बुलाया है"
एक कार्यकर्ता बोला, "आपकी छवि नरेश गुप्ता से अच्छी है, पिछला चुनाव आपने जीता था, आप ऎसा क्यूँ कह रहे हैं"
अनवर ने जवाब में कहा, "पिछली बार सीधी टक्कर थी मगर इस बार मुस्लिम वोट के बिखराव के लिए नरेश गुप्ता ने लालच देकर खालिद अंसारी का खड़ा करवाया है"
दूसरे कार्यकर्ता ने कहा," आपने क्षेत्र में काम करवाए हैं, खालिद अंसारी से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा "
अनवर ने जवाब में कहा, "खालिद अंसारी की वजह से मुस्लिम वोट दो जगह बटेगा जिसका फ़ायदा नरेश गुप्ता को होगा "
तीसरे कार्यकर्ता ने कहा," मुस्लिम वोट न बटे इसका क्या समाधान है"
अनवर ने जवाब दिया," इसके लिए ही आप सबको मशवरे के लिए बुलाया है "
एक बुज़ुर्ग कार्यकर्ता फ़ौरन बोल पड़े," खालिद अंसारी तो बैठेंगे नहीं, आप उन्हें समर्थन दे दीजिए "
अनवर ने ये सुनते ही खालिद अंसारी को फोन मिलाकर कहा," हम दोनों अगर खड़े रहे तो जीत नरेश गुप्ता जैसे बुरे आदमी की होगी इसलिए मैं बैठ जाता हूँ "
दूसरी तरफ से खालिद अंसारी की आवाज़ आई, "माफ़ करना अनवर भाई मैं लालच में आ गया था, मैं चाहता हूँ आप जैसा नेक इंसान चुनाव जीते, मैं कल ही नाम वापस ले लूँगा"
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(6). आ० आसिफ ज़ैदी जी 
समाधान

भोलू को रुपये की सख़्त ज़रूरत पड़ी तो वो अपने दोस्त पप्पू के पास गया और ₹5000 इस वादे पर ले लिए कि अगले महीने की 1 तारीख़ को लौटा देगा। लेकिन जब एक तारीख़ आई तो उसके पास रुपए की व्यवस्था नहीं हुई। तो उसे अपने दूसरे दोस्त चम्पू की याद आई चम्पू से उसने ₹5000 उधार लिए इस वादे पर के अगले महीने की 1 तारीख़ को लौटा देगा। फिर एक तारीख़ आ गई भोलू, पप्पू के पास गया और कहा मैंने तुम्हारे पहले रुपये दे दिए थे इसलिए मुझे ₹5000 फिर उधार दे दो, अगले महीने की 1 तारीख तक। पप्पू ने दे दिए,तो चंपू को दे दिए। फिर जब पप्पू के तकाज़े की तारीख़ आई तो चम्पू से ₹5000 व्यवहार की दुहाई देकर फिर ले लिये और पप्पू को दे दिए।
अब ये सिलसिला चालू हो गया चम्पू से पप्पू को,पप्पू से चम्पू को। कई महीने गुज़र गए। एक दिन परेशान होकर भोलू ने (समस्या का समाधान ढूंढा) दोनों को काका की होटल पर चाय नाश्ते की दावत दी। और चाय नाश्ता करने के बाद दोनों से बोला यार चम्पू जो रुपये मैं तुझसे एक तारीख़ को ले जाता हूं,वह पप्पू को देता हूं। और पप्पू से जो लाता हूं तुझे दे देता हूं। अब मैं यह करते करते थक गया यार..। लिहाज़ा तुम दोनों एक काम करो हर महीने की 1 तारीख को ₹5000 एक दूसरे से लेते देते रहना।(हाथ जोड़कर) और मुझे माफ़ कर दो यार (पप्पू,चम्पू कुछ समझते और कहते) ये कहकर भोलू चम्पत हो गया।
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(7) आ० विनय कुमार जी 
समाधान
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"अब जब उस कायर देश ने जंग की शुरुआत कर ही दी है तो हमें भी पीछे नहीं हटना है. हम ईंट का जवाब पत्थर से देंगें", सभागार में माहौल गर्म था, वहां उपस्थित हर आदमी उत्तेजित था.
"जंग अगर अपरिहार्य हो तो होनी ही चाहिए, लेकिन अगर सिर्फ छुद्र तात्कालिक फायदे के लिए जबरदस्ती कराया जा रहा हो तो इसका विरोध किया जाना चाहिए", वहां मौजूद एक वक्ता ने अपनी बात पूरी गंभीरता से रखी.
अभी उस व्यक्ति ने बात ख़त्म भी नहीं की थी कि सभागार में चारो तरफ से शोर उठाने लगा. वहां मौजूद हर शख्स की निगाह में वह व्यक्ति देशद्रोही जैसा लग रहा था. कुछ अति उत्साही लोगों ने उसे गाली देना भी शुरू कर दिया और बाकी लोगों ने उन्हें रोकने की जहमत भी नहीं उठायी.
खैर एक शख्स उस व्यक्ति के समर्थन में आगे आया और उसने लोगों को रोका. चूँकि वह शख्स काफी प्रभावशाली था इसलिए लोग उसकी बात मानने को मजबूर हुए और खामोश हो गए. लेकिन उनकी निगाहें अभी भी उसके लिए नफरत और आग ही बरसा रही थी.
"अच्छा आप अपनी बात को स्पष्ट कीजिये कि आपका मतलब क्या था?, उस शख्स ने पूछा.
उस वक्ता ने आँखों ही आँखों में उस शख्स को धन्यवाद दिया और फिर उसने अपनी बात रखी "मुझे जो लगता है वह मैं कह रहा हूँ. हो सकता है कि आप लोग उससे असहमत हों लेकिन कृपया इसे समझने का प्रयास करें. युद्ध अगर आवश्यक हो तो लड़ना ही है लेकिन अगर युद्ध कराया जा रहा हो तो इसका विरोध किया जाना चाहिए. मुझे नहीं पता कि आप लोगों में से कितनों के घर से लोग फ़ौज में हैं, लेकिन मेरे कुछ रिश्तेदार जरूर हैं. सैनिक लड़ने के लिए ही हैं और वह शहीद भी होंगे, लेकिन उनकी बलि चढ़ाई जाए, यह गलत है. बाकी एक बात और, युद्ध समस्या का समाधान नहीं है, उसके लिए बातचीत ही होनी चाहिए".
अपनी बात रखकर वह व्यक्ति सभागार से निकल गया, पीछे सभागार में मौजूद लोगों का शोर बढ़ता ही जा रहा था.
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(8). डॉ टी.आर सुकुल जी 
समाधान ?
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‘‘बड़ी मुसीबत है, पैदल चलना भी मुश्किल हो गया है । रोड पर हर जगह दिनरात वाहनों की भीड़ रहती है। ’’
‘‘ सच कहा यार! फुटपाथ तो बचे ही नहीं हैं, उन पर दूकाने सजी रहती हैं या फिर अव्यवस्थित वाहन खड़े रहते हैं और रोड पर तेज गति से वाहन चलते हैं।’’
‘‘ लोगों में ‘सिविक सेंस’ बचा ही नहीं, ट्रेफिक पुलिस भी उनकी लापरवाही को अनदेखा करती है। कोई बड़ी बात नहीं है, पुलिस चाहे तो सब कुछ ठीक हो जाए।’’
पार्क में वैठे बुजर्गों के बीच चल रही इस वार्ता को सुन सामने वैठा नवयुवक पास आकर बोला,
‘‘‘‘ अंकल! मैं अभी सिलेक्ट हुआ नया पुलिस इंस्पेक्टर हॅूं, मैंने एक ओवरलोड ट्रक को पकड़ कर कानूनी कार्यवाही करना चाही, दस मिनट के भीतर ही परिवहन मंत्री ने फोन किया, इंस्पेक्टर! ट्रक को छोड़ दो ये अपने आदमी हैं। मैंने कहा,
‘‘लेकिन सर! ओवरलोड के अलावा इसमें तो कुछ संदिग्ध माल भी भरा है, बिना जाॅंच कराए छोड़ना कानून का उल्लंघन होगा, कैसे छोड़ दॅूं?
‘‘ भेरी गुड, नया नया है न! तू कानून का रखवाला है और मैं कौन हॅूं जानता है? मैं हॅूं कानून का बाप, कानून बनाने वाला, मैं जो कहता हॅूं वही कानून होता है, समझा?’’
‘‘ परन्तु सर! ट्रेनिंग के बाद हमने कानून की रक्षा की शपथ ली है, क्या मैं आपके कहने पर उसे तोड़ दॅूं?’’
‘‘ कितनी बहस करता है रे! अब, तू ही निर्णय कर ले, शपथ तोड़कर ट्रक को छोडता है़ या फिर कुर्सी?’’
मैंने शपथ नहीं तोड़ी, अब मैं सस्पेंडेड हॅूं’’’’
‘ बेटा! यही हो रहा है, लालैसनेस बढ़ती जा रही है, जनता को कानून का पाठ पढ़ाने वाले नेता स्वयं कानून का पालन नहीं करते। अब तो लोग कहने लगे हैं कि कानून के विपरीत काम न करा पाए तो नेता काहे के?’
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(9). योगराज प्रभाकर
सखा
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इस दूरदराज़ और निर्जन इलाक़े में उसे दोस्तों की कमी बहुत खलती। उदासी के गहरे काले बादल हर समय उसके आसपास मंडराते रहतेl वह अपनी मनपसंद विदेशी विडियो गेम से भी बहुत जल्द ऊब गयाl उसके पिताजी ने उसे महँगा मोबाइल फोन खरीदकर दे दिया। अब तो उसे दोस्तों की कमी और भी शिद्दत से महसूस हुई, वह फिर से उदासी के गहरे सागर में डूब गया। माता-पिता से बेटे की उदासी देखी नहीं जा रही थीI उन्होंने उसे नई बाइक दिलवा दी। वह कुछ दिन हवा की रफ़्तार से बाइक दौड़ाता रहा, उदासियों को दूर धकेलता रहा। उसके चेहरे की लालिमा देखकर पिता ने राहत की साँस ली। लेकिन सुनसान सड़कें उससे अक्सर पूछतीं, 'तुम अकेले क्यों हो? तुम्हारे दोस्त कहाँ हैं?" वह फिर से उदास रहने लगा।
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यह उदासी उसके माता-पिता के दिल पर आरियाँ चलाने लगतीं। उन्होंने दुनिया की हर क़ीमती चीज़ अपने बेटे के क़दमों में लाकर रख दी मगर बेटे की आँखें हर चीज़ में दोस्त तलाशती रहती और उन्हें न पाकर उदासी से लबालब हो जातीं। उस शाम चिंतित माँ ने उसके ह्रदय के अकेलेपन से खुलकर गुफ़्तगू की। माँ को उत्तर ढूँढने में अधिक समय नहीं लगा थाI माँ के चेहरे पर एकदम मुस्कुराहट के फूल खिल उठे थे।
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आज जब उदासी उसकी दहलीज़ पर पहुँची तो कमरे के अंदर आ रही खिलखिलाहट भरी वार्तालाप की स्वरलहरी सुनकर सहसा ठिठककर वहीँ रुक गई। भीतर झाँककर देखा तो वह प्रसन्नचित्त, हँस-हँसकर रंग-बिरंगी किताबों से बातें कर रहा था। उसके अंदर का मुरझाया हुआ फूल अब पूरी तरह खिला हुआ था। उसने अंदर जाने के लिए पाँव बढ़ाया ही था कि किताबों ने उसे घूरकर देखा और चेतावनी भरे स्वर में कहा,
“दूर हो जाओ यहाँ से, अब यहाँ तुम्हारा कोई काम नहीं।”
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(10). आ० बबिता गुप्ता जी 
समाधान 
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अकस्मात हुई ट्रेन दुर्घटना हुई जनक्षतिग्रस्त परिवारों को राहत राशि की घोषणा की,जिसमें म्रतको में लक्ष्मी भी थी.परलोक सिधारी लक्ष्मी की माँ बेहाल थी,दादी रोते हुये समझा रही थी, ‘भगवान को यही मंजूर था,तेरा तो बोझ हल्का कर गई……जाते-जाते दो जून की रोटी का इंतजाम कर गई........’
दादी की बातों में अफसोस की जगह संतोष झलक रहा था,ऐसा सुन लक्ष्मी की माँ खीझ कर चिल्लाते हुये बोली, ‘तुम सब के लिए बोझ थी,पर वो हमारे कलेजे का टुकड़ा थी.’
सिर पर हाथ रखे दुखित घीसू का मन ,लक्ष्मी के साथ की गई उपेक्षा को याद कर,आत्मग्लानि से भर गया.उसकी आँखों के सामने,दौड़कर आती लक्ष्मी पानी का गिलास लाते दिखने लगी,जब वो काम से लौटकर आता था,कैसे वो पैरों से लिपट जाती और कुछ देने के लिए हाथ फैला देती.
घीसू की सबसे छोटी औलाद,दो बेटी और एक लड़के के बाद की,राम-लखन की जोड़ी बनाने का,दादी का ज़ोर, परिणाम लक्ष्मी का जन्म,सुनकर पूरे घर को साँप सूंघ गया,सिवाय लक्ष्मी की माँ के.दादी की मुराद पर घड़ों पानी पड़ जाने पर,नवजात शिशु ने दुनियाँ देखने के लिए आंखे भी ना खोली थी,कि कोसने लगी, ‘लो,पहले ही क्या दो-दो का बोझ कम था,सो एक और चली आई.’
पास बैठी बुआ सास भी नाक-भौ सिकोड़कर अपनी बात से जले पर नमक छिड़ककर,एक लंबी सास लेकर कहने लगी, ‘बिचारा,दुखियारा बाप,दो वक्त की रोटी की कैसे तो जुगाड़ कर पाता हैं,फिर कैसे,तीन-तीन को व्याहेगा?’
घीसू भी लक्ष्मी के पैदा होने में,अपनी पत्नी,सुम्मों को दोषारोपित करते हुये कहता, ‘मरे ना,माछों दे.’
सब की कटुभरी बातें सुन लक्ष्मी को सीने से लगा सुम्मों चिल्लाते हुये कहती, ‘तुम सब की जुवान जले.मेरी लक्ष्मी,अपने नाम जैसा काम करेगी,देखना.’
घीसू,सुम्मों की कही बात की खिल्ली उड़ाते हुये,उपहास भरे शब्दों मे कहता, ‘खोटे सिक्के कभी चले हैं,बड़ी पंडिताईन बनती हैं........’
अपने में ही खोये घीसू की आँखों से आँसू बहते देख,दादी ने उसे झकझोरते हुये कहा, ‘जाने वाले के लिए रोकर,दान में मिली लक्ष्मी को नहीं ठुकराते.’
अपने आप से बड़बड़ाता हुआ घीसू अपनी पत्नी की कही बात याद करने लगा,कि लक्ष्मी,लक्ष्मी ही थी,जैसा नाम......,वैसा ही काम........... ओ
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(11). आ० शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी '
स्ट्राइक्स' स्ट्राइक - (लघुकथा) :


"न हड़तालों को वाजिब मानता हूं और न ही शल्यचिकित्सात्मक सैन्य स्ट्राइक को! बैठ कर चर्चा करके कोई समाधान निकाला जाना चाहिए, बस!" मिर्ज़ा सर जी के भाषण के इस अंश का अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालय के कुछ शिक्षकगण भी उपहास कर रहे थे और कुछ मुंह लगे विद्यार्थी भी। 
"ऐसे लोगों के मुंह लगना भी ठीक नहीं!" यह सोच कर आज वे स्टाफरूम में बैठे हुए अपने किसी काम में व्यस्त थे।
"अच्छा हुआ! ऐसे ही दुश्मनों के घर अचानक सीधे घुस कर स्ट्राइक कर देना चाहिए! चालीस के बदले चार सौ उड़ा दिए! मज़ा आ गया!" एक शिक्षिका ने लगभग उछलते हुए कहा।
"कल तो हमारे यहां भी मिठाइयां बांटी गईं; सबको बधाइयां दीं गईं!" दूसरी शिक्षिका ने मिर्ज़ा सर की ओर देखते हुए ऐसे ढेर सारे समाचार सुना डाले।
"शराफ़त का ज़माना नहीं रहा अब! बहुत बर्दाश्त कर ली! अब तो सबक़ सिखा ही देना चाहिए दुश्मन को!" पहली वाली इतने अधिक जोश में बोल पड़ी कि मिर्ज़ा सर के काम पर वे बोल स्ट्राइक कर गए। गर्दन पीछे घुमा कर वे उन सभी शिक्षिकाओं को देखने लगे; लेकिन चुप्पी साधे रहे।
"समाधान में देर नहीं करना चाहिए, हम औरतों को भी! मैं तो बिल्कुल नहीं दबती अपने हसबैंड से भी! कोई भी ग़लत बात स्ट्राइक हुई, तुरंत ही रिएक्ट कर राइट कर देतीं हूं!" पिछले वर्ष ही विवाहित हुई शिक्षिका ने चर्चा में दिलचस्पी लेते हुए कहा ही था कि उनके बगल में बैठी जींस-टॉप पहनी नवनियुक्त युवा शिक्षिका टांगें फैला कर कमर पर हाथ रखकर बोली - "मैं तो अपने पापा से भी कह देती हूं कि नये ज़माने की पढ़ी-लिखी हूं! नो टोका-टाकी,नो रोका-राकी! जो पहनना है, पहनूंगी; जो करना है करूंगी!" इतना कहकर इधर उसने अपने दोनों हाथ ऊपर की ओर लहराये और उधर मिर्ज़ा सर की निगाहें उसके ऊपर की ओर सरकते टॉप पर और फिर उघड़े उदर पर पड़ीं! तुरंत उन्होंने अपना पढ़ने वाला चश्मा आंखों पर चढ़ाया और जो पुस्तक हाथ में आई, उसी के पन्ने सिर झुका कर ऐसे पढ़ने लगे जैसे कि उन पर तहज़ीब ने करारी स्ट्राइक की हो। तभी घंटी बज गई और वे तेज क़दमों से अपनी अगली कक्षा में धड़ाधड़ घुस गये! देखा कि दो छात्र आपस में हाथापाई कर अभद्र बड़बोलापन कर रहे थे।
"साले तेरे घर में सीधे घुस कर ऐसी स्ट्राइक करूंगा कि गिरा, तो उठ भी नहीं पायेगा!" एक छात्र चीखा।
"हां, हां, तेरे पास भी उधार की कोई विदेशी ताक़त है न! तभी तो सक्सेना सर तुझे हमारी कक्षा का आतंकवादी कहते हैं!" दूसरे ने जवाबी जुमला उगला।
मिर्ज़ा सर ने 'गर्व' और 'आसिफ़' नाम के उन दोनों छात्रों के कान पकड़कर दोनों को कक्षा के सामने हाथ ऊपर करवा कर खड़ा कर दिया।
"चुप हो जाओ बे सब लोग! सर जी अब ज़रूर ताजा समाचार सुनायेंगे या पड़ोसी देशों और पावरफुल देशों की करतूतें!" पीछे बैठे एक लम्बे से छात्र ने अपनी टांगें बेंच के बाहर फैलाते हुए कहा।
"देखो बच्चों, अगले महीने से तुम्हारी वार्षिक परीक्षाएं शुरू हो रही हैं। ताज़े समाचारों से अवगत भले रहो, लेकिन अपना मन केवल पढ़ाई पर केंद्रित करो! ऐसी रणनीति से परीक्षाओं से लड़ो कि मनचाही विजय मिले!"
मिर्ज़ा सर इतना बोल कर ब्लैकबोर्ड पर 'रिवीज़न टेस्ट' के प्रश्न लिखने लगे। तभी पीछे से एक मोटा से विद्यार्थी बोला - "सर, तीसरा विश्व युद्ध अब तो शुरू हो जायेगा न! हमें देखना है; मज़ा आयेगा!" इतना कहकर वह अपनी टेबल पर तबले सी ताल देने लगा! 
मिर्ज़ा सर सिर्फ इतना ही बोले - "ऐसा तो हमें सपने में भी नहीं सोचना चाहिए! चौदह साल के हो चुके हो! सेहत, पढ़ाई और करिअर की सोचो! मौक़ापरस्ती चल रही है देश-दुनिया में तो!"
"सर, ये मौकापरस्ती क्या होती है?" आगे बैठी एक छात्रा ने पूछा।
"अवसरवादिता!" जवाब दिया गया, जिस पर सज़ा में खड़े छात्रों में से एक बोला "ये कौन सी भाषाओं के वर्ड्स बोल रहे हो, सर जी! अंग्रेज़ी वर्ड बताओ!"
"इस अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत से ही तो बचना है न, अपनी संस्कृति पर उनकी स्ट्राइक्स रोककर!" इतना कहकर उन्होंने छात्रों को प्रश्नोत्तर शीघ्र लिखने का निर्देश दिया।
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इस त्वरित  संकलन के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय सर| आपके इस श्रम को नमन| 

हार्दिक आभार आ० कल्पना भट्ट जी.

वाह। इस त्वरित संकलन हेतु व सफल आयोजन/संचालन हेतु हार्दिक बधाई और आभार आदरणीय संचालक महोदय श्री योगराज प्रभाकर साहिब। मेरी रचना को स्थान देने हेतु हार्दिक आभार। सभी सहभागी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।

सुझावों हेतु बहुत-बहुत शुक्रिया। कोशिश करूंगा विवरण कम करने की। दरअसल ऐसे हालात में एक हक़ीक़तन सारा दृश्य स्पष्ट शाब्दिक करते हुए संबंधित संदेश सम्प्रेषित करना चाहा था। (आइ-फ्लू के कारण भी अधिक समय नहीं दे सका।) सादर।

हार्दिक आभार भाई उस्मानी जी. विद्वानों का मानना है की जितनी अधिक काटछील की जाए रचना उतनी ही निखरती है. 

आदाब। जी। आपके सुझावों अनुसार मुझे अपनी बहुत सी रचनाओं में ऐसा करना है। करना भी चाहता हूँ। शीघ्र ही करूंगा।

मुहतरम जनाब योगराज साहिब, ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक 47 के त्वरित संकलन और कामयाब निज़ामत के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं I 

हार्दिक आभार आ० तस्दीक अहमद खान साहिब. 

जनाब योगराज प्रभाकर साहिब आदाब,"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी"अंक 47 के त्वरित संकलन और बहतरीन संचालन के लिए बहुत बहुत मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

हौसला अफजाई का बहुत-बहुत शुक्रिया मोहतरम जनाब समर कबीर साहिब. 

इस त्वरित  संकलन के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर सर|

हार्दिक आभार भाई विनय कुमार सिंह जी, आपकी लघुकथा सच में आयोजन की बेहतरीन लघुकथा थी. एक बार फिर से बधाई स्वीकार करें.

इस त्वरित संकलन में, मेरी रचना को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार ,आदरणीय योगराज सरजी।

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